सरकारें जब भी कोई कर या कर सुधारों से जुड़ी व्यवस्थाएं लेकर आती हैं, तो उसे ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पेरेस्त्रोइका’ के रूप में ही पेश करने की कोशिश करती हैं, उसके अंतिम परिणाम चाहे जो भी रहें आखिर ऐसा करने के पीछे असल वजह क्या है? क्या सरकारें नीतियों एवं व्यवस्थाओं का निर्माण सिर्फ इसलिए करती हैं ताकि वे देश के लोगों के बीच बेहतर तरीके से अपनी श्रेष्ठता का प्रचार कर सकें और उसके एवज में सत्ता के लिए आवश्यक जनमत हासिल कर सकें? यदि ऐसा नहीं है तो फिर परिणामों के आने पर नीतियों एवं प्रयासों को जनता के ऊपर ही क्यों नहीं छोड़ दिया जाता?
ऐसा ही कुछ जीएसटी के लागू होने से पहले हो रहा है या उसे इस तरह से प्रस्तुत हो रहा है मानो वह कोई जादू की छड़ी हो जिसके स्पर्श मात्र से ही भारतीय कर सुधार सम्पन्न हो जाएंगे, राजकोषीय स्थिति दुरुस्त हो जाएगी और भारतीय अर्थव्यवस्था कुलांचे मारते हुए दुनिया की सारी अर्थव्यवस्थाओं को पीछे छोड़ कर बहुत आगे निकल जाएगी। जीएसटी से पहले भी जब वैट, मोडवैट, सेनवैट… आदि आए तो उनकी भी प्रशंसा कुछ इसी तरह हुई थी और यह कहकर पेश किया गया था इनके आते ही भारत भ्रष्टाचार मुक्त हो जाएगा, देश की अर्थव्यवस्था कई गुना वेग पाकर दुनिया को पीछे छोड़ देगी और उपभोक्ता मालामाल हो जाएगा।
लेकिन क्या हुआ? यदि हां, तो फिर इन्हें हटाकर जीएसटी लाने की जरूरत क्यों पड़ी और यदि नहीं हुआ, तो फिर क्या सरकारों के प्रतिनिधि देश के समक्ष यह स्वीकार करने के लिए तैयार हैं, कि हमने गलत तर्क दिए थे और बिना जमीनी आधार के उसे लागू कर आभासी लक्ष्यों को पेश किया था? यदि दोनों सरकार ऐसा कहने में समर्थ नहीं है तो फिर यह मान लेना चाहिए कि सरकार ने कर सुधार की दिशा में यह एक नया प्रयोग किया है, जिसे दुनिया के लगभग 150 देश हमसे पहले ही अपना चुके हैं?
इसके अतिरिक्त एक प्रश्न यह भी है कि क्या सरकार यह गारंटी दे सकती है कि जीएसटी लागू करने के लिए समस्त अपेक्षित तैयारियां वह पूरी कर चुकी है? यदि हां तो यह संभव है कि ‘हाथी’ (ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाओं में भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रतीक हाथी) अपनी समग्र संभाव्यता (पोटैंशियल) का प्रदर्शन करते हुए चीते (चीनी अर्थव्यवस्था) को बहुत जल्द ही पीछे छोड़ देगा। लेकिन यदि नहीं, तो फिर जीएसटी को अभी से ‘नायक’ के रूप में क्यों पेश किया जा रहा है, एक प्रयोग के तौर पर क्यों नहीं?
