वैश्विक महामारी कोरोना वायरस से बचने के लिए देश में 14 अप्रैल तक तीन सप्ताह का लॉकडाउन किया गया है। इस लॉकडाउन की मार से ग्रामीण अर्थव्यवस्था भी चरमरा गई है। मंडियों के बंद होने या कम क्षमता पर काम करने के कारण किसानों को फसलों के सही दाम नहीं मिल रहे हैं। यह रबी की फ़सलों की कटाई व निकासी के साथ ही जायद की फसलों और उसके बाद खरीफ़ की फ़सलों की बुवाई का वक्त है।
गरीबों, किसानों, मज़दूरों और ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए सरकार ने कई बड़े निर्णय लिए हैं। आशा है देश हित में सरकार और निर्णय भी लेगी तथा इनका ज़मीन पर सही क्रियान्वयन भी होगा। ऐसे वक्त में किसी भी देश के लिए अपने सभी निवासियों को भोजन उपलब्ध करवाना सबसे बड़ी चिंता का विषय होता है। अतः देश की खाद्य सुरक्षा के लिए कृषि कार्यों और इससे जुड़ी सारी व्यवस्था का निर्बाध रूप से चलना अति आवश्यक है।
इसके लिए सरकार को सभी तरह के कृषि व कृषि-संबंधी कार्यों में लगे किसान-मज़दूरों को खेतों में फसलों की कटाई, निकासी, लदान आदि काम निर्बाध रूप से करना सुगम बनाना होगा। किसानों को बाज़ारों व मंडियों तक आवागमन करने, फ़सलों की ढुलाई, भंडारण और बिक्री की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलवाना होगा। कृषि यंत्रों- ट्रैक्टर, हार्वेस्टर, थ्रेशर, पंप सेट, ट्रॉली आदि की मज़दूरों सहित आवाजाही को चलने देना होगा। कृषि यंत्रों की बिक्री, रखरखाव, मरम्मत करने वाली दुकानों और कारीगरों को भी बिना रोक-टोक काम करने देना चाहिए। इस कठिन वक्त में कुछ कंपनियां किसानों को कृषि यंत्र- ट्रैक्टर आदि तीन महीनों के लिए मुफ्त में उपलब्ध करवाने के लिए तैयार हो गई हैं। ऐसी सभी कंपनियों को प्रोत्साहन देकर इनका कार्य और सुगम बनाना चाहिए।
सामान्यतः एक अप्रैल से शुरू होने वाली रबी की फसलों की खरीद को राज्य सरकारों ने दो से तीन सप्ताह विलंब से शुरू करने का निर्णय लिया है। फसलों की खरीद को सरकार अतिशीघ्र शुरू करे अन्यथा ग्रामीण क्षेत्रों में इस दौरान धन का प्रवाह अवरुद्ध हो जाएगा। विलंब के पीछे कारण यह है कि बड़े पैमाने पर सरकार की एक तो खरीद की तैयारी नहीं है, दूसरा सरकार एक साथ किसानों की भीड़ को जमा नहीं होने देना चाहती।
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पश्चिम बंगाल में जूट की बोरियां बनाने वाले कारखाने भी अभी बंद पड़े हैं, इसके कारण गेहूँ व अन्य फसलों को रखने के लिए बोरियां भी उपयुक्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं। साथ ही खरीद केंद्रों पर फसलों की सफाई, तौल और लदान करने के लिए कर्मचारियों, मज़दूरों और मालवाहनों की भी कमी है। सरकार को फ़सलों की खरीद के लिए खरीद केंद्रों, अनाज मंडियों, परिवहन और भंडारण की व्यवस्था को युद्ध स्तर पर चलाना होगा। इन सभी स्थानों पर उचित आपसी शारिरिक फासला व सफाई जैसे आवश्यक कदम भी उठाने होंगे जिससे संक्रमण न फैले।
