लखनऊ। हाल में गोरक्षण और संवर्धन का मुद्दा तमाम मीडिया बहसों का सबब बना, लेकिन ज्यादातर बहसें निर्गुण निराकार रूप में रहीं। कानून की शक्ल में संसद में बहस भले ही हो जाए लेकिन इतने भर से काम चलने वाला नहीं। कानून बना कर व्यवस्था के सुधारों को भले ही ये बात अटपटी लगे लेकिन जमीन पर कहीं सगुण साकार रूप में गोसेवा तो हार्ट, हेड और हुनर यानि हाथों से हो सकेगी। गोरक्षा की पैरोकारी में लगे लोग इस दिशा में सोच तो रहे हैं। विषमुक्त खेती, जीरो बजट खेती, जैविक खेती, इत्यादि प्रयोगों में गोसेवा और संवर्धन की सम्भावना भी खूब है। उन दीवानों के लिए ये सब खुशनुमाई सबब बन सकता है। ग्लोबलाइजेशन वाले वर्तमान परिवेश में भारतीय संस्कृति में गाय, गाँव, गँगा वालों के लिए उम्मीदें भी।
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गोचर भूमि बनाम डेरी फार्म
गोचर भूमि के लिए जो चारागाह नियत हुए अमूमन उनके नजदीक ही जलाशय भी होते हैं। इसके बगैर प्राकृतिक रूप से स्थायी चारागाह नहीं बनते। गोचर भूमि में औसतन पच्चीस वनस्पतियाँ होती हैं जो औषधीय रूप में गाय का स्वास्थ्य ठीक करने में मददगार होती हैं। वन मिश्रित गोचर भूमि के पशुओं का दूध उच्च गुणवत्ता वाला और प्राकृतिक पोषक तत्वों से भरपूर होता है। गोचर भूमि में चारे की उपलब्धता साल न हो सके तो ऐसे में भूसे खली के चारे का उपयोग किया जा सकता है। शहरों के इर्द-गिर्द औद्योगिक डेरी फार्मों में प्राकृतिक रूप से चारे और पोषक वनस्पतियों के ना होने से पशु का स्वस्थ्य और दूध की गुणवत्ता दोनों पर असर पड़ता है। आज़ादी का मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी बहुत महत्वपूर्ण है|
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नकुल संहिता है गो संवर्धन की बाइबिल
गोपालन गो संवर्धन के लिए वर्णित वैदिक विधियों का संकलन है नकुल संहिता। विद्वान बताते हैं कि संस्कृत में इस ग्रन्थ की मूल प्रति जर्मनी में उपलब्ध है। भारत में इसका अंग्रेजी अनुवाद ही उपलब्ध हो पाया है। उसी से काम चलाया जा रहा है। इस शास्त्र और विधा में जर्मनी ने महारथ हासिल की है। गोपालन की पद्धतियों पर जबरदस्त अनुसन्धान करके जर्मनी ने दुधारू हों अथवा अदुग्ध सभी गो वंश को पोषण संरक्षण सुनिश्चित किया है। इसका सबसे नायाब नज़ारा जर्मनी के गोबर आधारित उर्जा की तकनीक और उसके इर्द गिर्द तमाम उद्योगों से मिलता है। जर्मनी के नेतृत्व में यूरोपियन यूनियन ने पर्यावरण सुरक्षा के लिए सभी देशों की उर्जा आवश्यकताओं के पच्चीस प्रतिशत हिस्से को जैविक उर्जा से पूरा करने का लक्ष्य तय किया है। जो मूलतः के लिए गाय और गोबर की तकनीकों पर अमल करके हासिल की जाएगी।
गाय होती है खुद की डॉक्टर
भारतीय गाय को सबसे ज्यादा समझदार प्राणी माना गया है। लम्बे समय तक गाय और गाँव के अध्ययन और प्रयोगों से जुड़ी रहीं वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. लीना गुप्ता बताती हैं कि सगर्भा गायें यानि वो गायें जो गाभिन हों वे कच्चे गोखुरू समेत लगभग सत्तर वनस्पतियों को पहचान कर खाती हैं। वनस्पतियों की पहचान प्रकृति प्रदत्त गुण है या अनुवांशिक यह अनुसन्धान का विषय हो सकता है। अपने लिए औषधियां चुनने के साथ-ही साथ रोज लगभग ग्यारह किलोमीटर की वाक यानि चहलकदमी भी करती हैं गोमाता। अगर आजाद तरीके से जिंदगी हासिल हो तो अपने जीवन और स्वस्थ्य का ख्याल तो खुद रखेंगी ही साथ ही साथ इन्सान के लिए भी तमाम तरीके से लाभप्रद होंगी।
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जाहिर है कि पशु-चिकित्सालयों और जैव-प्रोद्योगिकी के तौर तरीकों में बेहतरी की जरुरत है| गर्भाधान केंद्र और पशु चिकित्सालयों के खँडहर हो जाने से बयां होता है कि लोगों की प्राथमिकताओं से पशु-पालन गायब हो चुका|
