मुझे यह कहने में कतई संकोच नहीं है कि विकास के मॉडल में ग्रामीण भारत और कृषि से काफी समय से सौतेले बच्चे की तरह व्यवहार किया गया है। कृषि क्षेत्र में लगे मजदूरों को कृषि से बाहर निकाल कर बड़े शहरों में लाने के लिए शहरी अर्थशास्त्रियों और बड़े देशी-विदेशी विश्वविद्यालय से पढ़कर आए बाबूओं ने एक मॉडल स्थापित किया, जिसे देश के पॉलिसी मेकरों ने आगे बढ़ाया। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि कृषि से निकाल कर शहरों में लाए जा रहे लोगों के लिए इतना ज्यादा रोजगार कहां से लाया जाएगा।
कृषि से निकले लोगों को पहले से अत्यधिक भार सह रहे शहरों में कैसे फिट किया जाएगा। मेरे तर्क का सबसे बड़ा उदाहरण देखिए, मोदी सरकार का पहला कार्यकाल खत्म होने के बाद नेशनल स्किल डेवलपमेंट कांउसिल ने अनुमान लगाया था कि 2022 में 18 प्रतिशत भारतीयों को ही कृषि से रोजगार मिलेगा। 2014 में कृषि में मौजूद 56% लोगों की संख्या 2017 तक कम करके 38 प्रतिशत तक लाने का लक्ष्य था। मेरे अनुसार यह आकंड़ा अभी भी 38 प्रतिशत के कहीं नजदीक नहीं दिखता, यहां तक भी पहुंचने में 2022 से भी ज्यादा समय लगेगा।
प्रोफेसर रमेश चंद नीति आयोग के सदस्य हैं साथ ही एक जाने माने कृषि विशेषज्ञ हैं। 2017 में उनका एक अध्ययन सामने आया था। उस अध्ययन में उन्होंने भाग दर भाग बताया कि अगर किसान गैर कृषि और सब्सिडरी से जुड़ी क्रियाओं पर ध्यान दें तो 2022 तक अपनी आय दोगुनी कर सकते हैं। अध्ययन के अनुसार खेती करने वालों की संख्या लगातार घट रही है। 2004-05 से 2011-12 के मुकाबले 2015 –2016 में किसानों की संख्या 13.4 प्रतिशत घटी है।
इस मामले में प्रधानमंत्री के कथन को रेखांकित करते हुए वे कहते हैं कि इससे कृषि से होने वाली आय को 13.4 प्रतिशत कम किसानों में बांटी जाएगी। जितने कम किसानों में किसानों की आय बांटी जाएगी उतनी उनकी आय बढ़ेगी। लेकिन किसानों को कृषि से बाहर निकालना, उनकी संख्या कम करना और 2022 से 2023 तक किसानों की आय दोगुनी कर देना कागजों पर यह बिल्कुल सही दिखता है, लेकिन इतने सारे किसान कहां जाएंगे और उनका परिवार क्या खाएगा इन सवालों का जवाब अभी तक सामने नहीं आया है।
नवीनतम कृषि जनगणना 2015-16 के अनुसार देश में खेतिहर जमीन का औसत आकार 1.08 हेक्टेयर है और यह दिन-प्रतिदिन कम हो रहा है। इसके इतर देश में खेतिहर जमीनों की संख्या बढ़ रही है। 2010-11 से 2015-16 में खेतिहर जमीनों की कुल संख्या बढ़कर 138 मिलियन से बढ़कर 146 मिलियन हो गई थी, मतलब 5.33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। खेतिहर जमीन का औसत आकार प्रतिदिन कम हो रहा है, उसके टूकड़े हो रहे हैं। इससे छोटे और सीमांत किसानों (0-2 हेक्टेयर वाले) के लिए खेती एक मुश्किल विकल्प साबित हो रहा है।
इन किसानों का 2015-16 के कुल कृषि आय में 86.21 प्रतिशत तो 2010-16 में 84.9 प्रतिशत योगदान था। इन सब बातों का यह मतलब नहीं है कि हर कोई खेती छोड़ शहरों की तरफ पलायन कर रहा है। हां लेकिन पहले से ज्यादा तेजी से शहरों की ओर पलायन हो रहा है और उनकी क्षमताएं शहरों में खपाई जा रही हैं और शहरी लोगों को सस्ता श्रम उपलब्ध कराया जा रहा है। सबसे बेहतर तरीका होता कि सरकार एमएसएमई ( MSME)के आसपास ग्रामीण समूहों का निर्माण करती, जिससे ग्रामीणों को रोजगार मिलता और यह सुनिश्चित होता कि खेती में मौजूद लोगों को भी न्यूनतम मासिक आय प्राप्त हो।