फसलों का भुगतान अधिक से अधिक डिजिटल माध्यम से किया जाए। फसल की कटाई तक किसान एक-एक रुपया जुटा कर किसी प्रकार अपना काम चलाता है। फसल तैयार होने के बाद किसान के पास अधिक देर तक फसल रोककर रखने की गुंजाइश नहीं होती। अतः एक अप्रैल के बाद खरीद में विलंब के लिए फसलों पर 50 रुपए प्रति क्विंटल प्रति सप्ताह का बोनस एमएसपी के ऊपर अलग से दिया जाए। इससे कुछ किसान जिनके पास फसल रोकने की आर्थिक क्षमता है वो फसल विलंब से बेचने का निर्णय ले सकते हैं। इस विपदा से किसान की आय के सारे स्रोत सूख गए हैं अतः सरकार को रबी की फसलों पर 250 से 500 रुपये प्रति क्विंटल तक एमएसपी के ऊपर अलग से बोनस भी देना चाहिए।
अच्छी पैदावार के बावजूद खाद्य पदार्थों और कृषि उत्पादों की वितरण व्यवस्था बाधित हो रही है। फल-सब्ज़ियों को मंडियों तक पहुंचा पाना मुश्किल हो गया है और ये खेतों में ही सड़ने लगे हैं। सरकार को मंडियों और इससे जुड़ी सारी खाद्य श्रृंखला की व्यवस्था को जल्द से जल्द अपनी पूरी क्षमता पर निर्बाध रूप से शुरू करवा देना चाहिए। अन्यथा एक तरफ बाजार के अभाव में किसानों को नुकसान होगा तो दूसरी तरफ उपभोक्ताओं को महंगाई से जूझना पड़ेगा।
अगले एक साल के लिए कृषि उत्पाद विपणन अधिनियम और आवश्यक वस्तु अधिनियम को शिथिल करते हुए किसानों और थोक व्यापारियों को मंडी व्यवस्था के बाहर कहीं भी सीधे खरीद-बिक्री करने की आज्ञा दे देनी चाहिए। साथ ही साथ बड़े-बड़े मुख्य गांवों से सीधे खरीद की व्यवस्था भी लागू की जा सकती है जिससे खरीद केन्द्रों और मंडियों में अधिक भीड़ ना लगे। इसके लिए राज्य सरकारों द्वारा मंडी-शुल्क भी माफ कर देना चाहिए। खाद्य प्रसंस्करण उद्योग भी खाद्य श्रृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी है अतः इन्हें और इनसे जुड़े उद्योगों को भी निर्बाध चलने की अनुमति देनी होगी।
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अप्रैल में कटाई के उपरांत जायद और खरीफ़ की फ़सलों की बुवाई भी शुरू हो जाएगी। अभी गन्ने की बुवाई हो भी रही है। बुवाई हेतु सभी आवश्यक निवेशों- बीज, खाद, कीटनाशक व खरपतवार नाशक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। साथ ही इनपर लगने वाली जीएसटी भी हटा देनी चाहिए। इनके आयात, उत्पादन, भंडारण, वितरण और बिक्री की व्यवस्था को भी निर्बाध चलवाना होगा। सिंचाई, रजवाहों और नहरों की व्यवस्था को भी सुचारू रूप से चलाना होगा अन्यथा आगामी खरीफ़ की फ़सलों की बुवाई और उत्पादकता प्रभावित होगी।
कच्चे तेल के दाम गिरने से डीजल और रासायनिक उर्वरकों के दाम भी कम हो जाते हैं। अतः फसलों की कटाई और बुवाई के इस कठिन वक्त में किसानों को सस्ता डीजल और सस्ता खाद उपलब्ध करवाना आवश्यक है। इसके लिए कृषि कार्यों में इस्तेमाल होने वाले डीजल पर कम से कम दस रुपये प्रति लीटर की छूट या सब्सिडी देना देश व किसान हित में होगा। कच्चे तेल के दाम गिरने से सस्ते हो गए रासायनिक उर्वरकों- विशेषकर डीएपी, पोटाश आदि को किसानों को अब कम कीमत में उपलब्ध करवाना चाहिए।
मार्च में बार-बार बेमौसम बारिश, ओलावृष्टि एवं तूफान के कारण बड़े पैमाने पर कई राज्यों में फसलों का काफी नुकसान हुआ है। अतः प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के अंतर्गत इस नुकसान के आंकलन और दावों के भुगतान की व्यवस्था को सरकार इस लॉकडाउन में भी निर्बाध रूप से चलवाने का काम करे।
चीनी की केवल 25 प्रतिशत खपत घरेलू उपयोग में होती है। बाकि 75 प्रतिशत खपत संस्थानों में या व्यावसायिक उत्पादों- मिठाइयों, चॉकलेट, आइसक्रीम, पेय पदार्थों आदि में होती है। तमाम संस्थाओं और दुकानों के बंद होने के कारण यह खपत तेजी से गिर गई है। इससे गन्ना किसानों के गन्ना भुगतान की समस्या विकराल रूप ले सकती है।
