मुझे याद है, जब मैं छठवीं -सातवीं में पढ़ रहा था, माई हर साल गरमी और जाड़ा की छुट्टियों में बहरा से गाँवे चली जाती थी। इसके अलावा भी महीने-दो महीने पर गाँवे चलिए जाती थी। उसका परान गाँवहीं में बसता था।
मैं नया-नया शहर में आया था। शहर माने रेनूकूट, सोनभद्र, उत्तर प्रदेश। मुझे ऐसा लगता था कि गाँव में बुरबक या मजबूर लोग रहते हैं। जो चाल्हाक हैं, तेज हैं, सफल हैं, प्रतिभावान हैं, वह शहर की ओर भागते हैं, शहर में बसते हैं। शहर में बिल्डिंग पिटवाते हैं, घर खरीदते हैं। क्या कहूँ अपनी लड़कबुद्धि के बारे में। खैर, बाद में तो मजबूरी में ही सही, कभी पढ़ने के लिए, कभी नौकरी के लिए, कभी कुछ तो कभी कुछ के लिए शहरे-शहर छिछिआना पड़ा। अफ्रीका-यूरोप तक गया। अनवरत भाग ही रहा हूँ न जाने कब से! .. और पहुँचा कहीं नहीं हूँ।
बस कोरोना में गोड़ तूड़ के बइठना पड़ा। इसको लॉकडाउन कहा गया। लॉकडाउन में बहुत लोगों को गाँव भागते देखा। बहुत लोगों को यह कहते सुना कि – अब गाँवे में रहल ठीक बा। कभी-कभी मेरा भी मन करता है कि गाँव के दुआर पर एक कोने में खोंप और पलानी हो। खूँटे पर गाय- बछरू हो। खाँटी दूध मिले। गाय के गोबर वाले खाद से फरहरी लगे और ताज़ा तर-तरकारी मिले। दुआर पर एक-दो पेड़ लगें और प्राणवायु ऑक्सीजन मिले। तो सोचता हूँ कि माई ठीके कहती थी कि- बबुआ हो जनमधरती से ना कटे के, ना छोड़े के, बुरा वक्त में ओही जी लौटे के पड़ेला।
कोरोना काल में जब मानव जीवन संकट में पड़ा तो सबको समझ में आया कि पंच तत्व, जिससे जीवन बना है, देह बना है, उससे जुड़ के रहना कितना जरूरी है। अपनी मिट्टी से जुड़ के रहना, उसमें लोटना, रोज उसको छूना कितना जरूरी है। नीम, बरगद, पीपल के छाँव में रहना कितना जरूरी है। घाम लोढ़ना कितना जरूरी है। सच कहूँ तो माई की बतिया बार-बार याद आती है और याद आता है मेरा गाँव, मेरा स्टेशन।
यह सिवान, रघुनाथपुर थाना का कौसड़ स्टेशन है, मगर आज भी यहाँ से न कोई ट्रेन गुजरती है, न बस। आज भी यह गाँव है। मेरा गाँव। हालाँकि सुना है कि सरयू (घाघरा) के किनारे गाँव के दक्षिण में जो बाँध है, वह 20 फीट चौड़ी पक्की सड़क में तब्दील हो रही है। इससे विकास की कुछ और गुंजाइश बनेगी। बिजली-बत्ती तो है। पानी भी खरीदकर कुछ लोग पीने लगे हैं। कुछ लोगों के घर में एसी भी लगा है, लेकिन बहुत सारे लोग अभी भी बगइचा में बेना डोलाते नज़र आ रहे हैं।
बहुत सारे लोगों की माली हालत ऐसी है कि मुझे अपना शेर याद आता है…
कहीं शहर ना बने गाँव अपनो ए भावुक
अंजोर देख के मड़ई बहुत डेराइल बा …
गाँव में मेरा रहना बहुत कम हुआ है, लेकिन गाँव मेरे भीतर हमेशा रहा है। 1993 में मैंने अपने गाँव की बायोग्राफी लिखी- कौसड़ का दर्पण। उसका सारांश पोस्टर के रूप में तब होली के आस-पास कई गाँवों की दीवालों पर चिपका था। मेरे गाँव में 29 जातियाँ हैं। गाँव की बॉयोग्राफी को मैंने पद्य में भी लिखा था। उसमें जातियों का जिक्र कुछ यूं था-
अहीर, गोंड़, नोनिया, बनिया, डोम, दुसाध, चमार
भर, भाँट, कमकर, कुर्मी, बरई और लोहार
ततवा, तेली, तीयर, बीन, नट, कोइरी, कोंहार
महापात्र, मुस्लिम, मल्लाह, धोबी और सोनार
