कालाधन, फौजदारी, भ्रष्टाचार और तिकड़म के सहारे भूमाफिया बड़े पैमाने पर जमीन की लूट में जुटे हैं। जमीन की बिक्री, बैनामा की इबारत, दाखिल खारिज, वसीयत, कब्जा, भू-उपयोग, ग्रामसमाज की जमीन का दुरुपयोग आदि सब में स्थानीय दलालों की भूमिका रहती है। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की उतनी ही या उससे अधिक भागीदारी है जितनी भूमाफियाओं की। भूमि सुधारों की दिशा में सरकार द्वारा जो काम किए भी गए हैं वे नाकाफी हैं। सरकार की मंशा को फेल करने में बैनामा लिखनेवाला वकील, खड़े किए गए गवाह भी भागीदार हैं। यदि ईमानदारी से जांच हो तो तमाम बैनामा निरस्त हो जाएं।
कृषि भूमि के बैनामा में कैश का चलन पूरी तरह बन्द हो और जमीन पर आयकर लगे तो गोरखधंधा कुछ हद तक घट सकता है। बैनामा में एक स्थान पर कृषि भूमि की चौहद्दी लिखी जाती है उसमें लिख देते हैं पूरब-दीगर का खेत, पश्चिम-तालाब, उत्तर-दीगर की बाग और दक्षिण-दीगर का खेत। इस प्रकार की फर्जी चौहद्दी इसलिए लिखनी पड़ती है क्योंकि दो अनजाने बाहरी गवाह लाकर खड़े किए जाते हैं। यदि गवाह उसी पंचायत के हों जहां की जमीन बिकी है और गवाहों की पहचान प्रधान द्वारा की जाए और दाखिल खारिज के लिए जमा की गई रिपोर्ट पर लेखपाल के अलावा वर्तमान प्रधान और पिछले प्रधान के भी हस्ताक्षर अनिवार्य हों तो अनियमितता पर कुछ अंकुश लग सकता है।
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जमीन पर अगर भवन, स्कूल, बड़े पेड़, नलकूप, बाउन्ड्री मौजूद हो अथवा जमीन विवादित हो तो सभी तथ्य भूलेख में दर्ज होने चाहिए। तथ्य छुपाने से सरकार का नुकसान भी होता है स्टाम्प ड्यूटी कम दी जाती है। यदि भूलेख तैयार करते समय लेखपाल और कानूनगो द्वारा, तथ्य छुपाए गए हों तो इसे दंडनीय अपराध घोषित करना चाहिए। जमीनी हकीकत, खसरा और भूलेख में यदि अन्तर निकले तो जिम्मेदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए और सरकार की जो हानि हुई वह सम्बन्धित अधिकारी से वसूली जानी चाहिए।
सवर्णों द्वारा दलितों की जमीन खरीदने के लिए जिलाधिकारी की अनुमति और बेचने के बाद दलित के पास एक एकड़ जमीन बचना जरूरी है। फिर भी दलितों की जमीन गैरदलितों को बिक रही है और दाखिल खारिज भी हो रहा है। यदि दलितों की भूमि की श्रेणी ही अलग कर दी जाए और भूलेख पर अलग प्रकार का खसरा बने जैसे बीपीएल का राशन कार्ड अलग होता है तो दलितों की जमीन का दाखिल खारिज सवर्णों के नाम आसानी से नहीं होगा लेकिन इस प्रावधान की हानि स्वयं दलितों को भुगतना पड़ रहा है।
कई बार लेखपाल अपनी कलम से जमीन का वारिस बदल देता है। किसी ब्राह्मण का वारिस हरिजन को बना दिया जाता है या फिर किसी के दो बेटे कई बेटियां हो तो वारिस केवल एक को बना दिया जाता है या केवल लड़कों को बना देते हैं लड़कियों की अभी भी गिनती नहीं है। यदि किसी एक को वारिस बना दिया तो वह बेच सकता है और जमीन बेची जाए तो बैनामा में स्पष्ट लिखा रहे कि बेचने वाले के बालिग या नाबालिग कितने बेटे बेटियां है और कितनों ने बैनामा पर हस्ताक्षर किए। यदि बैनामा में जानकारी छुपाई गई हो या अधूरी और भ्रामक हो तो प्रशासन के संज्ञान में आते ही बैनामा निरस्त किया जाए, गुनाह करने वालों को सजा मिले तो पचासों साल मुकदमा नहीं लड़ना पड़ेगा।
कई बार किसान 30-40 साल से किसी जमीन पर काबिज होता है और खेती कर रहा होता है फिर भी उसका नाम खसरा में कहीं भी नहीं लिखा जाता। जमीन पर नाम उस नकली किसान का दर्ज रहता है जो कभी भी जमीन के पास भी नहीं आया, उसे इलाके में कोई जानता भी नहीं और एक दिन वह फर्जी बैनामा लिखकर किसी को जमीन बेच देता है। ऐसे फर्जी किसानों की संख्या बहुत है। यदि फर्जी किसानों के नाम ग्राम प्रधान की मदद से अभिलेखों से हटाने की व्यवस्था हो तो या तो फर्जी किसान सामने आएंगे और गोरखधंधा उजागर होगा अथवा असली किसान को जमीन मिल जाएगी।
आजकल इंजीनियर, डॉक्टर, वकील, पुलिस अधिकारी, आर्किटेक्ट, सोने चांदी के व्यापारी, आरटीओ आदि किसान बनना चाहते हैं और खेती की जमीन खरीदते हैं। यदि खेती की आमदनी पर टैक्स माफी का लाभ केवल असली किसानों को मिले तो इसका समाधान निकल सकता है परन्तु, यह केन्द्र का विषय है। राज्य सरकार के पास एक अधिकार तो है कि कृषि भूमि का भू-उपयोग बदलवाकर उसकी प्लाटिंग ना होने दी जाए।
चकबन्दी, रेवेन्यू और रजिस्ट्री अभिलेखों में कोई तालमेल नहीं है। एक विभाग क्या कर रहा है दूसरे को पता नहीं, इसी का लाभ लेकर भूमाफिया पनप रहे हैं। सरकार भूलेख के माध्यम से पारदर्शिता लाई है परन्तु यह पारदर्शिता अधूरी है। जब तक भूलेखों के लिए केवल लेखपालों पर निर्भरता रहेगी तब तक समस्या का हल नहीं निकलेगा।
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