जल प्रबंधन में कुशल केरल क्यों डूबा बाढ़ में, यह त्रासदी सबक है पूरे देश के लिए

यह त्रासदी यह सुझाव दे गई है कि देश में बने पुराने तालाबों की उपयोगिता को फिर से समझा जाए। ये तालाब जल ग्रहण क्षेत्र में ही पानी को रोककर रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते है। केरल के हादसे के बाद अब हमें नदियों के रास्तों को संकरा करने से बाज आना चाहिए। यानी यही सबक है कि विकास की वासना को काबू में रखना चाहिए ताकि प्रकृति के अकस्मात कोप से बचने के लिए गुंजाइश बनाकर रखी जा सके।
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सौ बरसों में सबसे भयावह बारिश के बीच केरल त्राहिमाम कर रहा है। चार दिनों तक इतनी खराब स्थिति रही कि भारत के इस तटीय राज्य की कि संयुक्तराष्ट्र तक को हालात पर संज्ञान लेना पड़ा। क्यों न करता क्योंकि वहां 350 लोग मर गए हैं। लगभग 10 लाख लोग राहत शिविरों में हैं। सारी दुनिया करूणा का भाव दिखा रही है। संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश ने फौरन मदद भेजने का एलान किया। देश के कई प्रदेश अपनी-अपनी हैसियत के मुताबिक केरल को मदद भेज रहे हैं। दो रोज़ पहले केंद्र सरकार ने 500 करोड़ की राहत मंजूर की है। यानी अब केरल की भयावह स्थिति को लेकर कोई दुविधा है नहीं।

गौरतलब है कि दक्षिण प्रायद्वीप का यह राज्य जल संसाधन के मामले में संपन्न प्रदेश है। जल भंडारण के लिए उसके पास पर्याप्त क्षमता है। ऐसा माना जाता है कि यह क्षमता बाढ़ और सूखे दोनों ही संकट को कम करती है। लेकिन यहां अचानक इतनी बारिश हो गई कि जो बांध पहले से काफी कुछ भरे हुए थे उनमें और पानी रोका नहीं जा सकता था। बल्कि उन बाधों में पहले से भरे पानी को अपने गेट खोलकर जल्द से जल्द बाहर निकालना पड़ा। यानी बाढ़ रोकने में ये बांध बेबस साबित हुए। इस प्राकृतिक विपदा ने जल प्रबंधन के मामले में मजबूत केरल जैसे राज्य में इतनी तबाही मचा दी है तो हमें अब दूसरे राज्यों की बाढ़ प्रवणता का हिसाब लगाकर रखना चाहिए।

केरल में देश भर से ढाई गुना बारिश हाती है

पिछले 50 साल के बारिश के आंकड़ों के हिसाब से ही देश की औसत बारिश का आंकड़ा बनाया जाता है। देश में हर साल औसतन 118 सेंटीमीटर पानी बरसता है। लेकिन केरल की औसत बारिश 292 सेंटीमीटर है। यानी देश की औसत बारिश से कोई ढाई गुना। ऊपर से इस साल 7 अगस्त और 14 अगस्त को केरल पर बादल सा फट पड़ा। दैनिक आधार पर कोई चार गुना पानी गिर गया।

बाढ़ से बचाने वाले बांध खुद बन गए आफत

केरल में बिजली उत्पादन और जल प्रबंधन में उसके 33 बांधों की बड़ी भूमिका है। एशिया का सबसे बड़ा आर्च बांध इडुक्की केरल में ही है। बहरहाल इस बार की अनहोनी का कारण यह कि केरल ने बारिश का सौ साल का रिकार्ड तोड़ दिया, जबकि दक्षिण पश्चिम मानसून के अभी ढाई महीने ही गुजरे हैं। डेढ़ महीना अभी बाकी है। अभी तक जितना पानी गिरा है उतना पूरे साल में गिरता है। एकसाथ ज्यादा बारिश से पैदा होने वाले खतरे को कम करने के लिए ही बांधों में हमेशा जलस्तर पर नज़र रखी जाती है। लेकिन इस बार इतना ज्यादा पानी गिर गया कि सारा हिसाब-किताब ही गड़बड़ा गया। कहते हैं जब आफत सिर पर आ गई और बांधों के सारे दरवाजे भी खोल दिए फिर भी बांधों का जल स्तर कम नहीं हो पा रहा था। यानी जल संग्रहण क्षेत्र में इतनी बारिश हो रही थी कि जल स्तर का नियमन हो नहीं पाया। अब अगर ये अनहोनी देख ली है तो देश के और केरल के योजनाकारों को बांधों के जल स्तर के नियमन पर नए सिरे से सोचना पड़ेगा।

