लोक संस्कृति में छिपा है वनीकरण का स्थायी समाधान

वन संरक्षण के प्रयासों में पारंपरिक ज्ञान और लोक संस्कृति से जुड़े तरीकों का विशेष महत्व है। लोक संस्कृति में निहित वनीकरण के सूत्र अक्सर अधिक प्रभावी और स्थायी होते हैं।
Forest Conservation

वनों को बचाने में हमेशा से लोक संस्कृतियों का अहम योगदान रहा है, तभी तो सदियों से जंगल बचे हुए हैं। 

पेड़ और वनस्पति भोजन उत्पादन में अहम भूमिका निभाते हैं। भोजन उत्पादन की प्रक्रिया परागण करने वाले कीटों, मिट्टी की उर्वरता, जल स्रोतों और जलवायु संतुलन पर निर्भर करती है, और ये सभी कारक वनों और जैव विविधता से जुड़े हुए हैं। इसीलिए वन संरक्षण को सिर्फ वृक्षारोपण तक सीमित नहीं किया जा सकता, बल्कि यह एक संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र की देखभाल का मसला है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 28 नवंबर 2013 को विश्व वानिकी दिवस मनाने की घोषणा की, जिसका उद्देश्य वनों के महत्व के बारे में जागरूकता बढ़ाना और इनके संरक्षण के प्रति जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करना है। इस दिन का मकसद केवल पेड़ लगाने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पारिस्थितिकी तंत्र की संपूर्णता से भी जुड़ा है। इस वर्ष की थीम ‘वन और भोजन’ थी, जो यह बताती है कि भोजन सिर्फ हमारी थाली तक सीमित नहीं है, बल्कि यह हमारे पर्यावरण, वनों और जैव विविधता पर भी निर्भर करता है।

वनीकरण के मौजूदा प्रयासों की चुनौतियाँ

वनीकरण कार्यक्रमों में आजकल ज्यादातर ध्यान वृक्षारोपण पर दिया जाता है। प्रशासनिक और तकनीकी दृष्टिकोण से इसे ही वनीकरण का मुख्य तरीका मान लिया गया है, जिसमें वृक्षों के जीवित रहने के प्रतिशत (Survival Rate) को सफलता का मापदंड माना जाता है। यह तरीका केवल आंकड़ों की पूर्ति के लिए सही हो सकता है, लेकिन यह पर्यावरण के संपूर्ण पुनर्स्थापन के लिए पर्याप्त नहीं है। उदाहरण के लिए, कई बार वनीकरण अभियानों में विदेशी और आक्रामक प्रजातियों के पौधे लगाए जाते हैं, जैसे Prosopis juliflora (जूली फ्लोरा) और Acacia tortilis (बबूल)। ये प्रजातियाँ स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र के लिए नुकसानदायक साबित हो रही हैं।

राजस्थान जैसे मरुस्थलीय क्षेत्रों में इसके दुष्प्रभाव साफ देखे जा सकते हैं। पारंपरिक रूप से राजस्थान के ओरण (सामुदायिक वन) और गोचर (चरागाह भूमि) स्थानीय पौधों और जीव-जंतुओं के लिए एक सुरक्षित जगह हुआ करते थे, लेकिन अब इन्हें विदेशी पौधों से भर दिया गया है। इससे न केवल स्थानीय घास प्रजातियाँ विलुप्त हो रही हैं, बल्कि वन्यजीवों और परागण करने वाले कीटों का प्राकृतिक आवास भी नष्ट हो रहा है। वन संरक्षण की प्रशासनिक योजनाओं में इन पारिस्थितिक और सांस्कृतिक जरूरतों की अनदेखी की जा रही है, जिससे वन प्रबंधन में एकरूपता और कृत्रिमता बढ़ गई है।

