क्या इसी राह से किसानों की आमदनी होगी दोगुनी?

इसके बाद मध्य प्रदेश में राजनीति भी गरमा गयी, लेकिन यह घटना उस राज्य में हुई है, जहां मंदसौर जैसा किसानों का विशाल आंदोलन हुआ।
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हाल में सुर्खियों में यह खबर आई कि मध्य प्रदेश के रतलाम मंडी में एक किसान अपना सात कुंतल लहसुन इस नाते छोड़ कर चला गया कि उसे खरीदार नहीं मिले। लहसुन एक रुपए और कहीं-कहीं तो पचास पैसे किलो तक पहुंच गया। नीमच मंडी में लहसुन दो रुपए किलो बिका तो मंदसौर की शामगढ़ मंडी में एक रुपए किलो।
इसके बाद मध्य प्रदेश में राजनीति भी गरमा गयी, लेकिन यह घटना उस राज्य में हुई है, जहां मंदसौर जैसा किसानों का विशाल आंदोलन हुआ। उस दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यहां तक कहा था कि भांवातर योजना से किसानों की मदद जारी रहेगी, चाहे कितना भी पैसा व्यय हो।

हालांकि इस मामले को लेकर वर्ष 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की मुहिम चला रहे केंद्रीय कृषि मंत्रालय ने टिप्पणी नहीं की, न ही कोई पहल की गयी। इस साल की शुरुआत में जो लहसुन 60 से 70 रुपए किलो बिक रहा था, वह किसान की फसल आने के बाद एक रुपए तक पहुंचेगा तो किसानों पर कितना बड़ा वज्रपात होगा, इसका अंदाजा उन किसानों की मनोदशा से ही लगाया जा सकता है।

लहसुन वैसे तो देश के कई हिस्सों में होता है, लेकिन मध्य प्रदेश, राजस्थान और गुजरात खास है। उत्तर प्रदेश में मैनपुरी लहसुन की पैदावार में अग्रणी है। मसाले और दवा में उपयोग के अलावा हमारा लहसुन कई देशों में जाता है। मध्य प्रदेश में खास तौर पर मालवा के इंदौर, धार, जावरा, रतलाम, नीमच, मंदसौर आदि जिले लहसुन की खेती में देश में अग्रणी हैं। यहां पर इसका करीब दो हजार करोड़ रुपए का कारोबार होता है।
इंदौर मंडी में ही 300 करोड़ रुपए का लहसुन बिकता है। प्याज, लहसुन और आलू के लिए गठित कृषि निर्यात परिक्षेत्र में भी उज्जैन, इंदौर, धार, रतलाम, मंदसौर, नीमच, देवास और शाजापुर जिला शामिल है। एक बीघा लहसुन की खेती पर 20 से 25,000 रुपए तक लागत आती है और 15 कुंतल तक उपज होती है। कई बार किसानों को लहसुन की खेती से फायदा हुआ है, लेकिन बीते सालों से लगातार बिगड़ते गणित से उनका अर्थतंत्र डगमगा रहा है।


मालवा अंचल के ही निवासी वरिष्ठ सांसद डॉ. सत्यनारायण जटिया ने राज्य सभा में 6 अप्रैल, 2018 को कृषि मंत्री से प्याज, आलू और लहसुन के एमएसपी तय करने के बाबत एक सवाल पूछा। कृषि राज्य मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने वही घिसा पिटा जवाब दिया जो कृषि मंत्रालय दशकों से देते हुए लाखों पन्ने काले कर चुका है। उनका कहना था कि इन फसलों की एमएसपी तय नहीं होती, लेकिन बंपर फसल और दाम उत्पादन लागत से नीचे चले जाने पर राज्य सरकारों के अनुरोध पर बाजार हस्तक्षेप योजना क्रियान्वित करती है। जमीनी हकीकत यह है कि बाजार हस्तक्षेप योजना कुछ छोटे राज्यों को छोड़ कर एकदम विफल रही है। और कई जगहों पर इसका फायदा किसानों की जगह कारोबारियों ने उठाया है। 
मालवा के किसानों ने इस बार बड़ी उम्मीद के साथ लहसुन की बंपर पैदावार की। लेकिन दाम जब एक रुपये किलो तक पहुंच गए तो कई मंडियों में बवाल हुआ। तीन साल पहले जो लहसुन 150 रुपए से अधिक में बिका वह एक रुपए में भी न पूछा जाये तो किसानों की हताशा स्वाभाविक है। लेकिन इसकी वजह क्या थी और क्या सरकार ने कुछ कदम उठाया ?
मंडियों के दलालों का तर्क है कि बाजार में नकदी की कमी और जीएसटी इसके पीछे जिम्मेदार है। मालवा के लहसुन की असली खपत गुजरात के महुआ में होती है, जहां देश में सबसे ज्यादा लहसुन प्रोसेसिंग प्लांट हैं। लेकिन आर्थिक मंदी के कारण वे बंदी के कगार पर हैं। मध्य प्रदेश और गुजरात सरकार ने इस तरफ एकदम ध्यान नहीं दिया और इसमें बहुत से कारोबारियों का काफी पैसा फंस गया।
लहसुन के साथ टमाटर की कीमतें भी इस दफा बहुत नीचे गिर गयीं। बीते साल मध्य प्रदेश सरकार ने दावा किया कि अब सब्जी भाजी का भी समर्थन मूल्य तय होगा और आलू 15 और हरी मिर्च 50 रुपए से कम में नहीं बिकेगी। लेकिन योजना जमीन पर नहीं उतरी। हां, भावांतर योजना जरूर कुछ कारगर रही। लेकिन इसके बारे में कहा जाता है कि यह किसानों से अधिक कारोबारियों के लिए उपयोगी रही।

