महात्मा गांधी ने वायसराय माउन्टबेटन से आग्रह पूर्वक कहा कि भारत का बंटवारा मत कीजिए। वायसराय का जवाब था ‘विकल्प क्या है’। गांधी जी ने पूरे विश्वास से कहा था, विकल्प है। अन्तरिम सरकार को बर्खास्त करके जिन्ना के नेतृत्व में वैकल्पिक सरकार बना दीजिए। जिन्ना शायद यही चाहते थे लेकिन इस प्रस्ताव को न नेहरू माने और न पटेल। इतिहासकार दुर्गादास का मानना है कि यदि गांधी जी का सुझाव मान लिया गया होता तो शायद भारत का विभाजन नहीं होता।
महात्मा गांधी को यह उम्मीद न रही होगी कि उनकी बात जवाहर लाल नेहरू नहीं मानेंगे जिन्हें कुर्सी तक स्वयं गांधी जी ने पहुंचाया था या पटेल इनकार कर देंगे, जिन्होंने एक इशारे पर प्रधानमंत्री की कुर्सी नेहरू के लिए छोड़ दी थी। यह वही अन्तरिम सरकार थी जिसके नेहरू प्रधानमंत्री थे, पटेल गृहमंत्री और लियाकत अली खां वित्त मंत्री। नेहरू सरकार को बर्खास्त करने की बात कहते हुए गांधी जी के मन में कितनी पीड़ा हुई होगी इसकी हम कल्पना ही कर सकते हैं। यह वही जवाहर लाल नेहरू थे जिन्हें नेतृत्व सौंपने के लिए गांधी जी ने बड़ी जतन से सुभाष चन्द्र बोस को अलग किया था और वल्लभ भाई पटेल को समझाकर किनारे किया था।
ऐसी घड़ी में गांधी जी को बोस की याद आई थी और उन्होंने कहा था ‘‘बोस एक सच्चे देशभक्त थे’’। तब बहुत देर हो चुकी थी, बोस इस दुनिया में नहीं थे। दुर्गादास का मानना है कि यदि बोस के हाथ में देश की कमान होती तो देश का बंटवारा नहीं होता। लेकिन जिन्ना पर गांधी जी की उम्मीद का कोई ठोस आधार नहीं था। जिन्ना ने कांग्रेस छोड़ी थी गांधी जी के कारण और कड़वाहट पैदा हुई थी नेहरू-जिन्ना टकराव के कारण। लेकिन जिन्ना को प्रधानमंत्री बनाकर देश का विभाजन टल जाता और इतना खूनखराबा न होता।
भारत में सामाजिक समरसता के लिए जरूरी था और जरूरी है ‘समान नागरिक संहिता, एक राष्ट्रीयता’। मध्ययुग में जब भारत के कुछ लोग मन्दिरों से हट कर मस्जिदों में इबादत करने लगे थे तो किसी ने सोचा नहीं होगा कि उनकी सन्तानों की कभी राष्ट्रीयता बदल जाएगी। द्विराष्ट्रवाद के प्रणेता कहे जाने वाले मुहम्मद अली जिन्ना भी जब इंगलैंड से बैरिस्टर बनकर भारत लौटे तो भारतीय राष्ट्रीयता को लेकर उनके मन में कोई दुविधा नहीं थी। आरम्भ में जिन्ना का किरदार उतना फिरकापरस्त नहीं था जितना बाद के वर्षों में हो गया। जिन्ना के मन में न तो महात्मा गांधी के प्रति कोई सम्मान था और न मुस्लिम लीग के आगा खां के प्रति। इसके अलग-अलग कारण हैं।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद 1920 के दशक में जब तुर्किस्तान (टर्की) में मुस्तफा कमाल अतातुर्क ने इस्लामिक शासन की खलीफा व्यवस्था समाप्त करके सेकुलर और आधुनिक शासन कायम किया और हुकूमत में इस्लामिक कानूनों की भूमिका समाप्त कर दी तो भारत के मुस्लिम संगठनों ने इसके विरुद्ध आन्दोलन छेड़ा था जिसे खिलाफत आन्दोलन के नाम से जाना गया। इस आन्दोलन का उद्देश्य था अंग्रेजों को मजबूर करना कि वे अतातुर्क की सेकुलर हुकूमत की जगह इस्लामिक हुकूमतों को फिर से कायम करें। जिन्ना ने खिलाफत आन्दोलन का जोरदार विरोध किया था। इतना ही नहीं उन्होंने भारत में पृथक-पृथक निर्वाचन मंडल (सेपरेट एलक्टोरेट) लागू करने का भी विरोध किया था।