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मौसम विभाग को अपनी पूर्वानुमान प्रणाली पर सोचना पड़ेगा

इस बार मानसून के पूर्वानुमान को लेकर मौसम विभाग लगातार दावे करता आ रहा था कि देश में सामान्य बारिश होगी। उसका यह आंकड़ा पूरे देश की कुल बारिश को बताता है। वैसे वह हर दिन होने वाली वर्षा का आंकड़ा भी जारी करता है और हर हफ्ते बताता चलता है कि देश में मानसून की क्या स्थिति है। मौसम विभाग ने देश को चार हिस्सों में बांट रखा है। वह इन चार हिस्सों में वर्षा का अलग-अलग हिसाब भी रखता है। केरल दक्षिण प्रायद्वीप वाले हिस्से में है। गौर करेंगे तो पाएंगे कि मौसम विभाग के हिसाब में दक्षिण प्रायद्वीप में ज्यादा बारिश नहीं हुई है। सिर्फ केरल ही अचानक भयावह बारिश का शिकार हो गया। पर्यावरणविद बता रहे हैं कि आपदा आने के पहले मौसम विभाग ऐसी भयावह बारिश का पूर्वानुमान नहीं कर पाया। हालांकि मौसम विभाग मानसून के दिनों में रोज़ ज्यादातर हिस्सों में भारी बारिश की चेतावनी जारी करता ही रहता है। इससे इसका पता ही नहीं चलता कि खतरे की तीव्रता क्या है। अब जब केरल में त्रासदी भोगनी पड़ी है तो समझदारी इसी में है कि देश में वर्षा के पूर्वानुमानों का आधार देश के 36 सबडिवीज़नों को बनाया जाए। अगर हम उपग्रहों से जलवायु संबंधी गतिविधियों पर नज़र रखने का इतना जोरशोर से दावा करते हैं तो यह काम ज्यादा बड़ा नहीं होना चाहिए।

क्या आलम रहा बारिश का अबतक

देश के चार हिस्सों में अब तक हुई वर्षा के आंकड़ों को ज़रा गौर से देखेंगे तो पाएंगे कि जुलाई और अगस्त के पहले हफ्ते तक देश में कुल बारिश औसत से 11 फीसदी कम रही थी। उसके बाद केरल में भयावह बारिश हो जाने के बाबजूद देश मे आज भी औसत से 8 फीसदी कम बारिश हुई है। अगर केरल का 42 फीसदी ज्यादा बारिश की तबाही का आंकड़ा न जुड़ा होता तो इस समय हम अपने मानसून के पूर्वानुमानों के गलत होने का रोना रो रहे होते।

कई जगह हद से कम भी बारिश हुई

केरल के अलावा देश के कई हिस्सों में कम बारिश का रोना अभी भी है। मसलन उत्तरपूर्व के आठ सबडिवीजनों में से सात सबडिवीज़नों में 20 अगस्त तक औसतन 29 फीसदी कम बारिश हुई है। अरूणाचल 38 फीसदी कम बारिश होने से सदमे में है। असम मेघालय में 33 फीसदी कम पानी गिरा है। झारखंड और बिहार तक 19 फीसदी कम बारिश से बेहाल हैं। यानी वहां सूखे जैसे हालत लग रहे हैं। 19 अगस्त तक की स्थिति पर गौर करें तो देश के कुल 36 सबडिवीजनों में सामान्य से कम बारिश वाले 11 सबडिवीज़न है, जबकि सामान्य से ज्यादा बारिश वाला सिर्फ एक सबडिवीजन यानी सिर्फ केरल है। गौरतलब है कि मौजूदा मानसून खत्म होने में अब सिर्फ सवा महीना बचा है। पूरे देश में अब तक वर्षा का औसत देखें तो आठ फीसद कम पानी बरसा है। यानी मौसम विभाग का पूर्वानुमान गड़बड़ाने का पूरा अंदेशा है। बारिश के पूर्वानुमानों की उपयोगिता यही है कि किसान को अपनी फसल बोने के लिए बारिश का कुछ अंदाजा हो जाए। मध्यप्रदेश के झाबुआ से रिपोर्ट आ रही हैं कि किसान बिना पानी के फसल चौपट होने के अंदेशे में जी रहे हैं। उधर केरल सौ साल की रिकार्डतोड़ बारिश से त्राहिमाम कर रहा है। बाढ़ और कम बारिश दोनों ही सूरत में मौसम विभाग के पूर्वानुमान किसी काम नहीं आए। बल्कि महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में किसानों ने इन पूर्वानुमानों के आधार पर फैसले लेने से उनकी जो बर्बादी हुई है, उसके लिए मौसम विभाग को जिम्मेदार तक ठहरा दिया।