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किसानों को सीधे आय देने का कार्य प्रधानमंत्री किसान योजना की तहत शुरू हो चुका है। अब बस जरूरत है इस योजना को थोड़ा और रफ्तार देने की। मीडिया में आई खबरों के अनुसार राज्यों ने अभी तक 7.4 करोड़ किसानों के आंकड़े केंद्र को सौंपे थे, जिसमें से 5.5 करोड़ किसानों को केंद्र की ओर से वैधता दे दी गई है। जो अभी बचे हैं वह वैधता के प्रकिया से गुजर रहे हैं। किसानों की तरफ से आए फीडबैक के अनुसार किसानों को प्रधानमंत्री किसान योजना की तहत मिलने वाले 6 हजार रुपए को बढ़ाने की जरूरत है। इसके अलावा केंद्र को एक मजबूत खरीद तंत्र बनाने की भी जरूरत है।
प्रधानमंत्री अन्नदाता आय अभियान की तहत राज्य सरकारों की तरफ से खरीद के पारंपरिक तंत्र पर फिर से लाया जा सकता है। किसानों से एमएसपी की कीमतों पर सीधे अनाज खरीदने या फिर मंडी की कीमतों और एमएसपी के अंतर का भी किसानों को भूगतान करने या पायलट प्रोजेक्ट की तहत निजी क्षेत्र के लोगों को खरीद तंत्र में शामिल करने की योजना पूरी तरह विफल रही। पिछले वर्षों में पूरे देश में एक भी ऐसी मंडी नहीं थी जहां राज्य सरकार की ओर से निर्धारित किए गए एमएसपी से मंडी में अनाजों का दाम कम रहा हो। इसे दूर करने के लिए राज्य सरकार को और केंद्र सरकार मिलकर काम करना होगा। केंद्र सरकार इच्छाशक्ति दिखाए और राज्य सरकार क्रियान्वन की जिम्मेदारी ले तभी इसे सही तरह से धरातल पर लाया जा सकता है।
सरकार को पूरी तरह सुनिश्चित करना चाहिए कि किसानों को उपभोक्ताओं की तरफ से उनके कुल उत्पादन का मूल्य जरूर मिले जिसके वे हकदार हैं। उससे भी जरूरी यह है कि कृषि बाजारों की संख्या बढ़ने के बाद किसानों को उनके फसलों का सही मूल्य जरूर मिले। 31 मार्च 2017 तक देश में 6630 कृषि उत्पादक कमिटी है। हर एपीएमसी कमिटी 496 वर्ग किलोमीटर को कवर करता है। कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा के अनुसार देश को 4200 मंडियो की जरूरत है यानि हर पांच किलोमीटर पर एक मंडी। 2018 की बजट में सरकार की तरफ से 22000 ग्रामीण हाटों को विकसित करने और अपग्रेड करके ग्रामीण कृषि बाजार में बदलने का फैसला लिया गया है। कृषि बाजारों को सीधे E-NAM से लिंक कराया जाएगा जिससे किसानों को सीधे अपना अनाज खरीददारों और बड़े खरीददारों को बेचने की सुविधा मिलेगा।
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इस योजना को लेकर सबसे अच्छी खबर यह है कि इसके घोषणा के ठीक एक साल बाद फरवरी 2019 में नाबार्ड के सहयोग से इसके नाम पर सरकार की तरफ से 2000 हजार करोड़ रुपए का फंड आवंटित किया गया है। इस फंड से मार्केट में जरूरी सुविधाओं के लिए सस्ते दरों पर लोन लिया जा सकता है। इसको लेकर बूरी खबर यह है कि ग्रामीण कृषि बाजारों को अपग्रेड करने की जो गति है वह काफी धीमी है। ग्रामीण विकास मंत्रालय के अनुसार 24 जून 2019 तक 329 ग्रामीण हाट के काम पूरे हो चुके हैं और 532 हाट के अभी भी काम चल रहे हैं। सरकार को इन ग्रामीण कृषि बाजारों पर राज्य सरकार सरकार के साथ मिलकर काम करना चाहिए। इसके अलावा यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि इसका क्रियान्वन जल्दी हो और यह अपनी पूरी क्षमता से काम करे। ऐसा न हो कि यह योजना किसी राजनीतिक दांवपेच में फंस जाए और जिस उद्देश्य के लिए इसे लाया गया वही पूरा न हो।
(लेखक जाने माने कृषि विशेषज्ञ हैं, ये उनके निजी विचार है)