धर्मेन्द्र मलिक
हाल में ही देश के सभी प्रमुख किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने एक स्वर में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी आरसीईपी को नकारते हुए चेतावनी दिया है कि इस व्यापार समझौते से कृषि पर आधारित लोगों की आजीविका, बीजों पर उनके प्रभुत्व को खतरा है और साथ ही यह देश के डेयरी सेक्टर को भी खतरे में डालेगा।
राजधानी दिल्ली में एक प्रेस वार्ता के दौरान किसान नेताओं ने सरकार को चेतावनी देते हुए कहा कि सरकार अन्य 16 समझौता करने वाले देश जैसे कि चीन, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और इस समझौते पर हस्ताक्षर करने को उत्सुक आसियान देशों के समक्ष घुटने ना टेके क्योंकि वह अपने-अपने देशों में बड़े कृषि व्यवसायियों को लाभ पहुँचाना चाहते हैं।
मुक्त व्यापार समझौता एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें दो या दो से अधिक देश या व्यापारिक गुट आपस में आयात और निर्यात सहज बनाने के लिए सीमा शुल्क में कटौती या कमी एवं गैर-सीमा शुल्क संबंधी अवरोधों को दूर करने के लिए सहमत होते हैं। किसी भी देश के व्यापार में आयात और निर्यात का संतुलन होना चाहिए। अगर किसी देश का आयात, निर्यात के मुकाबले ज्यादा होने लगे तो वह व्यापार घाटा (ट्रेड डिफिसिट) कहा जाता है। इसी तरह अगर निर्यात देश के आयात से ज्यादा हो तो उसे व्यापार अधिशेष (ट्रेड सरप्लस) कहेंगे।
ये भी पढ़ें- संवाद: दूध उत्पादक किसानों के हितों से ना हो समझौता
वर्ष 2015-16 के आर्थिक सर्वेक्षण से यह पता चलता है कि भारत ने अभी तक 42 ऐसे मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसके कारण भारत में आयात की मात्रा निर्यात से काफी ज्यादा बढ़ गई है। इस रिपोर्ट के अनुसार व्यापार आयात की तरफ ज्यादा बढ़ रहा है न कि निर्यात की तरफ। ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत का अन्य देशों की तुलना में सीमा शुल्क ज्यादा था जिसके कारण भारत को सीमा शुल्क में ज्यादा कटौती करनी पड़ी। नीति आयोग द्वारा तैयार मुक्त व्यापार समझौते और उनकी कीमतों पर रिपोर्ट के अनुसार आसियान, दक्षिण कोरिया और के साथ मुक्त व्यापार समझौतों के बाद से भारत को अधिक व्यापार घाटा (ट्रेड डिफिसिट) का सामना करना पड़ रहा है।
कृषि क्षेत्र में भी मुक्त व्यापार समझौतों के काफी बुरे परिणाम दिख रहे हैं क्योंकि यहां न केवल सीमा-शुल्क को कम किया गया है ( जैसा कि डब्ल्यूटीओ के मामले में होता है़) बल्कि अधिकतर जगहों पर पूरी तरह से खत्म ही कर दिया गया है। भारत-श्रीलंका मुक्त व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर के बाद श्रीलंका से सस्ती काली मिर्च और और इलायची का आयात होने लगा है, जिसका केरल के ऊपर बहुत बुरा असर पड़ा है। वर्ष 2015 में श्रीलंका से काली मिर्च की सस्ती किस्म का आयात 9500-9750 डॉलर प्रति टन पर हो रहा था। उस वक्त भारत में इसकी कीमत 11400 डॉलर प्रति टन थी।
भारत के काली मिर्च किसानों के ऊपर एक और बड़ा अघात तब पड़ा जब भारत-आसियान मुक्त व्यापार समझौता पर हस्ताक्षर हुआ। अब ज्यादातर काली मिर्च का आयात वियतनाम ( जो विश्व का सबसे बड़ा काली मिर्च निर्यातक है) और इंडोनेशिया से होने लगा है। वर्ष 2015 में वियतनाम ने 9800 डॉलर प्रति टन और इंडोनेशिया ने 9747 डॉलर प्रति टन पर काली मिर्च का निर्यात किया, जो भारतीय कीमत से कहीं कम थी। भारत में काली मिर्च के अत्यधिक आयात से घरेलू कीमत पर बहुत बुरा असर पड़ा। वर्ष 2011-12 में काली मिर्च की स्थानीय कीमत थी 240 रूपये प्रति किलो थी पर जनवरी 2016 में यह घटकर मात्र 80 रूपये प्रति किलो हो गई।
किसी भी अन्य मुक्त व्यापार समझौते की ही तरह आर0सी0ई0पी0 समझौता वार्ता में भी कोई पारदर्शिता नहीं रखी गई है। प्रभावित होने वाली जनता या क्षेत्रीय समूहो, जैसे किसान, महिला, मजदूर, स्वास्थय समूहों इत्यादि को कोई भी दस्तावेज उपलब्ध नहीं कराए गए हैं। न ही कभी उनसे कोई परामर्श किया गया है। आर0सी0ई0पी0 में अनेकों विषय शामिल हैं पर फिर भी बिना किसी सार्वजनिक प्रकटीकरण के अभी तक समझौता वार्ता के 23 दौर पूरे हो चुके हैं। कुछ लीक हुए दस्तावेजों से यह पता चलता है कि आर0सी0ई0पी0 के कारण दवाई, कर नीति, निवेशक अधिकार और किसानों को बीज की उपलब्धता के ऊपर काफी गंभीर प्रभाव पडेंगे।
ये भी पढ़ें- संवाद: कृषि कर्ज़ पर रिजर्व बैंक के पैनल की रिपोर्ट क्या कहती है?