केरल की त्रासदी कितनी कुदरती

तथ्य बता रहे हैं कि अकल्पनीय बारिश ने ये हालात पैदा किए। लेकिन कुछ विश्लेषण ये भी हैं कि इस त्रासदी को बांधों के प्रबंधंन की अनदेखी ने भी बढ़ाया। बांध प्रबंधकों का तर्क यह है कि उन्हें वर्षा के सही पूर्वानुमान नहीं मिले। उधर कुछ मीडिया रिपोर्ट याद दिला रही हैं कि सन 2011 में माधव गडगिल कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में आगाह किया था कि प्राकृतिक संसाधनों से छेड़छाड़ ठीक नहीं है। ये अलग बात है कि विकास की चाह में यह छेड़छाड़ सार्वभौमिक समस्या बन चुकी है। बहरहाल गडगिल कमेटी ने पश्चिमी घाट में ज्यादा खनन और उंची इमारतों को बाढ़ के प्रति संवेदनशील वाला और पहाडि़यां खिसकने व ज़मीन धसकने की स्थितियां बनाने वाला बताया था। एक तरह से अंधाधुंध विकास को लेकर आगाह किया गया था।

यहां यह भी दर्ज कराया जाना ठीक रहेगा कि पश्चिमी घाट के संरक्षण के लिए गडगिल कमेटी की सिफारिशों का लगभग सभी राजनीतिक दलों ने विरोध किया था। क्योंकि उनकी सिफारिशों को लागू करने से बड़ी संख्या में रिहाइशी इलाकों से लोगों को विस्थापित करना पड़ता। फिर भी केरल में इस अनहोनी के बाद गडगिल कमेटी की सिफारिशों को याद दिलाया जाना स्वाभाविक है। यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि केरल की तरह बाढ़ प्रवण स्थितियां देश के दूसरे हिस्सों में भी हैं। कुछ साल पहले ही चेन्नई में बाढ़ के समय भी ऐसी ही बातों को याद दिलाया गया था। इतना ही नहीं केरल की त्रासदी के बाद यह भी याद दिलाया जा रहा है कि वहां बांधों को भरने के स्तर को लेकर क्या क्या सुझाव दिए गए थे। ज्यादा बिजली के लालच में बांधों को पूरा भरने का लालच भी इस त्रासदी को बढाने वाला साबित किया जा रहा है। ऐसे और भी कारण गिनाए जाएंगे। लेकिन इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि मौजूदा त्रासदी का सबसे बड़ा कारण सौ साल की बारिश के रिकार्ड का टूटना था।

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ये सबक ले सकते हैं इस अनहोनी से

अगर इस अनहोनी से कोई सबक लेना चाहें तो पहला सबक यही बनता है कि हमें अपने बांधों में उनकी स्वीकृत क्षमता से भी कम पानी जमा करके रखना चाहिए। या फिर और बांध बनाकर रखना चाहिए। या इन बांधों को उंचा बनाने की बजाए इन्हें तालाब के तरह गहरा कर लेना चाहिए इस व्यवस्था को हाइड्रोलॉजी की भाषा में डेड स्टोरेज कहा जाता है। डैड स्टोरेज का यह पानी बिजली बनाने और सिंचाई के लिए भले काम न आता हो लेकिन बाढ़ से निपटने और भूजल को रिचार्च करने का बड़ा काम कर सकता है। यह त्रासदी यह सुझाव दे गई है कि देश में बने पुराने तालाबों की उपयोगिता को फिर से समझा जाए। ये तालाब जल ग्रहण क्षेत्र में ही पानी को रोककर रखने में बहुत बड़ी भूमिका निभाते है। केरल के हादसे के बाद अब हमें नदियों के रास्तों को संकरा करने से बाज आना चाहिए। यानी यही सबक है कि विकास की वासना को काबू में रखना चाहिए ताकि प्रकृति के अकस्मात कोप से बचने के लिए गुंजाइश बनाकर रखी जा सके।  

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