रमेश ठाकुर
आग की लपटों में सुलगते दार्जिलिंग में सभी गतिविधियां बंद रखने के आदेश दे दिए गए हैं। उपद्रवियों के चलते हालात नियंत्रण से बाहर हो गए हैं। आंदोलनकारी किसी भी हद तक जाने के लिए कसमें खाए बैठे हैं। गोरखा लोग किसी भी तरह अपनी खिसकती सियासी जमीन को बचाना चाहते हैं।
दार्जिलिंग में पिछले दिनों संपन्न हुए स्थानीय निकाय चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत ने गोरखा समुदाय की दरकते जमीन के संकेत दे दिए थे। तभी से गोरखा मुक्ति मोर्चे की बेचैनी बढ़ी हुई है। इसलिए अपनी जमीन को बचाने के लिए आंदोलन कर रहे हैं। अपनी खिसकती सियासी जमीन को बचाने के लिए गोरखा समुदाय इस समय उग्र हो गए हैं। पश्चिम बंगाल में दार्जिलिंग पहाड़ियों को मिलाकर अलग गोरखालैंड की मांग को लेकर आंदोलकारियों ने एक बार फिर तांडव मचाना शुरू कर दिया है।
हालात बद से बदतर होकर बेकाबू हो गए हैं। हालांकि उनकी अलग राज्य की मांग सबसे पुरानी है। गोरखालैंड के लिए आंदोलित हो रहे लोग कहते हैं कि देश के दूसरे हिस्सों में जो अलग राज्य की मांग उठी थी, उनकी मांगें पूरी करके अलग राज्य का गठन कर दिया गया है।
तेलंगाना ताजा उदाहरण है। तो गोरखालैंड को क्यों नहीं अलग किया जा रहा? दार्जिलिंग सुलग रहा है। जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया है। चारों ओर आगजनी की घटनाएं देखने को मिल रही है। स्कूल, कॉलेज बंद कर दिए गए हैं। दुकानों के शटर गिरा दिए गए हैं। पूरे दार्जिलिंग में हालात बेकाबू हो गए हैं।
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गोरखालैंड की मांग की अगुआई करने वाले व गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख बिमल गुरंग पर गुरुवार को प्रशासन ने उन्हें पकड़ने के लिए सर्च अभियान चलाया। हालांकि वह पकड़ में नहीं आ सके। बिमल से जुड़े कुछ परिसरों पर ताबड़तोड़ छोपमारी की गई। लेकिन इस कार्रवाई से उनके समर्थक और भड़क गए। उसके बाद चारों ओर हिंसा भड़क गई। इसमें प्रदर्शनकारियों और दंगा पुलिस ने एक-दूसरे पर पथराव किया है और कई वाहनों को आग लगा दी गई।
पिछले दो दिनों से पूरा इलाका आग की चपेट में है। लोगों का बाहर निकलना भी बंद हो गया है। चारों ओर पुलिस-सेना की तैनाती कर दी गई है। आंदोनकारियों पर सेना ने अब अपना रंग दिखाना शुरू कर दिया है। सैनिक जमकर लोगों की पिटाई कर रहे हैं। इससे लोग और भड़क रहे हैं।
जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख बिमल गुरंग का मौजूदा आंदोलन भी किसी राजनीतिक महत्वाकांक्षा से कम नहीं है। लेकिन उनकी इस मांग ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के लिए राजनीतिक संकट खड़ा कर दिया है। इस संकट से पर्यटन के मुख्य मौसम, गर्मियों के दौरान इस व्यवसाय पर भी बहुत असर पड़ रहा है।
गर्मी के मौसम में लोग दार्जिलिंग घूमने जाते हैं, लेकिन उनके उपद्रव ने गर्मी में ठंड का एहसास कराने वाले इस हिल स्टेशन ने गर्मी को महसूस करा दिया है। इससे सरकार को पर्यटन से होनी वाली आय से वंचित होना पड़ा है, करोड़ों-अरबों का नुकसान हुआ है। आग कब शांत होगी, इसकी संभावना भी नहीं दिखाई देती।