भारत में वर्तमान समय में अप्रत्यक्ष कर प्रणाली कर संग्रह के मामले में जटिल एवं अक्षम है और साथ ही जीडीपी पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, इसलिए यह आवश्यक तो है कि एक ऐसी कर व्यवस्था लाई जाए जो एकीकृत एवं दक्ष हो और जिसमें जटिलता की बजाय पारदर्शिता, उदारता, सरलता के तत्व अधिक हों।
हालांकि मोडवैट की शुरुआत, फिर सेनवैट तत्पश्चात वैट को भी कराधान की कुशल प्रणाली प्राप्त करने की दिशा में एक प्रगतिशील प्रयास कहा जा सकता है लेकिन जीएसटी को गुणात्मक रूप से कहीं अधिक परिवर्तनकारी माना जा सकता है। इस विषय को लेकर अब तक का जो रोडमैप सामने आया है उसके अनुसार भारत में जो जीएसटी लागू होगा उससे सभी वस्तुओं और सेवाओं के लिए विस्तृत एवं व्यापक (वाइड एवं काम्प्रीहेंसिव) आधार निर्मित होगा।
हालांकि जीएसटी के संदर्भ जो स्लोगन था, वह ‘वन इण्डिया वन टैक्स’ का था लेकिन जीएसटी काउंसिल ने जो स्लैब और श्रेणियां तय की हैं, उनमें यह साकार होता नहीं दिख रहा है। पहली बात तो यह है कि यह एकल श्रेणी नहीं है बल्कि इसमें सीजीएसटी (सेंट्रल जीएसटी), एसजीएसटी (स्टेट जीएसटी), यूटीजीएसटी (यूनियन टेरिटरी जीएसटी) और आईजीएसटी (इंटीग्रेटेड जीएसटी) हैं। इस सामान्य विभाजन में कार्यतंत्र (वर्क मैकेनिज्म) बेहद जटिल है, इतना जटिल कि अभी तक राज्यों के वाणिज्य अधिकारी पूरी तरह से समझ ही नहीं पाए हैं। फिर वे कार्य कैसे करेंगे? क्या उनके ज्ञान एवं अनुभव की कमी इसकी दक्षता एवं क्षमता की राह में रोड़ा नहीं बनेगी।
अब थोड़ा ‘वन टैक्स’ या ‘सिंगल टैक्स’ की बात करें, जो अब तक मीडिया दुनिया में ‘वन इण्डिया, वन टैक्स’ को प्रचारित हो रहा है। सामान्यतया तो जीएसटी दरों को लेकर केवल 4 स्लैब ही बताए जा रहे हैं अर्थात 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत और 28 प्रतिशत लेकिन सही अर्थों में ये दरें शून्य/निल (0), 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत, 28 प्रतिशत एवं 28 प्रतिशत+सेस यानि 6 स्लैब हैं।
ध्यान रहे कि दुनिया के लगभग 150 देश जीएसटी को अपना चुके हैं, जहां अब तक के अनुभव अच्छे एवं बुरे दोनों दिखे हैं। खास बात यह है कि भारत के मुकाबले वहां कर की दर कम होने के बावजूद लोगों द्वारा इसका विरोध किया गया है और कई देशों में जीएसटी असफल भी रहा है। उल्लेखनीय है अधिकांश देशों में एकल कर के रूप में जीएसटी लागू हुआ है जबकि भारत में जीएसटी के तहत 6 या 7 प्रकार के कर हैं।
आंकड़ों पर ध्यान दें तो जापान, सिंगापुर, जर्मनी, फ्रांस, कनाडा, आॅस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और पाकिस्तान के मुकाबले भारत की जीएसटी दर ज्यादा है यानि भारत सरकार उक्त देशों के मुकाबले जनता पर कर भार अधिक डालने के मनोविज्ञान पर काम कर रही है। दूसरा पक्ष यह है कि सामान्यतया यह तर्क दिया जा रहा है पहले उपभोक्ता को 30 से 35 प्रतिशत अप्रत्यक्ष कर चुकाना पड़ता था लेकिन अब उसे औसतन 18 से 28 प्रतिशत के बीच ही कर चुकाना होगा यानि उपभोक्ता लाभ की स्थिति में रहेगा।