नाउ, पंडित, लाला, ठाकुर …
29 जातियों का ये झुंड
सीधा-शरीफ, हुंडा तो हुंड
कौसड़ के दर्पण में निहार
मन बोल रहा है बार-बार
हे कौसड़ तुमको नमस्कार।
लंबी कविता है, जिसमें कौसड़ के लोगों के जनजीवन के विभिन्न बिंदुओं को छूने का प्रयास किया गया है। 1993 में मैंने जो जनगणना की थी, वह मेरा खुद का शौकिया प्रोजेक्ट था। गाँव को जानना था ठीक से। 3 महीने तक लगा रहा। गर्मी का महीना था। कई बार सिवान भी गया, गाँव से संबंधित कागजात के लिए। मुझसे 20 साल पहले यह काम मेरे हीं गाँव के एक वैज्ञानिक फूलदेव सहाय ने किया था। उनकी आत्मकथा में एक अध्याय ‘मेरा गाँव कौसड़’ भी है। हालाँकि उस किताब की या जनगणना की मुझे कोई जानकारी नहीं थी। जब मैंने अपना काम शुरू किया और लोगों से मिलना-जुलना शुरू किया तो हमारे गाँव के गणेश सिंह ने न सिर्फ उस किताब की जानकारी दी, बल्कि वह किताब भी उन्होंने उपलब्ध कराई। गणेश जी भी उस जनगणना में फूलदेव सहाय के सहयोगी थे।
गाँव की चौहद्दी की बात करें तो पूरब में गभिराड़, पश्चिम में बड़ुआ, उत्तर में पंजवार और दक्षिण में घाघरा नदी है। पंजवार ही मुख्य सड़क है, जो सिवान या छपरा, पटना से कनेक्ट करती है। पंजवार से डेढ़-दो किलोमीटर अंदर है गाँव के लोगों का रेसिडेंशियल एरिया। पंजवार रोड से लेकर रेसिडेंशियल एरिया तक खेत है। इन्हीं खेतों के बीच एक खाड़ी भी है, जो दक्षिण में घाघरा नदी से कनेक्ट हो जाती है। खाड़ी का निर्माण खेतों की सिंचाई के लिए किया गया है। इन खेतों के कुछ भूभाग को चँवरा कहा जाता है। खाड़ी उस पार ( पूरब दिशा में ) के खेतों को डीह पर का खेत कहा जाता है और दक्षिण में घाघरा नदी के किनारे वाले खेतों को दियर / दियारा कहा जाता है। गेहूँ, धान, अरहर, जौ, बाजरा, मक्का, सब्जियाँ और दियर में गन्ना की खेती होती है।
मक्का या मकई के बाल को अगोरने के लिए मचान पर रात में सोने या दिन भर गपियाने के बचपन के कई संस्मरण जेहन में हैं। हल और हेंगा की कहानियाँ भी हैं, जिन्हें आज ट्रैक्टर ने रिप्लेस कर दिया है। गायों और भैंसों के लिए साँड़ और भैंसा को ‘’कर छो कर छो’’ कर के तलाशने के रोचक किस्से भी हैं और बचपन के जिज्ञासु मन में इस बाबत उठने वाले तमाम सवालों के जवाब अपनी बालमण्डली में खोजने और विचित्र जवाबों के ठहाकों से गुलजार यादें भी हैं, जो शहर और मेट्रो के बच्चों के लिए दुर्लभ हैं। तब खाना बनाने के लिए लगभग सभी घरों में मिट्टी के एकमुँहे और दोमुँहे चूल्हे ही होते थे, जिसमें ईंधन के रूप में रहेठा या चइली लवना के रूप में प्रयोग किया जाता था। अब तो मोदी जी ने घर-घर गैस का चूल्हा पहुँचा दिया। झाड़ा फिरने, मैदान जाने या शौच के लिए अब शायद ही कोई घर से दो किलोमीटर दूर खेतों में जाता हो। घर-घर शौचालय है। अब किसी माँ, बहन, भाभी को शौच के लिए पेट दबाकर अंधेरा होने का इंतज़ार नहीं करना पड़ता है।