दूसरी चिंता आसियान से है, जो इस समझौते के केन्द्र में है। इस 16 सदस्यीय मुक्त व्यापार समझौते का उद्देश्य आसियान को एक समूह के रूप में संगठित करने का उतना ही है जितना यह आसियान का अन्य 6 देशों के साथ आर्थिक एकीकरण में गहराई और विस्तार लाने का है। भारत और आसियान के बीच पहले से ही एक मुक्त व्यापार समझौता चल रहा है जिससे भारत को अभी तक कोई फायदा नहीं मिला है। भारत-आसियान समझौते के कारण भारत का आसियान के साथ व्यापार घाटा वर्ष 2010-11 में 4.98 बिलियन डॉलर से बढ़कर वर्ष 2016-17 में 9.56 बिलियन डॉलर हो गया। इससे बड़ा ठोस प्रमाण और क्या चाहिए कि भारतीय उत्पादक इस मेगा 16 सदस्यीय व्यापार समझौते में अपने समकक्ष से प्रतिस्पर्धा कर पाने में सक्षम नहीं है। भारतीय कृषि एवं निर्माण क्षेत्र के लिए यह एक आपदा की तरह होगा, क्योंकि आर0सी0ई0पी0 के अन्तर्गत करीब 92 प्रतिशत उत्पाद शामिल हैं जिनके आयात शुल्क में भारत को कटौती करनी पड़ेगी।
एक दूसरी बड़ी चिंता है- चीन, जो इस मेगा व्यापार समझौते एक प्रमुख सदस्य है। बिना किसी मुक्त व्यापार समझौते के ही चीन के साथ भारत का व्यापार घाटा वर्ष 2017-18 में 63 बिलियन डॉलर पहुंच चुका है जो 10 वर्ष पहले 2007-08 में केवल 17 बिलियन डॉलर था। भारत के बाजार पहले से ही चीनी उत्पादों से भरे पड़े हैं। इसका प्रभाव विशेष रूप से खिलौना उद्योग, ताला उद्योग, कपड़ा मशीनरी क्षेत्र, साइकिल निर्माण, डीजल इंजन पंपसेट तथा अन्य उद्योगों के ऊपर साफ देखा जा सका है।
एसोचैम (एसोसिएटेड चैंबर्स ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्रीज) ने भारतीय खिलौना उद्योग के ऊपर वर्ष 2013 में एक अध्ययन किया जिससे पता चलता है कि भारत के बाजार चीन से आयातित खिलौनों से भरे हुए हैं। इससे भारतीय खिलौना निर्माता पूरी तरह से तबाह हो गए हैं। इसी प्रकार टैक्सटाइल मशीनरी मैन्युफैक्चरर्स एसोसिएशन ने चीन से आयात होने वाले सस्ती कपड़ा मशीनों का विरोध किया क्योंकि वे 30 से 50 प्रतिशत तक सस्ते थे। भारत की साइकिल उद्योग भी चीन के आयात से गंभीर रूप से प्रभावित हुआ है।
यूनाइटेड साइसिकल एंड पार्ट्स मैन्युफैक्चरर्स के अनुसार 5-6 साल पहले ( करीब 2008-09 में, लुधियाना से होने वाले कुल निर्यात की मात्रा अब करीब 1500 करोड़ रुपए थी। वर्ष 2013-14 में यह बदलकर उलटा हो गया। निर्यात के बदले अब करीब 1500-2000 करोड़ रुपए का आयात हो रहा है। आर0सी0ई0पी0 के तहत सीमा शुल्क में कटौती या कमी का भारतीय विनिर्माण क्षेत्र के ऊपर अभूतपूर्व प्रभाव पड़ेगा। इसके साथ-साथ आर0सी0ई0पी0 के आने से पूरी संभावना है कि खाद्य निर्यात पर लगा प्रतिबंध (विशेष रूप से गेहूं और चावल के ऊपर) हटाना पडेगा, जो भारत की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण रहा है।
आर0सी0ई0पी0 से जुड़ी एक और प्रमुख समस्या यह है कि सदस्य देश विशेष रूप से जापान और दक्षिण कोरिया ट्रिप्स-प्लस की मांग कर रहे हैं जिसका संबंध बीज, दवाईयों और कृषि रसायनों के ऊपर बोद्धिक संपदा सुरक्षा से है। यह भारतीय किसानों के लिए खतरनाक होगा। भारत इस वक्त यू0पी0ओ0वी0 (यूनियन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ न्यू प्लांट वेराइटीज कन्वेंशन) का सदस्य नहीं है। पर इससे भारत के ऊपर यू0पी0ओ0वी0 में सम्मिलित होने का दबाव बढ़ जाएगा और हमें यू0पी0ओ0वी0-1991 के मानको का अनुपालन करना पड़ेगा।