ब्राज़ील गन्ने और चीनी का बहुत बड़ा उत्पादक देश है। कच्चा तेल महंगा होने पर ब्राज़ील चीनी उत्पादन घटाकर एथनॉल उत्पादन बढ़ा देता है। परन्तु कच्चे तेल के दाम गिरने के कारण ब्राज़ील भी अब गन्ने से अधिक मात्रा में चीनी बनाने के लिए मजबूर है। इससे देश-दुनिया में चीनी के दाम और गिरेंगे। 9 अप्रैल तक उत्तर प्रदेश में 913 लाख टन गन्ने की पेराई करके 104 लाख टन चीनी का उत्पादन हो चुका है। किसानों ने इस सीजन में अब तक लगभग 29,700 करोड़ रुपए का गन्ना मिलों को दिया है, परन्तु इसमें से केवल 15,503 करोड़ रुपये का ही भुगतान हुआ है। पिछले सत्र का भी 210 करोड़ रुपये अभी बकाया है। इस प्रकार 9 अप्रैल तक उत्तर प्रदेश के गन्ना किसानों का 14,400 करोड़ रुपये से ज्यादा का भुगतान लंबित है। चीनी मिलें मांग में कमी का बहाना करके इस भुगतान को और लंबा लटका सकती हैं। मज़दूर ना मिलने के कारण गन्ने की छोल और बुवाई भी प्रभावित हो रही है। सरकार खेतों में गन्ना रहने तक मिलों द्वारा गन्ना खरीद, पेराई और बकाया भुगतान भी समय से करवाना सुनिश्चित करे।
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दूध उत्पादन और पशुपालन से कृषि की एक-तिहाई आय होती है। पशुओं के आहार और दवाइयों का उत्पादन करने वाले उद्योगों को भी निर्बाध चलाना होगा। पशुओं के चारे, भूसे के परिवहन और पशु-चिकित्सकों के आवागमन को भी छूट देनी होगी अन्यथा दुग्ध उत्पादन और पशुपालन करना संभव नहीं होगा। लॉकडाउन के कारण दूध की मांग और खरीद कम हो गई है। इससे दूध के दाम 30 प्रतिशत तक घट गए हैं और किसानों को भारी नुकसान हो रहा है। खल, चूरी, बिनौला, छिलका, मिश्रित पशु-आहार आदि बनाने वाली मिलें बंद होने या कम क्षमता पर काम करने के कारण इनके दाम 30 प्रतिशत तक बढ़ गए हैं। इससे किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है। किसान पशुओं को उचित मात्रा में पौष्टिक आहार नहीं दे पा रहे जिससे पशुओं ने दूध देना भी कम कर दिया है।
दुग्ध उत्पादन से लेकर दूध संग्रह, परिवहन, दुग्ध उत्पादों के उत्पादन और वितरण में लगे सारे डेयरी उद्योग को सुचारू रूप से चलाना होगा। सरकार सभी सहकारी व अन्य डेरियों को किसानों से लॉकडाउन से पहले के दामों पर सारा उपलब्ध दूध खरीदने का निर्देश जारी करे। यदि अभी दूध की मांग कम भी है तो इससे दूध पाउडर व अन्य दुग्ध उत्पाद बनाकर रखे जा सकते हैं। अतिरिक्त दुग्ध उत्पादों का प्रयोग
गरीबों, बच्चों, मरीज़ों, अस्पतालों, क्वारंटाइन केन्द्रों आदि को वितरण करने में किया जा सकता है।
चिकन से कोरोना वायरस फैलने की झूठी अफवाहों से उपभोक्ता मांस, मछली, चिकन, अंड़े आदि से परहेज कर रहे हैं। परिवहन पर बंदिश के कारण पोल्ट्री फीड भी किसानों को नहीं मिल पा रही है। यदि यही हाल रहा तो मुर्गियों और चूज़ों के भूख से मरने, वजन कम होने या कम अंडे देने की आशंका है, जिससे किसानों को भारी नुकसान होगा। सरकार तत्काल उपभोक्ताओं की शंकाओं को दूर करे और पोल्ट्री फीड बनाने वाली मिलों को चलवाकर फीड उपलब्ध कराए।