वैदिक खाद से सोना उगल रहीं जमीनें
वैदिक खाद से न्यूनतम उर्वरा भूमि को भी उत्पादक बनाने के उत्साहजनक नतीजे हासिल हुए हैं। इस खाद से वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. हेमंत ज्ञानी के नेतृत्व में जामनगर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पठारी जमीन भी तेईस दिनों में उपजाऊ बनाई है। डॉ. लीना गुप्ता बताती हैं कि नकुल संहिता में वर्णित पद्धतियों के अनुसार गोबर और गोमूत्र से वैदिक खाद एक हफ्ते में बनायीं जा सकती है। इसके लिए गोबर, गोमूत्र सड़े हुए फल- सब्जी इत्यादि को बताई गयी विधियों से मिलाकर बनाना होता है| परती भूमि सुधार के लिए वैदिक खाद क्रांतिकारी परिणाम लाने वाली लाभप्रद उत्पाद है|
गो-वन वाटिका, औषधियां, संभावनाएं और अवसर
गुजरात के मेहसाणा जिले के एक गाँव लाख बावल की छोगाला में एक गोवन वाटिका स्थापित की है। इस गोवन वाटिका में 92 प्रकार के औषधीय पौधे लगाये गए। इन औषधियों से आयुष के तहत तमाम रोगों का बेहतर उपचार सस्ते में ही हो जाता है।
लीना गुप्ता बताती हैं कि लाख बवाल में वन मिश्रित गौचर भूमि के प्रयोगों ने तमाम उत्साहजनक संभावनाओं और अवसरों को उजागर किया है। इनमे गो-वन वाटिका के सारांश के तौर पर गायों द्वारा घास के साथ खायी जाने वाली औषधीय वनस्पतियाँ की सत्तर प्रजातियाँ, पशु चिकित्सा में उपयोगी वनस्पतियों की 119 प्रजातियाँ, जानवरों का दूध बढ़ाने वाली 28 प्रजाति की वनस्पतियाँ, साँप-बिच्छू काटने के इलाज के तौर पर 27 वनस्पतियाँ, बछड़े के उपचार के लिए 72 प्रजातियां प्रमुख रूप से हासिल हुई हैं। इस प्रकार के प्रयोग से गाँव की आर्थिक स्थिति और संतुलन ठीक हुआ है, लोगों को हौसला मिला है। स्थानीय लोगों के तिनका-तिनका पाई-पाई के योगदान को सहेज कर जिस प्रकार से गाय और गाँव के सम्बन्ध को संवारा है वह काबिल-ए-तारीफ है। बच्चों को सिखाने-समझाने के लिए चरागाहों की सैर करने और वहां की कृति-प्रकृति और वनस्पतियों के और पढ़ने-पढ़ाने से जोड़कर सृष्टि बोध का जो तरीका निकला वो नायाब है।
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भूस्वामियों और भूमिहीनों के सम्बन्ध में भूदान से भी कोई खास फर्क नहीं पड़ा। लेकिन स्थानीय वनस्पतियों की पैदावार उनके व्यंजन परोस कर जुबान पर चढ़ जाने में लीना जी कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्नत प्रकार के देसी बीजों के लिए बीज बैंक की कल्पना को साकार कर दिखाया है। बीज मिलेंगे बिना पैसे के लेकिन शर्त ये है कि बीज बैंक में वापसी उधार के बीजों की चार गुनी देनी होगी। गो आधारित खेती के अनुसन्धान के नतीजे उत्साहजनक हैं| लेकिन रास्ता कठिन है|
मनुष्यों और जानवरों की जरूरतों के लिए जैविक जिम्मेदारी प्रकृति लेती है तो प्रकृति के समुचित प्रबंध का जिम्मा जन्तुओं में श्रेष्ठ मनुष्यों को ही उठाना होता है। आदमी में प्रकृति, पर्यावरण पशु-पक्षियों के इस समन्वय और सहजीवी सम्बन्ध को समझने के लिए ज्ञानेन्द्रियाँ हैं तो संवेदनाएं भी हैं और कुछ तय कर पाने की काबिलियत भी। कुछ कर दिखाने की होनहारी भी है और करने की जिम्मेदारी भी। ये सब सहज समझ और दृढ़ निश्चय से हासिल है। डॉ. लीना गुप्ता ने इसे करके दिखाया है। फिर भी सगुण साकार देश और समाज के लिए जरुरी है कि जहाँ पर भी सक्रिय हैं वहीँ के “श्रेष्ठ नागरिक बनिए”।
राकेश मिश्रा, लेखक गंगा एलायंस से जुड़े हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)
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