ऐसे में एक स्वाभाविक पक्ष यह है कि प्रत्येक उपभोक्ता क्या समस्त वस्तुओं, जिन पर औसतन अप्रत्यक्ष कर 30-35 के आसपास थे, का क्रय करता था? कम से कम गरीब एवं निम्न मध्यम वर्ग तो कदापि नहीं इसलिए उसे निम्नकोटि की वस्तुओं पर जो उसकी जीविका के लिए अनिवार्य थीं, 15 से 20 प्रतिशत ही कर देना होता था क्योंकि उसकी निजी आवश्यकता आधारित चीजें अपेक्षाकृत कम कर देयता वाली थीं परन्तु अब तो उसे अधिकांश वस्तुओं पर 18 प्रतिशत से 28 प्रतिशत के आस-पास कर चुकाना होगा और उसके पास इसका कोई विकल्प भी नहीं होगा। तब फिर क्रेता या उपभोक्ता निबल लाभ की स्थिति में कहां हुआ? दूसरी बात कि जीएसटी में कई दरें अथवा स्लैब हैं जिसमें 28 प्रतिशत एवं 28 प्रतिशत व सेस। ये स्लैब जीएसटी को अधिक जटिल बना देंगे जिसका खामियाजा व्यापारियों एवं कारोबारियों को भुगतना पड़ेगा।
जीएसटी टेक्नोलाॅजी आधारित कर प्रणाली है क्योंकि सब कुछ आॅनलाइन होगा। लेकिन इसके लिए तो प्रत्येक व्यापारी के पास कम से कम एक कम्प्यूटर होना चाहिए, तकनीकी ज्ञान होना चाहिए और कर आकलन का तरीका आता होना चाहिए। सूचनाएं बताती हैं कि लगभग छह करोड़ व्यापारियों में से अभी तक 25 से 30 प्रतिशत के पास ही यह सुविधा है। सवाल यह उठता है कि 70 से 75 प्रतिशत कारोबारी ज्ञान एवं लाॅजिस्टिक्स से ही वंचित है, तब क्या जीएसटी पहले चरण में तो सरकार के सामने खासी चुनौती लेकर नहीं आएगा?
क्या सरकार उनके लिए टेक्नोलाॅजिकल असिस्टेंस देने जा रही है? एक आशंका कारोबारियों की तरफ से यह भी है कि उनके व्यवसाय पर अपने धंधे को जीएसटी के अनुकूल बनाने के लिए अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। कुल मिलाकर जीएसटी से राज्यों के बीच करों में समानता आएगी जिससे राज्यों के स्तर पर बाजार गतिशीलता समान रहेगी, जो सहकारी संघवाद के लिए जरूरी है। द्वितीय यह कि जीएसटी काउंसिल में राज्यों को स्थान देकर नीति निर्माण में शामिल किया गया है, जिससे कि क्रियान्वयन अधिक बेहतर तरीके से हो सकते हैं। इससे प्रतिस्पर्धी संघवाद को बढ़ावा मिलेगा।
आईजीएसटी अंतर-राज्यीय व्यापार को प्रोत्साहित करेगा, जिससे कोआॅपरेटिव फेडरलिज्म और मजबूत हो सकेगा। लेकिन इन सबके बावजूद भारत जीएसटी के माध्यम से समान कर व्यवस्था से जुड़ जाएगा जिससे परिवहन तंत्र, निवेश और उत्पादन प्रोत्साहित हाेंगे फलतः आर्थिक विकास की दर में तेजी आएगी और बाजार दक्षता बढ़ेगी। परन्तु ऐसा तभी संभव हो पाएगा जब सरकार मैकेनिज्म के मोर्चे पर पूरी दृढ़ता, क्षमता एवं योग्यता से निपटने में सफल हो। फिलहाल निष्कर्षों के लिए प्रतीक्षा करनी होगी।
(लेखक अंतराष्ट्रीय मामलों के जानकार हैं यह उनके निजी विचार हैं।)
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