देखा जाए तो पश्चिम बंगाल के इस गोरखा बहुल इलाके में गोरखालैंड आंदोलन का लंबा इतिहास रहा है। मगर इस बार जिस तरह भाषाई मुद्दे को तूल देकर आंदोलन ने जोर पकड़ा है, वह चिंता की बात है। केंद्र सरकार ज्यादा हस्तक्षेप नहीं कर रही। भाजपा का झुकाव काफी हद तक गोरखाओं के प्रति दिखाई दे रहा है। भाजपा ऐसा इसलिए कर रही है, क्योंकि इस आंदोलन की आड़ में वह अपना विस्तार कर सकेगी।
इस बात से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खासी चिंतित हैं। तृणमूल कांग्रेस सरकार ने बंगाली अस्मिता के मुद्दे को हवा देने के मकसद से पहली कक्षा से बांग्ला भाषा की अनिवार्यता की घोषणा की थी, जिसे मुद्दा बनाकर नेपालीभाषी इलाकों में आंदोलन की सुगबुगाहट शुरू हुई।
हालांकि, बाद में ममता बनर्जी ने कह भी दिया कि यह अनिवार्यता गोरखा बहुल इलाके पर नहीं लागू होगी। मगर तब तक मुद्दा गरमा गया था। तीर कमान से निकल चुका था और शतरंज की बिसातें बिछ चुकी थीं। कहा जा रहा है कि पश्चिम बंगाल में नई जमीन तलाशने में लगी भाजपा के साथ गोरखा जनमुक्ति मोर्चे का तालमेल कर रहा है।
यदि वाकई इस आंदोलन के राजनीतिक निहितार्थ हैं, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि गोरखालैंड की अस्मिता पड़ोसी देश से जुड़ती है, जहां चीन तरह-तरह के खेल, खेल रहा है।
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गोरखा आंदोलन जानबूझकर ऐसे समय में शुरू किया गया है। जब सरकार को सबसे ज्यादा आर्थिक रूप से नुकसान हो। दार्जिलिंग के तीन गोरखा बहुल जिलों में यह आंदोलन ऐसे समय में फूटा है, जब पर्यटकों का पीक सीजन होता है। कमोबेश चाय बागानों के लिए भी यह महत्वपूर्ण समय होता है।
आंदोलन का दूसरा पहलू भी बाहर निकलकर आ रहा है। गोरखालैंड आंदोलन को केंद्र में सत्तारूढ़ दलों द्वारा विपक्ष की पश्चिम बंगाल सरकार को परेशान करने के लिए इस्तेमाल करने के आरोप लगते रहे हैं। सुभाष घीसिंग को केंद्र की कांग्रेस सरकार द्वारा वामपंथी सरकार पर नकेल डालने के लिए इस्तेमाल करने के आरोप लगे हैं। इस बार राजग सरकार की तरफ ऊंगली उठ रही है। इसका आधार यह भी है कि गोरखा जनमुक्ति मोर्चे का भाजपा के साथ चुनावी तालमेल रहा है।
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ममता बनर्जी द्वारा पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने के बाद आंदोलनकारियों से समझौता करके गोरखालैंड स्वायत्तशासी संस्था जीटीए का गठन किया गया था। जीजेएम के संस्थापक बिमल गुरंग इसके मुख्य अधिशासी बने थे। इसके अलावा 45 सदस्यीय जीटीए के चुनाव इस वर्ष होने हैं। पिछले दिनों स्थानीय निकाय चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की जीत ने गोरखा मुक्ति मोर्चे की बेचैनी बढ़ा दी है। वैसे भी दरकती जमीन को संभालने के लिए उसे कुछ तो करना ही था। इसलिए मौका मिलते ही उसने आंदोलन को हवा दे दी।
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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