मुहम्मद अली जिन्ना एक ऐसे इंसान थे जो कभी हज करने नहीं गए, पांच बार नमाज़ नहीं पढ़ते थे, जिन्हें कुरान शरी$फ की आयतें भी ठीक से नहीं आती थीं, पोर्क से परहेज़ नहीं था, अविभाज्य भारत में विश्वास रखते थे, कांग्रेस पार्टी के सदस्य थे और कट्टरपंथी मुसलमानों से दूर रहते थेे। जिन्ना को बहुत समय तक भारत विभाजन अथवा पाकिस्तान बनाने में कोई रुचि नहीं थी। पाकिस्तान शब्द तो किसी रहमत अली ने गढ़ा था जो इंगलैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय का छात्र था।
भारत का संविधान कैसा रहेगा इस बात को ध्यान में रखकर मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में कांग्रेस ने एक कमिटी बनाई थी जिसने एक रिपोर्ट प्रस्तुत की थी, जिसेे ‘नेहरू रिपोर्ट’ के नाम से जाना जाता है। इसके मुख्य बिन्दु थे राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, आदमी और औरतों को बराबर का अधिकार होगा, पृथक निर्वाचन मंडल को समाप्त किया जाएगा और विधायिका में मुसलमानों को एक तिहाई आरक्षण दिया जाएगा। यह सभी सेकुलर प्रावधान थे जिन्हें जिन्ना ने माना था फिर भी कांग्रेस ने बाद में नेहरू रिपोर्ट को नामंजूर कर दिया।
कुछ समय पहले लालकृष्ण आडवाणी ने जिन्ना को सेकुलर कहा था और देश में भूचाल आ गया था। मुहम्मद अली जिन्ना और लालकृष्ण आडवाणी में एक ही समानता है कि दोनों का जन्म कराची में हुआ था और शायद एक-दूसरे से मिले भी हों। इसी तरह जसवंत सिंह ने अपनी पुस्तक में पाकिस्तान बनने के लिए जिन्ना के साथ गांधी, नेहरू और पटेल को भी जिम्मेदार बताया हैं। इसके बाद जसवन्त सिंह की भी खूब आलोचना हुई थी। देशाभिमान के चलते हम निर्लिप्त भाव से समीक्षा नहीं कर सकते।
मुहम्मद अली जिन्ना ने 1915-16 में कांग्रेस पार्टी ज्वाइन की तो कांग्रेस का नेतृत्व मुख्यत: महात्मा गांधी के हाथों में था। गांधी जी शुद्ध सनातनी वैष्णव थे, रामराज्य की कल्पना लेकर चल रहे थे, रघुपति राघव राजा राम में विश्वास करते थे। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि ऐसा धर्मपरायण सनातनी हिन्दू सत्याग्रह करे खलीफा व्यवस्था को स्थापित करने के लिए। मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेस पार्टी ज्वाइन तो कर ली थी लेकिन उन्हें गांधी जी का तरीका बिल्कुल पसन्द नहीं था।
फरवरी 1920 में महात्मा गांधी की अगुवाई में कांग्रेस पार्टी ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर खिलाफत आन्दोलन में सत्याग्रही जुटा दिए थे। महात्मा गांधी ने मुसलमानों का साथ देते हुए खिलाफत आन्दोलन में प्रभावी भागीदारी निभाई थी। कांग्रेस के अन्दर जिन्ना के साथ ही बाल गंगाधर तिलक जैसे लोगों ने गांधी जी के फैसले का विरोध किया था। लेकिन नेहरू जैसे सेकुलरवादियों तक ने खिलाफत आन्दोलन का विरोध नहीं किया था। जिन्ना को राजनीति में सत्याग्रह का तरीका नापसन्द था।
मुसलमानों में गांधी जी के खिलाफत आन्दोलन की जिस सौहार्द की उम्मीद थी वह कभी नहीं मिला। बहुत लोग जानते होंगे कि इसी जमाने में स्वामी श्रद्धानन्द ने खिलाफत आन्दोलन में गांधी जी का साथ दिया था। शायद इतिहास में श्रद्धानन्द अकेले सन्त होंगे जिन्होंने जामा मस्जिद में वेद मंत्रों का उच्चारण किया था और भाषण दिया था। घटनाओं की बारीकियां तो इतिहासकार ही बता सकते हैं परन्तु यदि मस्जिद में वेदमंत्र और मन्दिर में नमाज़ पढऩे की परम्परा 1922 में बन गई होती तो भारत का नक्शा अलग होता। ऐसा होना नहीं था क्योंकि स्वामी श्रद्धानन्द को रशीद नाम के एक मुसलमान ने उनके घर जाकर मार दिया था।
