डॉ. दीपक आचार्य
विज्ञान की शुरुआत ही परंपरागत ज्ञान से होती है और सही मायनों में परंपरागत ज्ञान, आधुनिक विज्ञान से कोसो आगे है। विज्ञान की समझ आपको सिखाती है कि टमाटर एक फल है जबकि परंपरागत ज्ञान बताता है कि टमाटर के फलों को सलाद के तौर पर इस्तेमाल ना किया जाए। ज्ञान परंपरागत होता है, पुराना होता है जबकि विज्ञान विकास की तरह हर समय नया और अनोखा, फिर भी पिछड़ा हुआ सा, वनवासियों के बीच रहते हुए कम से कम इतना तो सीख पाया हूं। वनवासियों का ज्ञान शब्दों के जरिए एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक तैरता हुआ आगे बढ़ा चला आ रहा है। पर्यावरण और प्रकृति के सजग रक्षक सही मायने में वनवासी ही हैं।
वनवासियों की समझ और ज्ञान को आधुनिकता की धूप से एक हद तक दूर रखना ही आवश्यक है और आवश्यकता यह भी है कि इनके इस ज्ञान का संकलन समय रहते किया जाए। आधुनिकता जैसे भ्रम ने हमारे समाज में जिस कदर पैर पसारने शुरू किए हैं, ना सिर्फ हिन्दुस्तान बल्कि सारी दुनिया के वनवासी एक अनकहे और अनजाने से खतरे के चौराहे पर हैं, जहां इनके विलुप्त तक हो जाने की गुंजाइश है। वनवासियों के वनों और प्रकृति से दूर जाने या खो जाने से आदिकाल से सुरक्षित ज्ञान का भंडारण जैसे खत्म ही हो जाएगा। सारी दुनिया के पर्यावरणविद पर्यावरण संरक्षण को लेकर बेहद चिंता करते रहते हैं, शहरों में रैलियां निकाली जाती हैं और ग्लोबल वार्मिंग जैसे मुद्दों पर बहस आदि का आयोजन भी होता रहता है, मगर शायद ही कहीं पर्यावरण के सच्चे रक्षको यानी वनवासियों के लिए कोई वाकई फिक्रमंद होगा।
हजारों वर्षों से वनवासियों ने वनों के करीब रहते हुए जीवन जीने की सरलता के लिए आसान तरीकों, नव प्रवर्तनों और कलाओं को अपनाया है। आदिवासियों ने मरुस्थल में खेती करने के तरीके खोज निकाले, तो कहीं जल निमग्न क्षेत्रों में भी अपने भोजन के लिए अन्न व्यवस्था कर ली। पर्यावरण को नुकसान पहुंचाए बगैर वनवासियों ने अपने जीवन को हमेशा से सरल और आसान बनाया है।
जब से वनवासी विस्तार और लोगों तक तथाकथित आधुनिक विकास ने अपनी पहुंच बनानी शुरू की है, तब से वनवासी परंपराओं का विघटन भी शुरू हो गया है। सदियां इस बात की गवाह है कि जब-जब किसी बाहरी सोच या रहन-सहन ने किसी वनवासी क्षेत्र या समुदाय के लोगों के बीच प्रवेश किया है, इनकी संस्कृति पर इसका सीधा असर हुआ है। विकास के नाम पर वनवासियों की जमीनें छीनी गई, बांध बनाने के नाम पर इन्हें विस्थापित किया गया और दुर्भाग्य का बात है कि ये सारे विकास के प्रयास वनवासी विकास के नाम पर किए जाते रहे हैं लेकिन वास्तव में ये सब कुछ हम बाहरी दुनिया के लोगों के हित के लिए होता है ना कि वनवासियों के लिए।
जंगल में सदियों से रहने वाले वनवासी जंगल के पशुओं के लिए खतरा नहीं हो सकते, जानवरों के संरक्षण, जंगल को बचाने के नाम पर जंगल में कूच करने वाली एजेंसियां जंगल के लिए ज्यादा बड़ा खतरा हैं। जब जंगलों में रहने वाले लोग बाहरी दुनिया के लोगों से मिलते हैं तो बाहरी चमक-दमक देखकर वनवासियों के युवा बाहरी दुनिया को और जानना, समझना चाहते हैं। उन्हें अपनी संस्कृति, अपने लोगों की तुलना में बाहरी दुनिया ज्यादा मोहक लगती है और यहीं से पलायन की शुरू होती है। अपने गाँव के बुजुर्गों और उनके बताए ज्ञान को एक कोने में रखकर युवा घर से दूर होने लगते हैं और यहीं से पारंपरिक ज्ञान के पतन की शुरुआत भी होती है। मध्यप्रदेश के पातालकोट घाटी की ही बात करें तो मुद्दे की गंभीरता समझ आने लगती है। लगभग 75 स्के.किमी के दायरे में बसी इस घाटी को बाहरी दुनिया की नज़र 60 के दशक तक नहीं लगी थी। प्रकृति की गोद में, 3000 फीट गहरी बसी घाटी में, भारिया और गोंड आदिवासी रहते हैं।
बाहरी दुनिया से दूर ये आदिवासी हर्रा और बहेड़ा जैसी वनस्पतियों को लेकर प्राकृतिक नमक बनाया करते थे, पारंपरिक शराब, चाय, पेय पदार्थों से लेकर सारा खान-पान सामान, यहीं पाई जाने वाली वनस्पतियों से तैयार किया जाता था। करीब 70 के दशक से हमारे तथाकथित आधुनिक समाज के लोगों ने जैसे ही घाटी में कदम रखा, स्थानीय आदिवासियों के बीच अंग्रेजी शराब, बाजारू नमक से लेकर सीडी प्लेयर और अब डिश टीवी तक पहुंच गया है। घाटी के नौजवानों का आकर्षण बाहर की दुनिया की तरफ होता चला गया।
सरकार भी रोजगारोन्मुखी कार्यक्रमों के चलते इकोटुरिज़्म जैसे नुस्खों का इस्तमाल करने लगी, लेकिन यह बात मेरी समझ से परे है कि आखिर पैरा-सायक्लिंग, पैरा-ग्लायडिंग, एड्वेंचर स्पोर्ट्स के नाम पर पातालकोट घाटी के लोगों को रोजगार कितना मिलेगा और कैसे? पेनन आईलैंड में भी सरकारी आर्थिक योजनाओं के चलते एडवेंचर टूरिज़्म जैसे कार्यक्रम संचालित किए गए ताकि बाहरी लोगों के आने से यहां रहने वाले आदिवासियों के लिए आय के नए जरिए बनने शुरू हो पाएं। सरकार की योजना आर्थिक विकास के नाम पर कुछ हद तक सफल जरूर हुई लेकिन इस छोटी सफलता के पीछे जो नुकसान हुआ, उसका आकलन कर पाना भी मुश्किल हुआ।
पातालकोट में भी आधुनिकता और डिजिटलीकरण की धूप पहुंचने लगी है। पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हुई है, पलायन तेज हो गया है और देखते ही देखते ये घाटी और यहां की सभ्यता भी खत्म हो जाएगी। आदिवासी गाँवों से निकलकर जब शहरों तक जाते हैं, गाँवों की शिक्षा को भूल पहले शहरीकरण में खुद को ढाल लेते हैं और इस तरह चलता रहा तो गाँव के बुजुर्गों का ज्ञान बुजुर्गों तक सीमित रहेगा और एक समय आने पर सदा के लिए खो भी जाएगा।
(लेखक हर्बल विषयों के जानकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं।)