औने-पौने दामों में लहसुन बेचने की घटना के राजनीतिक तौर पर तूल पकड़ने के बाद दावा किया गया कि लहसुन किसी भी भाव बिके भावांतर योजना के तहत सरकार किसानों के अकाउंट में 800 रुपए डालेगी। शिवराज सरकार ने भावांतर योजना के तहत लहसुन का दाम 3200 रुपए प्रति कुंतल तय किया, लेकिन जमीन पर इसका खास असर नहीं दिखा।

भावांतर योजना के पहले जो लहसुन दो से ढाई हजार रुपए कुंतल पर चल रहा था, वह 1700 से 200 रुपए के बीच आ गया। सही भाव नहीं मिलने पर तमाम किसान मंडियों में लहसुन छोड़ कर चले गए। उज्जैन मंडी में इसका दाम पचास पैसे किलो पहुंच गया तो किसानों ने भारी प्रदर्शन किया और कहा कि ऐसी दशा में वे बेचने की जगह लहसुन फेंकना पसंद करेगे।
मध्य प्रदेश में मालवा इलाके में लहसुन की खरीद 15 अप्रैल से शुरू हो जाती है। लेकिन मौजूदा तस्वीर देखने पर यही लगता है कि सरकार ने इस दिशा में किसानों की मदद के लिए कोई तैयारी नहीं की। जबकि सरकार को पता है कि पिछले कुछ सालों से लहसुन किसानों का दर्द बढ़ता रहा है। वाजिब दाम न मिलने से उनका गणित बिगड़ रहा है और इससे बचाने के लिए इस क्षेत्र में प्रोसेसिंग सुविधाओं का कोई विकास नहीं किया गया। उलटे काफी मात्रा में ताईवानी और चीनी लहसुन की बाजार में मौजूदगी फसल के पहले गणित और बिगाड़ रही है।
हाल में एक मुलाकात में धार के किसान विकास कामगार ने कहा कि लहसुन की फसल जैसे ही तैयार होती है तो दाम घटने लगते हैं। हम लोगों को अब लहसुन की खेती में भारी घाटा हो रहा है। खेती की लागत और मजदूरी की दरें बढ़ती जा रही हैं, लेकिन महू के किसान सुरेश तंवर भी कहते हैं कि लहसुन की खेती की लागत हर साल बढ़ती जा रही है लेकिन भाव का कोई हिसाब नहीं। बुवाई से लेकर बीज और दवाई तक में लगातार खर्च बढ़ रहा है, लेकिन हमें बाजार में कितना दाम मिलेगा, यह पता नहीं। एक बीघे में सात से 10-12 कुंतल तक लहसुन पैदा होता है। अगर इसका रेट सात से आठ हजार रुपए कुंतल मिल जाये तो किसान के लिए राहत मिलेगी अन्यथा उसकी स्थिति खराब ही होनी है।


