23 दिसंबर 1978। आज से 44 साल पहले राजधानी में बोट क्लब पर ठिठुरन के बीच किसानों के विशाल जमावड़े को देख दुनिया चौंक गयी थी। भारत की किसान शक्ति से दिल्ली ने राजनीतिक गरमी भी ला दी थी। माना गया कि चीन के लाल मार्च के बाद यह दुनिया का सबसे बडा मजमा था। किसानों का यह जमावड़ा चौधरी चरण सिंह के जन्म दिन पर हुआ था। तभी से 23 दिसंबर को उनके जन्म दिन को किसान दिवस के रूप में मनाने का सिलसिला शुरू हुआ। किसान ही नहीं भारत सरकार भी 23 दिसंबर को किसान दिवस के अलावा 23 से 29 दिसंबर के बीच जय जवान जय किसान सप्ताह भी मनाती है।
लेकिन 2020 का किसान दिवस और चौधरी साहब की 118वीं जयंती कुछ अलग है। देश के कई हिस्सों के किसान बोट क्लब या दिल्ली में नहीं बल्कि अपनी मांगों को लेकर दिल्ली की सीमाओं पर संविधान दिवस से डटे हुए हैं। उनको देश के कई हिस्सों से समर्थन मिल रहा है। वे अलग अंदाज में किसान आंदोलन के बीच किसान दिवस मना रहे हैं तो सरकार अलग अंदाज में। 1978 के किसान समुद्र ने किसानों में जागरण और जोश भरा था।
मैंने 1978 की उस किसान रैली को तो नहीं देखा था लेकिन उसको आयोजित करने वाले तमाम पात्रों के संपर्क में रहा और किसानों के इस विशाल जमावड़े के राजनीतिक ताप को भी देखा। कई मौकों पर चौधरी चरण सिंह Chaudhari Charan Singh को भी नजदीक से देखने का भी मौका मिला। इसमें विख्यात समाजवादी चिंतक मधु लिमये भी थे जिनका मानना था कि दिल्ली की किसान रैली के माध्यम से चौधरी चरण सिंह ने देश के किसानों में अभूतपूर्व जागृति पैदा की। उन्होंने किसानों को आंदोलन रास्ता दिखाया। किसान धीरे-धीरे संगठित होंगे और अपनी मांगों के लिए संघर्ष करेंगे।
बीते सौ सालों में भारत में किसान आंदोलनों Farmer Protest के साथ महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभ भाई पटेल, आचार्य नरेंद्र देव और राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन से लेकर स्वामी सहजानंद, प्रो. एनजी रंगा और चौधरी चऱण सिंह जैसे नायक जुड़े रहे। इसमें चौधरी चरण सिंह ऐसे थे जिनकी पूरी राजनीति ही किसानों पर ही केंद्रित रही। जीवन की आखिरी सांस तक किसानों को जगाते रहे। उनका मत था कि कि भारत में ग्रामीण और शहरी दो संसार हैं लेकिन संख्या में बहुत अधिक ठहरने वाला ग्रामीण जनसमूह ही असली भारत है।
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चौधरी चरण सिंह 1967 से 1970 के दौरान दो बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और छोटी अवधि के लिए भारत के प्रधानमंत्री रहे। फिर भी अपने कामों से उन्होंने देश भर पर अमिट छाप छोड़ी। चार दशकों तक वे उत्तर प्रदेश में विधायक, संसदीय सचिव, मंत्री और नेता विपक्ष जैसी भूमिका में रहते हुए किसानों की ताकत से राष्ट्रीय नेता बने।
चौधरी चरण सिंह का जन्म 23 दिसंबर, 1902 को गाजियाबाद के नूरपुर गांव में एक संघर्षशील किसान परिवार में हुआ था। खेती-बाड़ी में पिता की मदद करते-करते किसानों की दिक्कतों का आभास हो गया। गांव की पगडंडी से होते हुए चौधरी साहब ने कठिन हालात में 1927 में मेरठ कालेज से कानून की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। कुछ समय वकालत की, फिर स्वाधीनता आंदोलन में कूद गए।