मेरे भी गाँव में कई अंग्रेजी मीडियम स्कूल खुल गए हैं। तब पंजवार से कौसड़ आने वाली सड़क के अंतिम छोर, टी पॉइंट पर एक सरकारी प्राइमरी स्कूल था, जो आज भी है। बस, बिल्डिंग थोड़ा बड़ा और नंबर ऑफ रूम्स बढ़ गए हैं। मुझे मालूम नहीं कि अब के मास्टर जी हमारे समय के पंडीजी की तरह रोज पेड़ के नीचे समूह में खड़ा करके पनरह का पनरह, पनरह दूनी तीस, तिया पैतालीस, चउके साठ करते हैं कि नहीं। वह गाँव का ही गिनती-पहाड़ा का बेस था कि मैं रेनुकूट, सोनभद्र (तब मीरजापुर) उत्तर प्रदेश में चौथी कक्षा में एडमिशन लिया, तब से हाई स्कूल तक गणित में 100 परसेंट अंक मिलते रहे। मुझे अभी भी याद है कि उसी स्कूलिया पर हर मंगर और शनिचर के साँझ को बाज़ार लगता था। तब, हम अपने संघतिया लोग के साथ घुघुनी और जिलेबी खाने जाते थे।
गाँव में चिक्का, कबड्डी, गुल्ली-डंडा का खेल अब ना के बराबर रह गया है। (बल्कि वह दुर्लभ खेल गाँव से पार्लियामेंट में सिफ्ट हो गया है।) बच्चों में मोबाइल गेम यहाँ भी हावी है। गाँवों में अब डायन ना के बराबर पाई जाती हैं। पहले बात-बात पर डायन अस्तित्व में आती थी। किसी को बुखार हुआ नहीं कि घर के लोग उचरना शुरू करते थे, डायन कइले होई। फिर डॉक्टर से ज्यादा ओझा का महत्त्व था और दवा से ज्यादा करियवा डाँरा का। हर बच्चे के कमर में एक काला धागा होता था। किसी के यहाँ चोरी होने पर पुलिस के पास लोग बाद में जाते थे पहले गाँव के खुशी भगत के पास पहुँचते थे। खुशी भगत का बाँध के किनारे देवस्थान था। वहीं वह भाखते थे और बता देते थे कि किसका पाड़ा कौन चोरा कर ले गया है। केकरा हाड़े कब हरदी लागी। सब सवालों के जबाब थे खुशी भगत। उन पर परी आती थी। वह बीड़ी पीते थे। परी के आते ही बीड़ी फेंक देते थे और समाधान बताने लगते थे। अब खुशी भगत नहीं रहे। गाँव भी पहले वाला नहीं रहा। मुझे याद है, तब जाड़े के दिन में दियारा जाने पर लोग पूछ-पूछ के ऊँख का रस पिलाते थे। महिया खिलाते थे। अब एक दूसरे को पूछने और मिलने-जुलने की रवायत कम हो गई है।
बरगद का पेड़ भी अब पहले जैसी छाँव नहीं देता। इंफ्रास्ट्रक्चर तो बढ़ रहा है, पर दिलों का कनेक्शन कमजोर हो रहा है। गाँव तो गाँव, पड़ोसी गाँव भी ईर्ष्यालु और आत्ममुग्ध हो गया है। आपके काम को मान नहीं देगा। इससे उसके अस्तित्व को खतरा है। वह हज़ार, दो हज़ार, छह हजार किलोमीटर दूर कोई आका खोज लेगा। उसको पूजेगा और आपके बड़े काम को नकार देगा।
मैं अपनी मातृभाषा भोजपुरी के लिए देश-विदेश घूमता रहा। हाल ही में मॉरीशस अंतरराष्ट्रीय महोत्सव में गया था। दस साल पहले भी वहाँ गया था। तब भारत सरकार के आईसीसीआर की ओर से गया था। अबकी बार मॉरीशस सरकार ने अपने खर्च पर बुलाया था। मॉरीशस सरकार द्वारा भारत से बतौर रिसोर्स पर्सन और पैनलिस्ट बुलाया गया था मुझे। वहाँ भोजपुरी सिनेमा के सफर और संभावना पर ना सिर्फ हमने अपनी बात रखी, वरन इस विषय पर अपनी बनाई डॉक्यूमेंट्री भी दिखाई। भोजपुरी साहित्य और सिनेमा पर ऐतिहासिक काम के लिए फेमिना और फिल्मफेयर की ओर से मिले सम्मान के बाद सिनेमा पर मेरे द्वारा किए गए शोध को विशेष महत्त्व दिया जाने लगा है और यह चर्चा में है।