पारंपरिक ज्ञान और स्थानीय संस्कृति का योगदान

वन संरक्षण के प्रयासों में पारंपरिक ज्ञान और लोक संस्कृति से जुड़े तरीकों का विशेष महत्व है। लोक संस्कृति में निहित वनीकरण के सूत्र अक्सर अधिक प्रभावी और स्थायी होते हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान के बीकानेर जिले में दो अलग-अलग दृष्टिकोण देखने को मिलते हैं। पहला दृष्टिकोण वन विभाग का है, जो कि एक प्रादेशिक मॉडल पर आधारित है और जिसमें वृक्षारोपण को ही मुख्य उपाय माना गया है।

वन विभाग का यह दृष्टिकोण मरुस्थलीय क्षेत्रों में अक्सर असफल हो जाता है, क्योंकि यहाँ की स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार वनीकरण के स्थानीय मॉडल नहीं बनाए गए हैं। रेगिस्तानी क्षेत्रों में वृक्षारोपण के बजाय स्थानीय घासों और पौधों का संरक्षण अधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि ये पौधे कम पानी में भी जीवित रहते हैं और पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित बनाए रखते हैं।

दूसरा दृष्टिकोण जसनाथी समुदाय का है, जिन्होंने अपनी पारंपरिक वनीकरण पद्धतियों का इस्तेमाल किया। उन्होंने बीकानेर जिले के डाबला तालाब की 84 हेक्टेयर भूमि पर स्थानीय पौधों और घासों का रोपण किया, जो पहले अवैध खनन और पेड़ों की कटाई से पूरी तरह बर्बाद हो चुकी थी। यहाँ के पौधारोपण के साथ-साथ जल संरक्षण को भी प्राथमिकता दी गई, और परिणामस्वरूप तीन वर्षों में ही वन्यजीवों की वापसी, जल स्रोतों का पुनर्जीवन, और समृद्ध पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली हुई।

वनीकरण नीतियों में लोक संस्कृति की ज़रूरत 

वन संरक्षण की मौजूदा नीतियों में पारिस्थितिकी तंत्र की स्थानीय जरूरतों और पारंपरिक ज्ञान को नजरअंदाज करना एक बड़ी चुनौती है। वनों की वास्तविक सुरक्षा और बहाली के लिए हमें वन संरक्षण में लोक संस्कृति को जगह देनी होगी। राजस्थान में वनों की पारंपरिक धारणाएँ, जैसे ओरण संस्कृति, जसनाथी और बिश्नोई दर्शन, हमें वनों के स्थायी संरक्षण के सही रास्ते दिखाते हैं।

सांस्कृतिक दृष्टिकोण ‘सामूहिक चेतना’ के सिद्धांत पर आधारित होता है, जिसमें समाज के साझा विश्वास और मूल्यों की शक्ति पर जोर दिया जाता है। यह समुदायों को प्रेरित करता है कि वे अपने पर्यावरण की सुरक्षा की जिम्मेदारी खुद उठाएँ और वनों को एक पारिवारिक उत्तरदायित्व के रूप में देखें। इसीलिए फैमिलियल फॉरेस्ट्री की अवधारणा एक महत्वपूर्ण उपाय हो सकती है, जिसमें लोग अपने पर्यावरण के साथ भावनात्मक और नैतिक जुड़ाव महसूस करें।

वन संरक्षण और वनीकरण नीतियों में लोक संस्कृति और पारंपरिक ज्ञान का समावेश अत्यंत आवश्यक है। जब तक वनीकरण नीतियों में सामुदायिक भागीदारी और स्थानीय सांस्कृतिक दृष्टिकोण को नहीं अपनाया जाएगा, तब तक पर्यावरणीय स्थिरता का सपना अधूरा ही रहेगा। वनों की वास्तविक भलाई के लिए प्रशासनिक दृष्टिकोण से हटकर पारंपरिक और सामुदायिक उपायों को अपनाने की जरूरत है। लोक संस्कृति में निहित वनीकरण के सूत्र हमें वनों के संरक्षण की स्थायी राह दिखाते हैं।

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