भारत में असंगठित क्षेत्र में 90 प्रतिशत से ज्यादा लोग काम करते हैं। लॉकडाउन के कारण इनमें से बहुत से लोग शहरों से अपने गांव की ओर पलायन कर गए हैं, जिससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर दबाव और बढ़ गया है। सीएमआईई के अनुसार पिछले 15 मार्च से 5 अप्रैल के बीच ग्रामीण बेरोजगारी दर छह प्रतिशत से बढ़कर 20 प्रतिशत पर पहुंच गई है। अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार इस आपदा में भारत में 40 करोड़ लोगों के सामने बेरोजगारी और गरीबी का संकट खड़ा होने की संभावना है। इस संकट से निबटने के लिए सरकार ने ‘पीएम गरीब कल्याण योजना’ नाम से एक 1.70 लाख करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की है जिससे 80 करोड़ लोगों को लाभ होगा। हालांकि इसमें से केवल 73,000 करोड़ रुपये की ही नई घोषणाएं हुई हैं, बाकि 97,000 करोड़ रुपये की योजनाएं तो इस वित्त वर्ष के बजट में पहले से ही थीं।
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इसके तहत खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत आने वाले लाभार्थियों को अगले तीन महीने तक अभी मिल रहे कोटे के ऊपर प्रति माह पांच किलो गेहूँ या चावल और एक किलो दाल प्रति परिवार मुफ्त देने का प्रावधान किया है। यह देखा गया है कि बहुत से ज़रूरतमंद लोग इस योजना में पंजीकृत नहीं हैं या उनका राशनकार्ड गांव में है और वो शहर में बेरोज़गार बैठे हैं। इनको यह मुफ्त खाद्यान्न मिलना कठिन है। इस वक्त आधार कार्ड को ही राशनकार्ड मानकर इन्हें भी राशन दिया जाना चाहिए अन्यथा इनके भूखे मरने की आशंका है।
20.40 करोड़ महिलाओं के जन-धन खाते में अगले तीन महीनों तक 500 रुपये प्रति माह भेजने का भी प्रस्ताव है। प्रवासी मज़दूर और पलायन कर रहे श्रमिकों को इस व्यवस्था में अधिक से अधिक जोड़ना होगा। हमारे देश में लगभग 38 करोड़ जन-धन खाताधारक हैं जिनमें से अधिकांश निचले पायदान के लोग, गरीब, प्रवासी मज़दूर आदि हैं। हमें इन सभी 38 करोड़ जन-धन खाताधारकों के खाते में अगले तीन माह तक 1,000 रुपये प्रति माह भेजने चाहिए। इससे इन लोगों को इस विपत्ति और बेरोजगारी के समय में जीवनयापन करने का एक सहारा मिल जाएगा। यह धन भी अन्ततः अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ाने और मंदी से निकलने में मददगार साबित होगा। तीन करोड़ विधवाओं, पेंशन धारकों और दिव्यांगों को भी एक-एक हज़ार रुपये की एकमुश्त मदद करने का प्रस्ताव है। इसे भी बढ़ाकर तीन महीने तक एक-एक हज़ार रुपए प्रति लाभार्थी कर देना चाहिए। 8.3 करोड़ गरीब परिवारों को अगले तीन माह तक एक गैस सिलिंडर प्रति माह मुफ्त दिया जाएगा। इसे छह माह तक मुफ्त देना उचित होगा।
ग्रामीण रोजगार उपलब्ध कराने की योजना मनरेगा के तहत मज़दूरी को 182 रुपये से बढ़ाकर 202 रुपये प्रति दिन कर दिया है। परन्तु मनरेगा का काम कब शुरू होगा यह अभी निश्चित नहीं है। काम के अभाव में मज़दूरी बढ़ने का मज़दूरों को कोई लाभ नहीं होगा। मनरेगा योजना को इस वक्त कृषि कार्यों से जोड़ देना चाहिए। इससे किसानों को मज़दूर मिल जाएंगे और मजदूरों को काम। इस वित्त वर्ष में मनरेगा का बजट 61,500 करोड़ रुपये है, जबकि पिछले वित्त वर्ष में इस पर 71,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे।