उनकी राजनीतिक पारी मेरठ जिला परिषद से आरंभ हुई और 1937 में वे मेरठ दक्षिण पश्चिम सीट से विधायक बने और यह विजय यात्रा 1977 तक जारी रही। 1946 में पंडित गोविंद बल्लभ पंत ने उन्हें अपना संसदीय सचिव और गांव और किसानों पर काम करने के लिए उनको काफी अधिकार दिया। 1951 से 1967 के बीच 19 महीनों की अवधि छोड़ कर वे लगातार उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे।
चौधरी साहब ने ही उत्तर प्रदेश में मंडी कानून बनाने की पहल 1938 में की थी। इसी आधार पर पंजाब में देश का पहला मंडी कानून बना लेकिन उत्तर प्रदेश में इसे साकार होने में पचीस साल लग गया। अपने राजनीति के आरंभिक दिनों में ही उनकी यह मांग खास चर्चा में रही कि सावजनिक क्षेत्र की नौकरियों में किसानों के बच्चों को पचास फीसदी आरक्षण मिले। चौधरी साहब बाल्यकाल से गांव-देहात और किसान के दर्द को समझते थे और इस नाते इसकी पैरोकारी करते रहे कि ग्रामीण क्षेत्रों के लड़के- लड़कियों को नौकरियों में आरक्षण मिले। बहुतों का तर्क था कि यह मांग मान ली गयी तो गांव में खेती कौन करेगा? चौधरी साहब उनको जवाब देते थे कि जब तक प्रशासन के साथ गांव का बच्चा नहीं जुड़ेगा तब तक स्वराज पाकर भी किसान लुटा-लुटा ही रहेगा।
1952 में भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन कानून पारित होने के बाद चौधरी साहब ने 1943 में चकबंदी कानून और 1954 में भूमि संरक्षण कानून बनवाया जिससे वैज्ञानिक खेती और भूमि संरक्षण को मदद मिली। कानून की व्यापक समझ के नाते खेती बाड़ी से जुड़े कई प्रभावी कानून उनकी देख रेख में बने। विधेयकों का ड्राफ्ट भी उन्होने खुद तैयार किया न कि नौकरशाही या कृषि विशेषज्ञों ने। तभी भूमि सुधार, जमींदारी उन्मूलन और चकबंदी कार्यक्रमों की नकल कई प्रांतों ने की और इनकी ख्याति विदेशों तक पहुंची।
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अमेरिकी विद्वान पॉल.आर.ब्रास तक ने माना कि जमींदारी उन्मूलन कानून फूलप्रूफ बना। क्योंकि चौधरी साहब को पहले से ही आभास था कि इसमें कमी हुई तो जागीरदार फिर से जमीनें खरीद पुरानी अवस्था में आ जाएंगे। इसी नाते प्रावधान हुआ कि भविष्य में किसी परिवार पर 12.5 एकड़ से अधिक जमीन नहीं होगी।
चौधरी साहब का मानना था कि छह सदस्यों के एक परिवार को साल भर में केवल एक टन खाद्यान्न की जरूरत होती है। अगर ढंग से निवेश और तकनीकों का उपयोग हो तो यह उपज आधे एकड़ जमीन से दो फसलों से मिल सकती है। लेकिन छोटे किसान अपनी पैदावार से इतनी बचत नहीं कर पाते कि आवश्यक निवेश कर सकें।..इस नाते सरकार के सामने केवल यही उपाय है कि वह किसानों को लाभकारी कीमतें अदा करे, ताकि वे बचत कर सकें और भूमि में निवेश कर सकें।