ये भी पढ़ें-अपने बाघों की तरह अपनी मिट्टी की रक्षा करे भारत, तब बनेगी बात
यू0पी0ओ0पी0 बीज पेटेंट की एक व्यवस्था है जो किसानों की बीज और पौध सामग्री के संरक्षण और आदान-प्रदान के अधिकार को खत्म करता है। इससे सीधे-सीधे बीज संप्रभुता पर चोट पहूंचती है। यह कॉरपोरेट-ब्रीडर को प्राथमिकता देता है। शोध कार्य के लिए शोधकर्ताओं एवं दूसरे ब्रिडरों की आजारी को प्रतिबंधित करता है। ट्रिप्स-प्लस के प्रावधान भी बीज, कीटनाशक, खाद और पशु टीका के ऊपर एकाधिकार स्थापित करते हैं और मालिकाना-कृषि तकनीकों को बढ़ावा देते हैं। ट्रिप्स-प्लस के प्रावधान बड़े कॉरपोरेट घरानों को एकाधिकार तो प्रदान करते हैं, पर वे किसानों और स्थानीय समुदायों के मौजूदा पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखते।
स्वास्थय क्षेत्र में ट्रिप्स-प्लस प्रावधानों का मतलब है-डेटा विशिष्टता को स्वीकार करना, पेटेंट की शतों का विस्तार और उसके साथ-साथ इनका सख्त क्रियान्वयन जिससे पूरा जेनेरिक (सामान्य) दवा क्षेत्र कमजोर पड़ जाएगा। ऐसे में केवल भारत में ही नहीं बल्कि पूरे विकासशील विश्व में जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता खत्म हो जाएगी। इससे दवाओ के ऊपर अनिवार्य लाईसेंस जारी करने का भारत सरकार का अधिकार भी सीमित हो जाएगा और हमें पेटेंट एक्ट से मिलने वाली स्वास्थय सुरक्षा उपायों से हाथ धोना पडे़गा।
दुग्ध उद्योग के ऊपर पड़ने वाला प्रभाव भी भारत के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय है। आर0सी0ई0पी0 सदस्य देशों में से ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड का दुग्ध उत्पादन में रूचि है। अगर भारत सरकार दुग्ध उत्पादों के ऊपर सीमा शुल्क में कटौती करती है तो भारतीय दुग्ध उद्योग के ऊपर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा। भारत के 15 करोड़ छोटे डेयरी किसान, स्थानीय सहकारी समितियां और छोटे विक्रेताओं के मजबूत नेटवर्क ने भारत को विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक बना दिया है। हमारा देश इस मामले में पूरी तरह से आत्मनिर्भर है। जिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने पूरे विश्व की डेयरी उद्योग के ऊपर कब्जा कर रखा है वे अब भारत में भी अपने पैर जमा पाने में कामयाब हो चुके हैं।
अभी तक डेयरी उत्पादों के एक मामूली हिस्से को ही भारत में आयात या बाहर निर्यात किया जाता है, परन्तु अब कई नई व्यापार समझौता वार्ताएं चल रही हैं जो भारतीय डेयरी का स्वरूप पूरी तरह से बदल देंगी। इन वार्ताओं में कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं जो अपने फायदे के लिए छोटे डेयरी उत्पादकों को खत्म कर देना चाहती हैं। इन व्यापार वाताओं में प्रमुख हैं- क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) या फिर यूरोपीय संघ के साथ प्रस्तावित समझौते जो अभी लंबित हैं। मौजूदा व्यापार वार्ताओं में डेयरी किसान, विक्रेताओं और उपभोक्ता किस प्रकार दांव पर लगे हुए हैं। दुग्ध उत्पाद जैसे तरल दूध, मिल्क पाउडर, मक्खन, पनीर इत्यादि का न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया महत्वपूर्ण निर्यातक देश है।
