डॉ. मुक्ति साधन बसु
भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहां कृषि राज्यों का विषय है। इसलिए कृषि पर एक समग्र नीति बनाने के लिए केंद्र और राज्यों के बीच संतुलित और नपे-तुले नजरिए की जरुरत है। इसके लिए कुछ सुझाव हैं :
1. नीति आयोग के स्तर पर :
- जब भी कोई फसल बर्बाद होती है और उससे जुड़े कृषि उत्पादों की कीमत आसमान छूने लगती हैं तो इसका दोष अक्सर केंद्र को दिया जाता है, यहां उल्लेखनीय है कि कृषि राज्य सूची का विषय है। इस मामले में व्यावहारिक कदम यह होगा कि एक एनुअल बैलेंस्ड क्रॉप प्लान (एबीसीपी) बनाया जाए। इसके तहत देश की जरुरतों के हिसाब से राज्यों को फसल दर फसल उत्पादन के निश्चित लक्ष्य दिया जाएं। नीति आयोग राज्यों के लिए यह निर्धारण करे साथ ही उन्हें जरुरी बजटीय सहायता भी दी जाए जिसकी निगरानी भी होती रहे।
- किसी भी स्थिति में, किसी राज्य में फसल उत्पाद कार्यक्रम सहूलियत पर आधारित न हों, जिसे महज आत्मसंतुष्टि के लिए चलाया रहा हो। बल्कि ये व्यापक लक्ष्योन्मुखी और स्थानीय कृषि उत्पाद जरुरतों की पूर्ति करने वाले होने चाहिए। नीति आयोग को राज्य के कृषि विभागों को प्रोत्साहित करना चाहिए कि वे अपने यहां सिंचित क्षेत्रों में दलहन और तिलहन की फसलों की बुवाई इस तरह तय करें कि उनके यहां इन चीजों की कमी की पूर्ति हो सके। इसके लिए राज्यों को अतिरिक्त मदद दी जा सकती है। केंद्र सरकार को ऐसे राज्यों की मदद करने के लिए भी आगे आना चाहिए जहां जलवायु किसी खास फसल के अनुकूल नहीं है।
2. आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के स्तर पर
- देश के 101 रिसर्च इंस्टीट्यूट व आईसीएआर के 80 अखिल भारतीय समन्वित कार्यक्रमों (एआईसीआरपी) की निरंतरता, उनके लक्ष्यों के पुननिर्धारण और लक्ष्यों के एकीकरण करने के लिए गंभीर आत्मचिंतन की जरुरत है। आईसीएआर देश में कृषि शोध एवं शिक्षा की शीर्ष संस्था है, 1929 में स्थापित इस संस्था की संरचना में अभी तक कोई आमूल-चूल बदलाव नहीं हुआ है। हालांकि, एक दशक पहले डॉ. आर ए माशेलकर समिति ने आईसीएआर की पुर्नसंरचना का सुझाव दिया था लेकिन अभी तक इस दिशा में कोई काम नहीं हुआ है। इसके प्रमुख सुझाव आज भी प्रासंगिक साबित हो सकते हैं। विडंबना यह है कि देश में 73 राज्य कृषि विश्वविद्यालय और आधा दर्जन केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय हं जिनकी स्थापना लगभग समान उद्देश्यों के लिए हुई है, परिणामस्वरुप यहां शोधकार्यों में दोहराव की गंभीर समस्या है। इनमें संसाधनों की बहुत कमी है जोकि अति आधुनिक शोधकार्यों के लिए बहुत आवश्यक हैं। ये शोध होंगे तभी इस क्षेत्र में लगाई जाने वाली पूंजी पर अच्छा लाभ मिलेगा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हम प्रतियोगिता में बने रहेंगे।
- इसकी शुरुआत ऐसे कर सकते हैं कि आईसीएआर मौजूदा अलग-अलग फसलों पर आधारित शोध संस्थानों को जोड़कर एक फसल समूह आधारित राष्ट्रीय संस्थान बनाए। जैसे सभी दालों, सभी तिलहनों, सभी अनाजों, सभी मसालों, सभी रेशे वाली फसलों, सभी फलों व सब्जियों, सभी मछली पालन कार्यक्रमों को शामिल किया जाए । इनमें उनके तकनीकी पक्ष हों, साथ ही पशुपालन विज्ञान, डेयरी तकनीक, समेत सभी पोल्ट्री और पक्षी शोध संस्थान एकसाथ हों।
- प्रमुख फसलों और सब्जियों के क्षेत्र में देश की अग्रणी निजी बीज कंपनियों के साथ सहअस्तित्व और साझेदारी पर आधारित व्यवस्था विकसित की जाए। इसमें स्मार्ट हाइब्रिड प्रजाति (पहले गैर जीएम फसलों पर काम किया जाए) विकसित करने के लिए जरुरी ज्ञान, जर्मप्लाज्म और दूसरी आवश्यक बातों को साझा किया जाए। इसमें पानी और पोषक तत्वों को निपुणता से प्रयोग करने को बढ़ावा देने वाले रिसर्चों पर ध्यान केंद्रित किया जाए ताकि वर्षा आधारित कृषि को सहारा दिया जा सके।