जमींदारी उन्मूलन के बाद चकबंदी उनका ऐसा बेहतरीन काम था जिस पर काफी राजनीति हुई फिर भी योजना आयोग ने इसे सफल माडल मानते हुए राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकारा। अमेरिकी कृषि विशेषज्ञ अलवर्ट मायर ने चकबंदी को ऐतिहासिक और क्रांतिकारी मानते हुए कहा कि इसने हरित क्रांति की बुनियाद रखने में मदद की।
चकबंदी के पहले किसानों की जोतें 10 से 20 स्थानों तक फैली थीं। किसानों को फसल की रखवाली और सिंचाई में दिक्कतें थीं। बस्ती जिले की डुमरियागंज तहसील में एक सर्वेक्षण में चौधरी साहब ने पाया कि एक किसान के पास औसतन 25 तक खेत तक थे। लेकिन चकबंदी से ये दो चकों में बदल गए और बहुत सी परेशानियां दूर हुईं और पैदावार बढ़ी।
चौधरी साहब ने किसानों के लिए कई काम किए। 3 अप्रैल,1967 को मुख्यमंत्री बनने के बाद चौधरी साहब ने कुटीर उद्योगों के साथ कृषि उत्पादन में वृद्धि की योजनाओं का खाका तैयार किया। सरकारी एजेंसियों के ऋण देने के तौर-तरीकों को सुगम बनाया और साढ़े छह एकड़ तक की जोत पर आधा लगान माफ करा दिया। सस्ती खाद-बीज आदि के लिए कृषि आपूर्ति संस्थान स्थापित कराया। वे मानते थे कि जो चीजें गावों में लघु या कुटीर उद्योग में बन सकती हैं, उनको बड़े उद्योगो को बनाने की इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।
चौधरी साहब को बालपन से ही अनुभव था कि किसानों का शोषण करने वाली संस्थाओं में पटवारी कितने अहम हैं। जमींदारी के दौर से वे वंशानुक्रम चले आ रहे थे। 1952 में पटवारियों का आंदोलन हुआ तो चौधरी साहब ने एक साथ 28 हजार पटवारियों को सेवा से चलता किया। इसे लेकर काफी बवाल हुआ लेकिन वे नहीं माने और रिक्त पदों पर लेखपालों की भर्ती करा कर प्रशिक्षण दिलाया. दलितों को भी इसमें स्थान मिला। लेखपालों की नयी व्यवस्था से किसानों को राहत मिली।
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चौधरी साहब की मान्यता थी कि खेती औऱ संबंधित विभागों में काम करने वाले ग्रामीण इलाको से ही होने चाहिए। 1946 में ही उन्होंने यह सवाल उठाया था कि सरकारी नौकरियों में केवल शहरी लोगों, कारोबारियों, व्यापारियों और पेशवर वर्ग को ही महत्व मिलता है। वे यह भी कहते थे कि कुछ गैर किसान किसानों की जगह लेकर देखें तो उनको परेशानियों का अंदाज होगा कि किस तरह उनको गंवार कह कर तिरस्कृत किया जाता है। ..कैसे कृषि अधिकारी गेहूं औऱ जौ के बीच अंतर नहीं कर पाता और कैसे डिप्टी कलेक्टर 100 रुपए या ऐसे ही मुकदमों के लिए एक दर्जन तारीखें देता है।
चौधरी साहब के भीतर गांव और किसान हमेशा बसा रहा। वे कहते थे कि मेरे संस्कार उस गरीब किसान के संस्कार हैं, जो धूल, कीचड़ और छप्परनुमा झोपड़ी में रहता है। हमेशा वे गांव, गरीब और गुरबत की बात करते थे जिसमे हर जाति और मजहब के लोग शामिल हैं। वे हमेशा इस बात को सगर्व कहते थे कि उनका संबंध एक छोटे किसान परिवार से है। चौधरी साहब ने किसानों के मुद्दों पर कई पुस्तकें लिखीं और किसान जागरण के लिए 13 अक्तूबर 1979 से असली भारत साप्ताहिक अखबार भी शुरू किया।