भारत के 15 करोड़ दुग्ध किसानों की तुलना में न्यूजीलैंड में केवल 12000 और ऑस्ट्रेलिया में केवल 6300 किसान हैं। भारत विश्व का सबसे बड़ा दुग्ध उत्पादक देश है, जहां 156 मिलियन मेट्रिक टन दूध का रोजाना उत्पादन होता जो घरेलू स्तर पर ही खपत भी हो जाता है। भारत से दूध या दुग्ध उत्पादन का निर्यात न के बराबर होता है। दूसरी तरफ न्यूजीलैंड 22 मिलियन मेट्रिक टन का उत्पादन करता है और 4 मिलियन मेट्रिक टन का निर्यात करता है। यही वजह है कि दुग्ध कॉरपोरेट जैसे फोनटेरा (न्यूजीलैंड) और सापूतों (ऑस्ट्रलिया) की नजर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) के ऊपर है जिससे उन्हें भारत के विशाल दुग्ध बाजार में प्रवेश मिल जाएगा। अमूल जैसे भारत के दुग्ध सहकारी संस्थान को डर है कि अगर दूध या दुग्ध उत्पादों के ऊपर से आयात शुल्क हटा दिया गया,तो उससे न सिर्फ भारत का दुग्ध उद्योग और सहकारी संस्थान प्रभावित होंगे बल्कि इसका सीधा असर देश के 15 करोड़ दूध किसानों की आजीविका के ऊपर पड़ेगा।
ये भी पढ़ें- देविंदर शर्मा- 1700 रुपए महीने में एक गाय नहीं पलती, किसान परिवार उसमें गुजारा कैसे करता होगा?
इसके कोई शक नहीं है कि 16 देशों में व्यापार को प्रोत्साहित करने के नाम पर क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) खाद्य एवं कृषि क्षेत्र के साथ-साथ भारत जैसे देशों के फायदेमंद बाजार को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में सौंप देगा। और तो और उनके अधिकारों और निवेश को सुरक्षित रखने के लिए, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) में निवेशक-सरकार विवाद निपटान (आई0एस0डी0एस0) का भी प्रावधान है, जहां निवेशक कंपनियां सरकारों के खिलॉ मुकदमा चला सकी हैं। अगर कोई सदस्य देश क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) के तहत किए गए प्रतिबद्धताओं का पालन नहीं करता है तो कोई विदेशी कंपनी उससे होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए उस सरकार के ऊपर मुकदमा चला सकती है। यह प्रावधान राष्ट्रीय सरकार की संप्रभुता और नीति-निर्धारण क्षमता के ऊपर सीधा आधात है। इसके जरिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों में बेबुनियाद और निरंकुश शक्ति सौंपी जा रही है। भारत के ऊपर पहले से ही करीब 20 ऐसे मुकदमे चल रहे हैं, जहां निवेशकों ने भारत सरकार के ऊपर बाइलेटेरल इन्वेस्टमेंट ट्रीटीज (बिट) के तहत मुकदमा चला रखा है।
यह अनुमान लगाया जा रहा है कि अगले वर्ष की शुरूआत तक क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक साझेदारी (आर0सी0ई0पी0) के समझौतों को पूरा कर लिया जाएगा। इसीलिए यह अप्रत्याशित रूप से महत्वपूर्ण है कि इस मेगा समझौते से होने वाले खतरनाक परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक किया जाए। सरकार द्वारा इस तरह के सभी व्यापार समझौतों का विस्तरित मूल्यांकन कर उसकी रिपोर्ट को सार्वजनिक जांच के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इस तरह के समझौतों के प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना चाहिए और इससे जुड़े दस्तावेजों को किसान संगठन, मजदूर संगठन, सामाजिक संगठन और छोटे व मध्यम उद्योगों के प्रतिनिधियों के साथ व्यापक जन परामर्श आयोजित किए जाने चाहिए।
(लेखक कृषक समृद्धि आयोग के सदस्य हैं, यह उनके निजी विचार हैं)