गाँव का गरीब भूखा है क्योंकि अन्नदाता किसान खुद ही भुखमरी के कगार पर है। ऐसे हालात के लिए हमारे पूर्वजों ने कहा है ‘’वुभुक्षित: मिम् न करोति पापम् ‘’ अर्थात भूखा आदमी कौन सा पाप नहीं कर सकता है। आमतौर से जनवरी-फरवरी के महीनों में घरों में अनाज समाप्त हो जाता था और मजदूरी भी नहीं मिलती थी तब गरीब लोग चोरी के लिए निकलने को मजबूर हो जाते थे। इस बार यह हालात तब पैदा हो गए हैं जब किसानों की बक्खारी धान, मक्का, बाजरा, ज्वार से भरी रहती थी।
ऐसा नहीं कि पूरे के पूरे गाँव भूखे हैं। हर गाँव में कुछ लोग ही होंगे अभी तक जिनके खाने के लाले है। बहुत पुराने समय में भारत की परम्परा थी कि गाँव का मुखिया रात को पता लगवाता था कि गाँव में कोई भूखा तो सोने नहीं जा रहा है। जब मुखिया निश्चिंत हो जाता था, कोई भूखा नहीं सोया तब वह भोजन करता था। क्या हमारे प्रधान लोग ऐसी परम्परा पुनर्जीवित कर सकेंगे?
शहरों में चोरी, डकैती और भ्रष्टाचार भूख के कारण नहीं बल्कि लालच के कारण सामने आते हैं। ऐसे लोग पेट भरने के लिए नहीं तिजोरी भरने, गाड़ी, बंगला खरीदने, ऐशो आराम की चीजों के लिए अपराधी बनते हैं। इस दूसरे प्रकार के अपराध में मदद नहीं कठोर दंड की आवश्यकता है लेकिन गाँव के भूखों को मदद की जरूरत है। गाँव के लोगों को काम चाहिए जिससे वे व्यस्त रहें और गलत राह न पकड़ लें।
गाँववालों की जरूरतें बहुत नहीं हैं परन्तु बच्चों और परिवार को भूखा नहीं देख सकते। वे या तो फांसी लगाते हैं बिना सोचे कि उसके मरने के बाद परिवार क्या खाएगा। वे उधार ले सकते हैं परन्तु पहले से ही कर्जदार हैं, और कर्जा मिलने की समस्या होगी। वे भीख मांग सकते हैं परन्तु गाँवों में वह भी गुजारे लायक नहीं मिलेगी। अब एक ही रास्ता बचेगा यदि पलायनवादी नहीं हैं तो चोरी-डकैती का रास्ता पकड़ सकते हैं। इसकी सम्भावना कम नहीं है।
पिछले वर्षों में मनरेगा का कार्यक्रम चलता था तो साल में 100 दिन ही सही काम मिल जाता था। अब तो वह भी बन्द है, प्रधानों के चुनाव होने हैं और निवर्तमान प्रधानों के हाथ में कुछ है नहीं। मनरेगा में 150 रुपया प्रतिदिन की मजदूरी साल में 100 दिन मिलती थी, पैसा देर-सवेर मिल जाता था। लेकिन गाँवों में शराब की दुकाने खुलने के कारण काफी कुछ इन्हीं दुकानों पर चला जाता था। जरूरत थी कि 365 दिन मजदूरी मिलती चाहे दिहाड़ी घटा दी जाती। मजदूरों को पेट भरने के लिए पैसा चाहिए जो है नहीं। चोरी के अलावा उपाय नहीं बचा।
त्योहार के मौसम में एपीएल और बीपीएल सभी के लिए राशन की दुकानों से मिलने वाली सामग्री की मात्रा बढ़ाई जानी चाहिए थी लेकिन घटाई जा रही है। गाँव के गरीब किसान और मजदूर संकट में पड़ गए हैं। इतना ही नहीं पिछले साल बेमौसम बरसात के कारण तमाम अनाज खेतों में ही सड़ गया था। सरकार ने वह सब अनाज बगैर ना नुकुर के खरीद लिया और राशन की दुकानों पर पहुंचा दिया। इससे गरीबों का भला नहीं होगा।
उत्तर प्रदेश के साथ ही महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और गुजरात में भी हालात लगभग एक समान हैं। कुछ इलाकों में तो दूसरी या तीसरी बार सूखा पड़ रहा है। विदर्भ जैसे स्थानों को तो कई साल हो गए हैं सूखा झेलते। वहां की सरकारों ने इतने साल में क्या किया, शायद कुछ नहीं। मुसीबत से निपटने के लिए किसान को चाहिए खाद, पानी, बीज और थोड़ी सी पूंजी। इनमें से काफी कुछ की व्यवस्था वह कर भी लेता है।
पुराने समय में गरीबी का जातियों से रिश्ता हुआ करता था। अंग्रेजों ने कुछ जातियों को ‘क्रिमिनल कास्ट्स’ के नाम से वर्गीकृत कर रक्खा था। अब सभी जातियों में गरीब अपराधी बन गए हैं। सच कहूं तो पहले की शासक जातियां कंगाल बन रहीं हैं और पहले की पिछड़ी जातियां अब हुकूमत कर रहीं हैं। यदि कोई आंकड़े एकत्र करे तो पता चलेगा अब किन जातियों को क्रिमिनल जातियां कहा जाए। हमारी सरकार और समाज को प्रयास करके गरीबों को अपराधी बनने से रोकना होगा।
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