चौधरी साहब के जीवन का बड़ा हिस्सा कांग्रेस में बीता और उस दौरान किसानों के हित में तमाम काम किए और तमाम मुद्दों पर तकरार हुई। किसानों के आधार ने ही चौधरी साहब को उत्तर प्रदेश जैसे विशाल राज्य में 1967 में पहला गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनाया। 1969 में उनका दल भारतीय क्रांति दल बना तो उसकी असली शक्ति किसान ही थे। यही आधार 1977 में जनता पार्टी के सरकार बनाने के काम आया।
जनता पार्टी के चुनाव घोषणा पत्र में कृषि को सबसे अधिक प्राथमिकता और किसानों को उपज के वाजिब दाम का भी वायदा भी किया गया। गांव के लोहार और बुनकर से लेकर कुम्हारों औऱ अन्य कारीगरों को उत्थान का खाका भी बुना गया। 1979 में वित्त मंत्री और उप प्रधानमंत्री रहने के दौरान उन्होंने राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की स्थापना करायी और किसानों के हित में कई कदम उठाए। कृषि जिंसों की अन्तर्राज्यीय आवाजाही पर लगी रोक हटा दी। वे प्रधानमंत्री बने तो ग्रामीण पुनरूत्थान मंत्रालय की स्थापना भी की।
चौधरी चरण सिंह ने खुद अपना मतदाता वर्ग खुद तैयार किया। उत्तर भारत में किसान जागरण किया और उनको अपने अधिकारों के लिए खड़ा होना सिखाया। किसानों के चंदे से ही उनकी राजनीति चलती थी। बैल से खेती करने वाले किसान के लिए चंदे की दर एक रुपया और ट्रैक्टर वाले किसान से 11 रुपए उऩ्होंने तय की थी। कभी बड़े उद्योगपतियों से पैसा नहीं लेने का उनका संक्ल्प था और उन्होंने दिशानिर्देश बना रखा था कि अगर यह साबित हुआ कि उनके किसी सांसद-विधायक ने पूंजीपतियों से चंदा लिया है तो उसे दल छोड़ना पड़ेगा। वे जीवन भर ईमानदारी और सादगी से रहे।
मंत्री रहे तो बच्चे पैदल या साइकिल से स्कूल जाते थे। खुद जीवन भर आचार- व्यवहार में किसान ही बने रहे। कई बार उनसे मिलने गावों के लोग आते तो वे उनसे कहते थे कि किराये पर इतना पैसा खर्च करने की जगह यही बात एक पोस्टकार्ड पर लिख देते तो तुम्हारा काम हो जाता। वे गांधीजी की तरह हरेक चिट्ठी पढते और उसका जवाब देते थे। यही नहीं ग्रामीण पृष्ठभूमि के तमाम नेताओं को उन्होने आगे बढाया।
85 साल की आयु में चौधरी साहब का 29 मई 1987 को निधन हुआ, लेकिन जीवन के आखिरी क्षण तक वे किसानों की दशा पर चिंतित रहे। उनको इस बात की पीड़ा थी कि वे सत्ता में रह कर भी किसानों के लिए वह सब नहीं कर सके, जो करना चाहते थे।1985 में राजस्थान की एक स्मारिका रेत और खेत में चौधरी साहब ने बहुत मार्मिक शब्दों में लिखा कि-
किसान से कुरसी तक पहुंचा लेकिन गोबर से लीपा कच्चा कोठा, बारिश में टपकती झोपड़ी, दलदली संकरी गलियों के टूटे चबूतरों से राज के नाटक को निहारता, बुझे और उदास चेहरे, मरियल बैलों के लिए, भूखे पेट मिट्टी से कसरत करते भारतीय अन्नदाता के दर्द को दूर न कर सका।….जीवन के आखिरी दौर में मेरे जैसे लाखों किसान कार्यकर्ताओं के कष्टपूर्ण संघर्षों से उभरी किसान चेतना को नमन करते हुए युवा पीढ़ी से उम्मीद करता हूं कि वह किसानों के शोषण मुक्त होने के प्रयासों को तीव्रतर करें।
(लेखक, देश के वरिष्ठ पत्रकार और ग्रामीण मामलों के जानकार है। खेत खलिहान गांव कनेक्शन में आपका नियमित कॉलम है।)