भारतीय किसान संघ के मंत्री महेश चौधरी का कहना है कि मालवा इलाके के किसान बहुत मेहनती हैं और वे रिकार्ड उत्पादन करते हैं। लेकिन उनके पास कृषि उत्पादों को रखने की व्यवस्था नही है। इस नाते न चाहते हुए भी उनको उत्पादन के बाद अपना माल मंडी में ले जाना पड़ता है। मंडियों में अधिक माल पहुंचता है तो व्यापारियों या दलालों का दल मिल कर दाम घटा देते हैं। आलू, टमाटर, लहसुन और प्याज की जरुरत सबको पड़ती है, लेकिन अगर किसानों को पैसा नही मिलेगा तो उत्पादन गिरगा। ऐसे में इन उत्पादों को विदेशों से आयात करना पड़ेगा। ऐसी स्थिति लाने से बेहतर है कि किसानों को वाजिब दाम का इंतजाम किया जाये और इसके लिए ठोस तंत्र तैयार किया जाये। 
भारतीय किसान संघ की महू शाखा के अध्यक्ष मोहन पांडेय भी मानते हैं कि इन फसलों के मूल्य निर्धारण की आवश्यकता है। लेकिन ऐसा करने की जगह अगर सरकार ताईवान से लहसुन मंगाती रहेगी और स्वदेशी की बात भी करेगी तो किसान कहां खड़ा होगा। भारत जैसे देश में खाने की चीज़ों को विदेश से मंगाने का क्या औचित्य है।
मालवा के जाने माने किसान नेता केदार सिरोही का कहना है कि मालवा एक समय में अपनी मजबूत कृषि अर्थव्यवस्था के लिए विख्यात रहा है, लेकिन यहां आज खेती घाटे का सौदा बन गयी है। कपास मिर्च, टमाटर, आलू, प्याज और लहसुन सब पर संकट है। मध्य प्रदेश सरकार मंडियों से भारी कमाई करती है, लेकिन किसान को सुविधाएं तक नहीं देती है। किसानों की आत्महत्याएं हो रही हैं और किसानों का खेती से मोहभंग हो रहा है। मालवा में बहुत संभावनाएं हैं, लेकिन सरकार की ओर से आधारभूत ढांचा के विकास पर या प्रोसेसिंग यूनिट आदि लगाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गयी है।
इंदौर जिले की महू तहसील बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर की जन्मस्थली है। तभी इसका नामकरण डॉ. अंबेडकरनगर किया गया है। इस इलाके की अर्थव्यवस्था में आलू, प्याज के साथ लहसुन भी अहम कारक रहा है। लेकिन हाल के सालों में तीनों झटका दे रही हैं। कभी कभार अच्छा रेट मिल जाता है तो उम्मीद बंधती है फिर अगले साल किसानों को धोका मिलता है।

महू तहसील के रामपुरिया गाँव की काफी ख्याति है। बारह सौ की आबादी वाले इस गाँव के सबसे प्रगतिशील किसान नंद किशोर पटेल कहते हैं कि मालवा का किसान कठिन दौर में भी हिम्मत बनाए रखता है। प्रकृति की मार हो, बाजार की मार हो, वह सब कुछ झेल कर भी सामान्य रहता है, लेकिन ऐसी स्थिति कब तक बनी रहेगी। एक के बाद एक झटके से हम सब बेहाल हैं।

मालवा में ही मध्य प्रदेश का करीब तीस फीसदी आलू पैदा होता है। बीते सालों मंडियों में आलू का भी बुरा हाल रहा। किसान तो आलू की ढुलाई का खर्च भी नहीं निकल पाये। उसी दौरान सरकार ने दावा किया था कि आलू से लेकर लहसुन, प्याज औऱ हरी मिर्च तक को सरंक्षण की दिशा में ठोस पहल होगी, लेकिन वह कागजों से आगे नहीं बढ़ पायी। मंडियों में हताश तमाम किसान आलू फेंक कर घर लौट गए। नोटबंदी के बाद तक थोक सब्जी मंडी में आलू 10 से 12 रुपए किलो में था, वह एक रुपए से लेकर पचास पैसे किलो तक पहुंच गया। यही स्थिति धार, रतलाम, मंदसौर आदि जिलों में टमाटर किसानों की हुई। एक लाख रुपए लगाने के साथ जमकर मेहनत की, पसीना बनाया, लेकिन कमाई हुई पचास हजार।
मालवा को भारत का ह्रदय कहा जाता है। यहां की धरती बेहद उपजाऊ और धन धान्य से संपन्न रही है, लेकिन हाल के सालों में यहां खेती डगमगाने लगी है। मालवा क्षेत्र में खेती बाड़ी में आई क्रांति से संसाधनों का अत्याधिक दोहन हुआ है। खादों का असंतुलित प्रयोग होने से मृदा स्तर पंजाब की तरह प्रभावित हो रहा है। खेती में श्रम लागत, कीटनाशकों और रोगाणुनाशकों, खाद, सिंचाई और दूसरे आदानों के दाम बढ़े हैं, जबकि उत्पादन ठहरने लगा है।
सत्तर के दशक में यहां सोयाबीन की खेती ने जोर पकड़ा तो किसानों की माली हालत में खासा सुधार आया लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही। जब मालवा की यह तस्वीर है और किसानों के साथ ऐसा हो रहा है तो फिर किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी?
(लेखक कृषि मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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