- इस समय ब्रीडर और फाउंडेशन बीजों की बहुत कमी है। ये बीज हाल ही में जारी उन नई किस्मों के हैं जिनके अंदर विकास मौसमी बदलाव का मुकाबला करने और जैविक/अजैविक कारकों के दबाव झेलने की नैसर्गिक क्षमता है। ऐसी किस्मों को जारी करते समय यह अनिवार्य कर देना चाहिए कि संबंधित संस्थान/राज्य कृषि विश्वविद्यालय बीज का उत्पादन पर्याप्त मात्रा में करें। इसके लिए वे राष्ट्रीय बीज कार्यक्रम के तहत पहले से मुहैया सुविधाओं का इस्तेमाल करें साथ ही कृषि विज्ञान केंद्र और स्थानीय संस्थानों को भी अपने साथ में लें। फाउंडेशन सीड के उत्पादन के दौरान प्रामाणिक बीज उत्पादन और आपूर्ति के लिए कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय उन्हें नेशनल लेवल एजेंसियों के लिए आवंटित कर सकते हैं।
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3. कृषि एवं सहकारिता विभाग, कृषि मंत्रालय और भारत सरकार के स्तर पर:
- नेशनल मिशन ऑन ऑयल सीड्स एंड ऑयल पाम, मिशन फॉर इंटीग्रेटिड डेवेलपमेंट ऑफ हॉर्टिकल्चर, नेशनल फूड सिक्युरिटी मिशन जैसी योजनाओं को रोक देना चाहिए। ये योजनाएं रूटीन स्तर पर पिछले कई दशकों से चली आ रही हैं, बस उनके नाम बदल जाते हैं लेकिन ये जमीनी स्तर पर अपना प्रभाव जताने में नाकाम रही हैं। इन पर खर्च किया जाने वाला पैसा दूसरी जरुरी जगहों, जैसे नई प्रजातियों के बीज उत्पादन और उन्हें एनुअल बैलेंस्ड क्रॉप प्लान के साथ जोड़ने में इस्तेमाल किया जा सकता है।
- स्टेट फॉर्म कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया और नेशनल सीड कॉरपोरेशन के विलय की स्थिति में कृषि एवं सहकारिता विभाग के वित्तीय सहयोग से नई प्रजातियों का टेस्ट स्टॉक सीड मल्टीप्लिकेशन नहीं बनाना चाहिए। यह पैसा इस्तेमाल आईसीएआर और राज्य कृषि विवि के संबंधित कृषि उत्पाद संस्थानों को दिया जाना चाहिए ताकि मिनी किट और फ्रंट लाइन डिमॉन्सट्रेशन के लिए पर्याप्त मात्रा में बीज तैयार हो सकें। इससे पिछले 5 बरसों में जारी नई फसल किस्मों को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। नतीजतन किसानों को खराब मौसम में भी अधिक उपज मिलेगी।
- नेशनल सीड कॉरपोरेशन को खुले बाजार से बीज खरीदना बंद कर देना चाहिए। भारतीय कृषि की बर्बादी में इसका सबसे बड़ा योगदान है। बीज उत्पादन और सप्लाई में लगी राष्ट्रीय स्तर की दूसरी एजेंसीज को भी इसी तरह रोक देना चाहिए।
- कृषि व सहकारिता विभाग और कृषि मंत्रालय के समर्थन वाली मौजूदा बीज प्रमाणन प्रणाली भी भारतीय कृषि के लिए हानिकारक है।
- फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया को आधुनिक भंडारण क्षमता से लैस किया जाना चाहिए ताकि खाद्यान्नों की बर्बादी और गुणवत्ता में गिरावट को रोका जा सके।
- छोटे किसानों को एक साथ लाकर हमें कॉरपोरेट खेती की ओर बढ़ना चाहिए। इसमें कृषि क्षेत्रों में काम करने वाले बड़े घरानों जैसे रिलायंस, गोदरेज और टाटा को शामिल करना होगा।
- राज्य स्तरीय कृषि उद्योग निगमों को नए डिजाइनों वाले, उपयोग में आसान, आधुनिक कृषि औजार और उपकरण बनाने में मदद मिलनी चाहिए। इसके लिए स्थनीय निर्माताओं को शामिल किया जाना चाहिए और ये उपकरण किसानों को सप्लाई किए जाने चाहिए।
- वॉटर शेड का निर्माण एक मिशन के तौर पर करना चाहिए, खासकर बारिश की कमी वाले इलाकों में ताकि खुले कुओं और जलवाहकों में फिर से पानी का स्तर बढ़े।
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4. कृषि एवं वाणिज्य मंत्रालय के संयुक्त स्तर पर:
- सरकार को निजी कंपनियों द्वारा अपने मुनाफे के लिए जरुरी कृषि उत्पादों के आयात करने के कदमों को हतोत्साहित करने के लिए आयात शुल्क बढ़ाना चाहिए, खासकर दालोंऔर तिलहन के क्षेत्र में। भारतीय कृषि उत्पादों की बेहतर कीमत तय होनी चाहिए, यह किसानों के हित में भी है। कृषि उत्पादों की खरीद सुनिश्चित करने, उन्हें विशेष रियायत देने से किसानों का भरोसा बढ़ेगा और तिलहन व दलहन सेक्टर को आत्मनिर्भर बनने में मदद मिलेगी।
- कृषि विभाग द्वारा जैविक कृषि पर खर्चा करने का तब तक कोई फायदा नहीं है जब तक पूरा इलाका सी-4 में न बदल दिया जाए, और जिसका प्रमाण एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्रडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवेलपमेंट अथॉरिटी न दे दे।
5. खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों और भारत सरकार के स्तर पर:
- हर साल प्रमुख फसलों की कटाई के दौरान और उसके बाद 92,600 करोड़ रूपये के खाद्य उत्पाद बर्बाद हो जाते । इसी तरह फल और सब्जियों का नुकसान 40,8000 करोड़ रुपये का है। इसे रोकने के लिए प्रभावी भंडारण तंत्र विकसित करने की जरुत है।
- प्री-कंडीशनिंग, प्री-कूलिंग, फलों-सब्जियों के पकाने, पैक करने और लेबलिंग की सुविधा भी उपलब्ध करानी होगी।
- जल्द खराब होने वाले फल-सब्जियों के भंडारण के लिए कोल्ड चेन और तेज ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम बनाने की जरुरत है। देश के कई हिस्सों में अलग-अलग फसल के हिसाब से सबसे लिए सुलभ कोल्ड स्टोर बनाने की जरूरत हो।
- वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के संस्थान जैसे सेंट्रल फूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूट्रिशन पारंपरिक पौष्टिक अनाज जैसे कोदों, किनुआ, मकई वगैरह से पौष्टिक खाद्य पदार्थ बनाने के लिए आगे आएं। वे व्यावसायिक तरीकों का इस्तेमाल करके इनसे ऐसे कम महंगे उत्पादों का निर्माण करें, जो समाज के कुपोषित वर्ग को पोषण मुहैया करा पाएं। हालांकि मौजूदा समय में स्वास्थ्य के प्रति जागरुक लोगों में ऐसी चीजों की मांग है इसलिए यह कदम मुनाफा ही देगा। मध्यम और उच्च आयवर्ग को ये पौष्टिक उत्पाद महंगे और कम आय वर्ग को कम दाम में उपलब्ध कराए जा सकते हैं।
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6. भूमिहीन आदिवासी किसानों के लिए स्पेशल पैकेज:
भूमिहीन आदिवासी किसानों को सहजन, सैगो पाम, जिमीकंद, शकरकंद के बीज/कंद दिए जाएं जो वे अपने घर के आसपास उगा सकें। इसके अलावा उन्हें बकरी/भेड़ की जोड़ी, आधा दर्जन मुर्गियां और मधुमक्खी पालन की जरुरी चीजें दी जाएं। आदिवासियों को स्थानीय जंगलों से वन्य उत्पादों का प्रसंस्करण सिखाने के लिए योजनाएं चलानी चाहिए।
खाद्य उत्पादों में मिलावट के क्षेत्र में :
जमाखोरों दालों और दूसरी जरुरी चीजों की जमाखोरी करके इन चीजों को कृत्रिम तौर पर महंगा कर देते हैं जिससे ये आम जनता की पहुंच से बाहर हो जाती हैं। इसके अलावा देश की बहुत बड़ी आबादी मिलावटी खाद्य पदार्थों, मसालों, पेय पदार्थों, सिंथेटिक दूध और दुग्ध उत्पादों की वजह से बीमारी का शिकार होती रहती है। सख्त कानून लाकर इन घटनाओं को रोका जाना चाहिए।
कहने की जरुरत नहीं है, ग्रामीण भारत की जरुरतों को पूरा करने, लाखों कुपोषितों और छोटे किसानों की रक्षा, गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले भूमिहीन, निम्न मध्यवर्ग की जनता को असमय मौत के मुंह में जाने से बचाने के लिए आने वाली हर सरकार को व्यावहारिक नजरिया अपनाना होगा।
मैं लाखों देशवासियों की ओर से निवेदन करता हूं कि कृषि क्षेत्र में इन सुधारों को तुरंत लागू किया जाए। मैं जानता हूं कि माननीय प्रधानमंत्री में ऐसा करने की इच्छा, दृढ़ विश्वास और जरुरी साहस है।
(लेखक आईसीएआर (गुजरात) के निदेशक रह चुके हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)
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