वर्ष 2014 में भोजपुरी भाषा और साहित्य का प्रचार-प्रसार विश्वस्तर पर करने के लिए मुझे मॉरीशस के पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्री सर अनिरुद्ध जगन्नाथ जी के हाथों ’अंतरराष्ट्रीय भोजपुरी गौरव सम्मान, मॉरीशस 2014’ से सम्मानित किया गया और मॉरीशस के राष्ट्रपति कैलाश पुरयाग ने मेरे भोजपुरी ग़ज़ल- संग्रह ‘तस्वीर जिंदगी के’ का विमोचन किया। ये सारी खबरें सिवान के अखबारों में भी छपीं। सिवान का बेटा हूँ तो गाँव-जवार के बहुत लोग खुश हुए, कुछ जरनियाह नकछेदियों को छोड़कर। नकछेदिया सब तो जर के राख हो गए। वे दूर गाँव से, दूर देश से जीजा-फूफा बोलाकर प्रोग्राम करते हैं, लेकिन गाँव-जवार के भाई- भवधी को छोड़ देते हैं।
साल 2023 में कौसड़ गाँव के 103 वर्षीय लोक गायक जंग बहादुर सिंह को भोजपुरी लोकगायकी के क्षेत्र में अमूल्य योगदान के लिए लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया गया। गोपालगंज के भोरे के अमही मिश्र में जय भोजपुरी-जय भोजपुरिया द्वारा आयोजित साहित्यिक-सांस्कृतिक महोत्सव में सम्मान दिया गया। सम्मान प्रख्यात लोक गायक मुन्ना सिंह व्यास, भरत शर्मा और संस्था के अध्यक्ष सतीश त्रिपाठी द्वारा संयुक्त रूप से दिया गया। इस अवसर पर भोजपुरी के लोकप्रिय गायक मदन राय, गोपाल राय, विष्णु ओझा, उदय नारायण सिंह, राकेश श्रीवास्तव, कमलेश हरिपुरी और संजोली पाण्डेय समेत कई कलाकार और हजारों की संख्या में श्रोतागण मौजूद थे। ऐसे भी जंग बहादुर सिंह का इंटरव्यू, उनका गाना बड़े-बड़े अखबार और टीवी चैनल के साइट पर मौजूद है- आज तक, एनडीटीवी, जीटीवी, न्यूज 18, बिहार तक, टाइम्स नाउ, सन्मार्ग, डीएनए, हिंदुस्तान, जागरण, भास्कर .. अनेक जगह। लेकिन भोजपुरी की दुकान चलाने वाले कुछ लोगों को ये सब कभी नहीं दिखा। वह तो इतने जलनखोर हैं कि चेला-चूली रखकर मुझे ट्रोल करते रहे, हालाँकि उसी गाँव के कुछ कर्मठ और इज्जतदार लोगों ने इन सबके विरोध में दिल्ली में मेरा भव्य स्वागत-सम्मान किया, जब फेमिना और फिल्मफेयर से सम्मानित होके हम दिल्ली लौटे तो।
सच कहूँ तो गाँव, जहाँ भारत की आत्मा बसती है, वहाँ की जड़ों में सियासी घुन लग गए हैं। जनकवि कैलाश गौतम की एक कविता बड़ी लोकप्रिय है, ”गाँव गया था, गाँव से भागा” … स्थिति उससे बदतर होती जा रही है। क्रिएटिविटी के लिए जरूरी है कि गाँव और चौहद्दी के गाँवों में सौहार्द, सहयोग और एक-दूसरे को आगे बढ़ाने की प्रवृति जागृत हो। सहयोग ही गाँव की मूल आत्मा थी और इसी के बल पर बड़े से बड़े अनुष्ठान होते थे। इसी सहयोग और सौहार्द को पुनर्स्थापित करने की जरूरत है। सबके आँगन में सूरज स्थापित करने की कोशिश हो।
दूसरी जरुरी बात, गाँवों के प्रति नज़रिया बदले। गाँवों में महत्त्वपूर्ण काम करने वाले भी कुछ लोगों की नज़र में बुरबक या लड़बक होते हैं और शहर में गोबर पाथने वाले भी होशियार। यह घटिया सोच बदलनी चाहिए। वैसे भी अब गाँवों की ओर ही लौटना होगा। शहर की आबोहवा जहरीली हो गई है। हम मुखनली और श्वासनली दोनों से जहर ले रहे हैं। इसलिए जीवन को बचाना है तो गाँवों की ओर लौटना ही होगा, पर जीवन में जीवन रहे, इसके लिए प्रेम और सौहार्द को भी स्थापित करना होगा।
काश, मेरा यह शेर झूठा साबित हो जाय –
लोर पोंछत बा केहू कहाँ
गाँव अपनों शहर हो गइल
(लेखक मनोज भावुक भोजपुरी जंक्शन पत्रिका के संपादक, सुप्रसिद्ध कवि और फिल्म-कला समीक्षक हैं। ये इनके व्यक्तिगत विचार हैं।)