यह एक मांग जनित योजना है अतः यदि मांग बढ़ती है तो इस योजना का बजट भी उसी के अनुसार बढ़ाना होगा। इसके अलावा ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन कर गए लोगों को वहीं रोजगार भी उपलब्ध करवाना होगा। इसके लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के बजट को 19,500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर दोगुना कर देना चाहिए। इसी प्रकार प्रधानमंत्री ग्रामीण आवास योजना के बजट को भी 19,500 करोड़ रुपये से बढ़ाकर दोगुना कर देना चाहिए। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार मिलने में आसानी होगी और अतिरिक्त धन-प्रवाह से देश की अर्थव्यवस्था को भी लाभ होगा।
8.70 करोड़ किसानों को पीएम-किसान योजना की अगले वित्त वर्ष की दो हज़ार रुपए की पहली किश्त भी अप्रैल के शुरू में ही वितरित की जा रही है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था, किसानों और मजदूरों को राहत देने के लिए सरकार को पीएम-किसान योजना के अंतर्गत राशि को 6,000 रुपये से बढ़ाकर 24,000 रुपये प्रति किसान परिवार प्रति वर्ष कर इस राशि का तीन या चार मासिक किश्तों में भुगतान कर देना चाहिए। यदि संसाधनों का अभाव हो तो इस राशि को केन्द्र व राज्य सरकारें आधा-आधा वहन कर सकती हैं। हमें यह बात समझनी होगी कि ग्रामीण क्षेत्रों में पहले ही हमारी 70 प्रतिशत जनसंख्या रह रही थी। अब पलायन के कारण वहां 75 से 80 प्रतिशत जनसंख्या हो गई है। इस धन वितरण से एक तो ग्रामीण इलाकों में पलायन करने वाले अतिरिक्त लोगों को रोजगार मिलने में आसानी होगी। दूसरे, मांग बढ़ेगी और अर्थव्यवस्था मंदी से जल्द बाहर निकल सकती है। हमारी अर्थव्यवस्था में घरेलू खपत की हिस्सेदारी 60 प्रतिशत है अतः बिना खपत या मांग बढ़ाए अर्थव्यवस्था मंदी से बाहर नहीं निकल सकती।
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इस आपदा के कारण किसानों की आमदनी और कर्ज़ चुका पाने की क्षमता कम हो गई है। अतः किसानों के कर्ज़ की रिकवरी, किश्तों के भुगतान को भी एक वर्ष के लिए स्थगित करना होगा। आमदनी घटने के कारण किसान साहूकारों से महंगे ब्याज़ पर कर्ज़ लेने के लिए बाध्य होंगे। सरकार को किसान क्रेडिट कार्ड की लिमिट को तत्काल प्रभाव से दोगुना कर देना चाहिए। इसके तहत ब्याज दर को भी घटाकर एक प्रतिशत कर देना चाहिए। अर्थव्यवस्था के बड़े भाग के बंद होने के कारण इस वक्त बैंकों से कर्ज की मांग भी बहुत कम हो गई है।
एसबीआई ने भी हाल ही में अतिरिक्त तरलता होने के कारण ब्याज दर भी घटा दी है। अतः इस वक्त इस धन को किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड के माध्यम से उपलब्ध करवाना चाहिए। यह वैसे भी पूर्णतः सुरक्षित कर्ज़ होता है क्योंकि इसमें किसानों को अपनी बंधक ज़मीन की कीमत का 20-25 प्रतिशत तक कर्ज़ ही मिलता है। अतः इसमें बैंकों के लिए ज़्यादा आर्थिक जोखिम भी नहीं है। इससे ग्रामीण क्षेत्रों में धन का प्रवाह तत्काल बढ़ेगा और देश की अर्थव्यवस्था को मंदी से निकलने में मदद मिलेगी। इस वक्त फ़सलों की समय पर खरीद, भंडारण, बुवाई और खाद्य पदार्थों की वितरण व्यवस्था को बहुत ही सुचारू रूप से चलाने की आवश्यकता है, अन्यथा किसानों, उपभोक्ताओं और देश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।
(लेखक किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष हैं)