निर्भया के यौन शोषण के एक अपराधी को उच्चतम न्यायालय ने वर्तमान में लागू नियमों के तहत बरी कर दिया। पक्ष और विपक्ष के सभी सांसद आरम्भ से ही जानते थे कि वह बरी हो जाएगा लेकिन तीन साल में अनेक बार चर्चा की कोशिश के बावजूद कानून में बदलाव नहीं किया। सांसद एक तो सदन में आते नहीं और यदि आते हैं तो शोर मचाने के लिए। जब आलोचना होती है तो कहते हैं जब ये विपक्ष में थे तो इन्होंने भी सदन को नहीं चलने दिया था। यानी आप दोनों बारी-बारी से देश के गरीबों का अरबों रुपया बरबाद करते रहें, सदन को न चलने दें, परस्पर दोषारोपण करते रहें तो क्या निर्भया के परिवार को न्याय दिला रहें हैं? पूरा सत्र निकल जाता है और अहम विधेयक धरे रह जाते हैं।
हमारे गाँव में यदि कोई मजदूर काम पर नहीं आता है तो उसे उस दिन की मजदूरी नहीं मिलती। गाँव का कोई कारीगर या शहरों में बाबू, अधिकारी या अन्य कर्मचारी जब बिना अवकाश लिए ड्यूूटी से गायब रहता हैं तो उसकी दिहाड़ी कट जाती है। और यदि कोई अध्यापक साल दर साल स्कूल में नौकरी करता है, हाजिरी लगाता है लेकिन पढ़ाता नहीं तो उसकी तनख्वाह को हराम का पैसा कहा जाता है। मैं कह नहीं सकता कि यह नियम सांसदों पर लागू होगा कि नहीं परन्तु हैं तो सांसद भी वेतनभोगी। इसके वाबजूद सांसदों का वेतन दोगुना करने की तैयारी हो रही है।
काम करने के नाम पर बात बात में जांच आयोग बिठाते हैं लेकिन कभी तो रिपोर्ट ही सदन के पटल पर नहीं रखी जाती तो कभी खुद ही अस्वीकार कर देते हैं। अनेक मामलों में जैसे नेताजी की मौत या फिर चीन के हाथों भारत की पराजय की रिपोर्ट इसके उदाहरण हैं। पहले से ही पता रहता है कि गोपनीय दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए जाएंगे तब जांच की कवायद ही क्यों करनी।
आजकल टीवी पर संसद की कार्यवाही दिखाई जाती है इसलिए पता चल जाता है कितनी कुर्सियां खाली पड़ी हैं और कितने सांसद मौजूद हैं सदन में। जब कभी कक्षा में कुर्सियां खाली पड़ी रहती हैं और छात्र लगातार अनुपस्थित रहते है तो परीक्षा से वंचित कर दिए जाते हैं परन्तु यहां तो परीक्षा 5 साल बाद होती है। लेकिन यदि किसी सांसद की हाजिरी 75 फीसदी से कम हो तो उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए और अगली बार चुनाव लडऩे के लिए अयोग्य घोषित कर दिया जाना चाहिए।
पेंशन की सुविधा सभी सांसदों और विधायकों को है भले ही गणना के नियम थोड़ा अलग है। कर्मचारियों और अधिकारियों के मामले में यदि सर्विस ब्रेक होती है तो पेंंशन की अवधि कम हो जाती है लेकिन सांसदों के मामले में तो लगातार सेवा महीने दो महीने भी नहीं होतीं।
सांसदों से जो आदर्श पेश किया जा रहा है हमारे विद्यार्थियों, कर्मचारियों के सामने उसके अनुसार हाजिरी और काम का कोई महत्व नहीं है। सांसदों की गैरहाजिरी होती है, धरना, हड़ताल और आन्दोलनों के लिए। छात्र और कर्मचारी भी यही करते हैं लेकिन यह सब हमेशा रचनात्मक कामों के लिए नहीं होता। यहां तक कि सदन में भी बहस का स्तर गिरता ही जा रहा है।
राजनैतिक दलों को दिया जाने वाला चन्दा और उसके तरीके ठीक नहीं है। सभी सांसद और इनके साथ के नेता मिलकर करोड़ों रुपया चन्दा के रूप में इकट्ठा करते हैं जिसका कोई हिसाब नहीं रहता। इस पर सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 का कानून भी नहीं लागू होता। पारदर्शिता से बचने का एक ही कारण हो सकता है कि ये लोग काले धन का उपयोग करके राजनीति करते हैं। अभी तक किसी दल ने अच्छा तर्क नहीं दिया है कि पार्टियों का धन सूचना अधिकार की परिधि के बाहर क्यों रहे।
संसद में बड़ी संख्या में अपराधिक रिकार्ड वाले दागी सांसद मौजूद रहते हैं। ऐसे नेता हर पार्टी में हैं किसी में कम किसी में ज्यादा। इन्हीं में से अनेक लोग मंत्री बनते हैं। एक दिन कोई इन्हीं में एकाधिकार चाहेगा और तानाशाह बन जाएगा। यदि सेना को लगेगा कि नियंत्रण सम्भव है तो वह भी ताकत अजमाएगी। हमारी पार्टियां जो कुछ कर रही हैं वह प्रजातंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है। पाकिस्तान और बंगलादेश के उदाहरण हमारे सामने हैं, आखिर वे भी तो किसी दिन हमारे भाई बिरादर थे।
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