जिन्ना का कहना था कि राजनीति भद्र्र पुरुषों का काम है हमें आजादी के लिए संवैधानिक तरीके से लड़ाई लडऩा चाहिए। शायद मोतीलाल नेहरू का भी यही विचार रहा हो परन्तु वह गांधी जी के विपरीत नहीं गए। गांधी जी के सत्याग्रह के विषय में जिन्ना का कहना था कि देश के अनपढ़ लेागों की भावनाओं में उबाल पैदा करना घातक हो सकता है। चौरी चौरा में 1922 में यह बात सामने आ भी गई थी और गांधी जी ने कुछ समय तक सत्याग्रह स्थगित रखा।
जिन्ना का कहना था कि गांधी जी का छद्म धार्मिक आन्दोलन है। उनका विरोध कट्टरपंथी मुसलमानों से भी उतना ही था जितना हिन्दुओं से, हालांकि बाद में विपरीत धारा में चल पड़े। यदि निष्पक्ष होकर देखा जाए तो आरम्भ में जिन्ना का रास्ता इस्लामिक न होकर सेकुलरवादी था जबकि गांधी जी का रास्ता वैष्णव मार्गी था। एक मुसलमान भला वैष्णव मार्ग को कैसे स्वीकार कर सकता था।
जिन्ना को अपमान का घूंट कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में पीना पड़ा जब उन्होंने खिलाफत आन्दोलन के लिए गांधी जी के सत्याग्रह के तरीके का विरोध करते हुए कहा था ‘मिस्टर गांधी’ आप तुरन्त सत्याग्रह के ज़रिए अनपढ़ हिन्दुस्तानियों को भडक़ाने का काम बन्द कर दीजिए। गांधी जी के अनुयायी जिन्ना पर भडक़ गए थे और चीख कर बोले ‘महात्मा गांधी’ बोलो। गांधी जी स्टेज पर मौजूद थे परन्तु बोले कुछ नहीं।
धीरे-धीरे जिन्ना का कांग्रेस से मोहभंग होता गया। उन्हें कांग्रेस में अपना भविष्य नहीं दिखा और अलगाव का नारा बुलन्द कर दिया। उन्होंने कहा गांधी की कांग्रेस में मेरे लिए कोई जगह नहीं है। जवाहर लाल नेहरू ने जिन्ना को कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया और अपनी जि़द के कारण उन्हें मुस्लिम लीग में ढकेल दिया। जिन्ना ने सेकुलर जामा उतार कर उसी मुस्लिम लीग का दामन थामा जिसे वह नापसन्द करते थे। इतिहास की बारीकियां तो इतिहासकार ही बता सकते हैं परन्तु बाद में जिन्ना ने फिरकापरस्ती की सभी हदें पार कर दीं।
मुस्लिम लीग के लखनऊ अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए 1938 में जिन्ना ने नेहरू को चुनौती दे डाली थी। उनका कहना था जवाहर लाल नेहरू कहते हैं भारत में दो ही पक्ष हैं ब्रिटिश और कांग्रेस लेकिन भारत में चार पक्ष हैं ब्रिटिश, कांग्रेस, रजवाड़े और मुस्लिम लीग। जिन्ना ने शायद पहली बार कहा था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग कौमें हैं और हिन्दू भारत में मुसलमान सुरक्षित नहीं रह सकते।
भारत के हिन्दू और मुसलमानों को एक धारा में लाने और अनेक धर्मों का सामंजस्य खोजने का प्रयास मुगल सम्राट अकबर ने किया था। वह दीन-ए-इलाही होता या कुछ और लेकिन यह समान नागरिक संहिता का आरम्भ हो सकता था। लेकिन यह आगे चला नहीं। जब तक समान नागरिक संहिता नहीं होगी सेकुलरवाद सफल हो ही नहीं सकता। मोतीलाल नेहरू की ‘नेहरू रिपोर्ट’ में इस दिशा में सोच उभर रहा था लेकिन कालान्तर में कांग्रेस के लोग जब प्रान्तीय सरकारें जीत गए तो सोचते रहे कि भारत के मुसलमान उनके पीछे चलते रहेंगे। जिन्ना को कुछ गिना ही नहीं।
