खुदरा व्यापार में विदेशी निवेश कब चमत्कार दिखाएगा

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भारतीय निवेशकों को जो आर्थिक आजादी पिछले 60 साल में नहीं मिली वह आजादी विदेशी निवेशकों को बड़े धूमधाम से दी है। पूंजी की तलाश हो तो लाखों करोड़ रुपया तथाकथित भ्रष्टाचारियों की तिजोरियों में बन्द है और लाखों करोड़ विदेशी बैंको में विदेशी मुद्रा में विद्यमान है। भारतीयों के पास धन की कमी नहीं है चाहे उसे काला कहें या सफेद। उस धन को गतिमान करने की आवश्यकता है जो देश या विदेश में सुप्तावस्था में पड़ा है। यदि यह काला धन हमारे देश के गाँवों मे रहने वाली 70 प्रतिशत गरीब और पिछड़ी आबादी के काम आ सके तो इसे भी एक अवसर देना चाहिए। 

यदि सरकार कह दे कि आप सुदूर ग्रामीण इलाकों में विश्वविद्यालय खोलिए, अस्पताल खोलिए, उद्योग लगाइए, स्कूल खोलिए, गाँव वालों को रोजगार दीजिए, हम आप से नहीं पूछेंगे पैसा कहां से लाए, तो शायद गाँवों में पूंजी निवेश हो सके। ध्यान रहे विदेशी निवेशकों से भी हम नहीं पूछते कि पैसा कहां से लाए हो। एक बार निवेश हो जाने के बाद लाभ-हानि, उत्पादन और बिक्री पर देश के सभी कानून लागू हों।

विदेशी निवेश से होने वाले सम्भावित लाभों पर विचार करते समय हमें कल्पना जगत में न रहकर दूसरों के अनुभव से सीखना चाहिए। पाकिस्तान में 1980-2006 के बीच विदेशी निवेश के प्रभाव का अध्ययन एटाक कैम्पस, पाकिस्तान के कास्मैट्स इन्स्टीट्यूट के श्री नुजाहत फल्की ने किया था और 2009 में एक शोधपत्र प्रकाशित किया था जो इन्टरनेट पर उपलब्ध है। 

उन्होंने पाया था कि विदेशी निवेश ने इस अवधि में पाकिस्तान के आर्थिक विकास में कोई खास योगदान नहीं दिया है। दूसरे अध्ययनों से पाया गया कि नौकरियों में भी कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है। यही हाल श्रीलंका का रहा है। यदि कहीं भी कुछ लाभ हुआ है तो वह ‘टेक्नालोजी ट्रान्स्फर ‘अर्थात तकनीक की उपलब्धता के कारण हुआ है, पूंजी की उपलब्धता के कारण नहीं। 

 यदि मुक्त व्यापार से आर्थिक प्रगति होती है तो हमें पहले स्वदेशी व्यापार को सब प्रकार के बन्धनों से मुक्त करना चाहिए। केवल जिलों की सरहद पर से चुंगी नाका हटाने से काम नहीं चलेगा, प्रान्तों की सरहद की बन्दिशें भी हटनी चाहिए। जो स्वदेशी व्यापार पिछले 60 साल से परमिट-कोटा की बेिड़यों में जकड़ा था वह विदेशी व्यापारियों के साथ प्रतिस्पर्धा कैसे कर सकेगा?  व्यापारिक गतिविधियों में अनुशासन और सरकारी नियंत्रण का विदेशी कम्पनियां क्या भारतीय नियमों का पालन भारतीय कम्पनियों की भांति ही करेंगी, कहना कठिन है।

विदेशी कम्पनियां भारत में सामान बनाने की हमेशा से इच्छुक रही हैं क्योंकि कच्चा माल उपलब्ध है और कर्मचारी सस्ते मिल जाते हैं। बने सामान की लागत कम रहती हैं। 

पहले की सरकारों का आग्रह रहता था कि देश में बनाओ, देश में बेचो। यहीं पर बात रुक जाती थी। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह छूट दे दी है कि भारत में बनाओ चाहे जहां बेचो। यह विदेशी कम्पनियों को अनुकूल लग रहा है। विदेशी कम्पनियां विज्ञापनों की चकाचौंध में भारतीय कम्पनियों के पीछे दौड़ रही हैं। सरकारी तंत्र को क्या कहें जो जांच परख बगैर लाइसेंस देता है, माल बिक्री की अनुमति देता है । 

ध्यान रहे जब ऑस्ट्रेलिया ने मैगी की बड़ी खेप वापस की तो यह भारत से गई थी। इससे पहले बिजली बनाने के क्षेत्र में एनरॉन कम्पनी ने अपने साथ ही भारत की फजीहत कराई थी। ये सब मेक इन इंडिया में पंक्चर करते हैं। वैसे भारत का खुद का बहुत बड़ा बाजार है जिसकी जरूरत सभी देशी विदेशी कम्पनियों को है लेकिन एनरॉन, नेस्ले और मदर डेयरी का डिटरजेन्ट याद करें तो लगता है मेक इन इंडिया बिना लगाम का घोड़ा बनेगा। 

कहा जा रहा है कि मेक इन इंडिया से लाखों नौजवानों को रोजगार मिलेगा लेकिन विदेशी कम्पनियां तो ऑटोमेशन यानी मशीनों द्वारा उत्पादन करेंगी। विदेशी कम्पनियों के कॉम्पिटीशन में हमारी भारतीय कम्पनियां घाटे में रहेंगी और उनके द्वारा बनाए गए सामान की गुणवत्ता पर हमारा नियंत्रण नहीं रहेगा। हमारी अदालतें भोपाल गैस वाले अमेरिकी व्यापारी वारेन ऐन्डरसन को दंडित नहीं कर सकीं। उन पर अब नियंत्रण कैसे लग पाएगा। 

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