सच यह है कि जिन्ना को मुस्लिम लीग की जरूरत पड़ गई और मुस्लिम लीग को ‘कायदे आज़म’ की। दोनों ने एक दूसरे का इस्तेमाल किया। पता नहीं कहां तक सही है लेकिन कहते है आखिरी दिनों में एक बार जिन्ना के कमरे से निकलते हुए लियाकत अली को यह कहते हुए सुना गया ‘बुड्ढे को अपने किए पर पछतावा हो रहा है’। दूसरी तरफ गांधी जी को खिलाफत आन्दोलन के माध्यम से मुस्लिम तुष्टीकरण का शायद ही अफसोस हुआ होगा ।
तीस के दशक में भारत के मुसलमान जिन्ना के साथ नहीं थे और 1937 के चुनावों में मुस्लिम सीटों पर भी जिन्ना को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन प्रान्तीय सरकारों से जब कांग्रेस ने अपना त्यागपत्र दे दिया तो जिन्ना को सुनहरा मौका मिल गया, अंग्रेजों से मेलजोल बढ़ाने और मुसलमानों में अपनी पकड़ मजबूत करने का। कांग्रेेस का उत्तर पश्चिमी भारत के मुसलमानों पर से पकड़ ढीली हो गई और सेकुलरवाद को बचाने का मौका चला गया। अलगाववादी ताकतें मजबूत होती गईं। विभाजन बचाने के लिए फ्रंटियर गांधी कहे जाने वाले खान साहब ने पूरी ताकत नहीं लगाई।
सेकुलरवाद छोडक़र जब जिन्ना द्विराष्ट्रवाद और पाकिस्तान बनाने की वकालत कर रहे थे तो भी गांधी जी और नेहरू ने इसका विरोध नहीं किया, कांग्रेस ने एक भी प्रस्ताव अलगाववाद के खिलाफ पास नहीं किया। आखिरकार जब गांधी जी ने जिन्ना को प्रधानमंत्री तक बनाने का प्रस्ताव कर दिया तो बहुत देर हो चुकी थी।
सच्चाई यह है कि जब कांग्रेस ने जीती बाजी हार दी और प्रान्तीय सरकारों से इस्तीफा दे दिया तो अंग्रेजों का रहा सहा विश्वास भी खो दिया। जिन्ना का उत्साह बढ़ गया और 1939 में डेलिवरेन्स डे का एलान कर दिया जिसमें बेहद खून-खराबा हुआ। अंग्रेजों को जिन्ना का समर्थन चाहिए था और जिन्ना को अंग्रेजों का। मुस्लिम लीग और अंग्रेजों की दूरियां घटती गईं और भारत विभाजन की राह साफ होती गई।
मुहम्मद अली जिन्ना और जवाहर लाल नेहरू दोनों ही तेज दिमाग के नेता थे, उन्हें किसी दूसरे का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। जिन्ना के साथ एक और कठिनाई थी, उनके पास समय बहुत कम था। उनके फेफड़ों में टीबी या कैंसर था जिसे बम्बई के चेस्ट स्पेशलिस्ट डाक्टर पटेल और स्वयं जिन्ना के अलावा कोई नहीं जानता था। वह बहुत जल्दी में थे, बेताब थे। उस बेताबी में जिन्ना ने अपनी तकरीरों से मुसलमानों में वही उन्माद पैदा किया जिसका इल्जाम गांधी जी पर लगाते थे।
जिन्ना को समझने के लिए उस समय के चश्मदीद पत्रकार दुर्गादास की पुस्तक ‘ इंडिया फ्राम कजऱ्न टु नेहरू एण्ड आफ्टर’ और नरेन्द्र सिंह सरीला की पुस्तक ‘द अन्टोल्ड स्टोरी आफ़ इंडियाज़ पार्टीशन’ सहायक हो सकती हैं। मौलाना अबुल कलाम आजाद की ‘इंडिया विनस फ्रीडम’ और पियर एलियट ऐण्ड कॉलिंस की ‘फ्रीडम ऐट मिड नाइट’ भी सहायक होंगी। हम जिन्ना को सेकुलर नहीं कह सकते क्योंकि उनके जीवन का अन्तिम फैसला सेकुलर नहीं था। पटेल और नेहरू ने गांधी जी की बात नहीं मानी और जिन्ना को सम्पूर्ण भारत का प्रधानमंत्री नहीं बनाया अन्यथा पूरे भारत की वही दशा होती जो आज पाकिस्तान की है।
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