संवाद: कृषि कर्ज़ पर रिजर्व बैंक के पैनल की रिपोर्ट क्या कहती है?

कृषि कर्ज़ पर रिजर्व बैंक के पैनल की रिपोर्ट: इसी साल फरवरी में रिजर्व बैंक ने एक इंटरनल वर्किंग ग्रुप का गठन किया था। इस पैनल को भारत में कृषि कर्ज की स्थिति, उसकी समस्याओं और उसके समाधान पर एक रिपोर्ट सौंपनी थी। डिप्टी गवर्नर महेश कुमार जैन की अध्यक्षता में बने उस इंटरनल ग्रुप की रिपोर्ट आ गई है।
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इसी साल फरवरी में रिजर्व बैंक ने एक इंटरनल वर्किंग ग्रुप का गठन किया था। इस पैनल को भारत में कृषि कर्ज की स्थिति, उसकी समस्याओं और उसके समाधान पर एक रिपोर्ट सौंपनी थी। डिप्टी गवर्नर महेश कुमार जैन की अध्यक्षता में बने उस इंटरनल ग्रुप की रिपोर्ट आ गई है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कृषि सुधार के लिए लोकप्रिय वित्तीय उपायों की जगह निवेश के ऐसे कार्यक्रम बनने चाहिए जिससे कृषि को दूरगामी फायदा मिले।

रिपोर्ट को गौर से देखें तो लोकप्रिय उपायों से पैनल का आशय है कर्ज़माफी और सब्सिडी से और दूरगामी फायदे का मतलब यह समझ में आ रहा है कि कृषि सब्सिडी वगैरह की बजाए किसानों को सीधे पैसा पहुंचाने का जतन किया जाए और कृषि इंफ्रास्ट्रक्चर बेहतर करने के लिए निवेश किया जाए।

कर्ज़ के लेन-देन तक सीमित था सरोकार


हालांकि देश में मंदी के अंदेशे के बीच जहां सकल घरेलू उत्पाद यानि उत्पादन बढ़ाने की जी-तोड़ कोशिशें हो रही हैं वहां जीडीपी में कृषि का योगदान बढ़ाने की बात की जाने की दरकार भी थी लेकिन क्योंकि सप्ताहांत में जो रिपोर्ट आई है वह रिजर्व बैंक के एक पैनल की है, तो उसका सरोकार सिर्फ कर्ज के लेन-देन तक सीमित था।

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यानि यह सवाल नहीं उठाया जा सकता कि बैंक के पैनल ने किसानों की दूसरी दुश्वारियों पर क्यों कुछ नहीं कहा। बहरहाल कर्ज माफी और किसानों को कर्ज देने की और बेहतर व्यवस्था का मसला भी कम महत्व का नहीं है।

इस रिपोर्ट में पैनल ने काफी जोर देकर कर्ज माफी और सब्सिडी के खिलाफ बात कही है क्योंकि यह पैनल ही रिजर्व बैंक का है, तो बैंक और कर्ज़ के लेन-देन के तंत्र के लिहाज से ही सोचा जाना था और वही सब कुछ इस रिपोर्ट में है।

कहा गया है कि कर्ज माफी से बैंकों के क्रेडिट स्ट्रक्चर पर असर पड़ता है और सरकारों के पास कृषि पर खर्च करने के लिए उपलब्ध वित्तीय दायरा घट जाता है। इसी के साथ महाजनों और दूसरे गैर सरकारी माध्यमों से ज्यादा दर पर कर्ज लेने की वजह से बैंकों का कम पैसा कर्ज पर उठ पाता है और किसानों को गैर सरकारी संस्थानों से क़र्ज़ लेने पर ज्यादा ब्याज अलग देना पड़ता है।

तकनीक आधारित व्यवस्था किसान कर्ज के लिए भी बने


इसीलिए रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि छोटे और मध्यम व्यवसायों के लिए जैसे एक घंटे के अंदर तुरंत कर्ज लेने की व्यवस्था है वैसे ही तकनीक आधारित व्यवस्था किसान कर्ज के लिए भी बनाई जाए।

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दूसरा सुझाव डायरेक्ट बेनिफिट ट्रान्सफर का है जिसमें किसानों के लिए 3 लाख तक के बेनिफिट की सीमा तय करने का सुझाव या सिफारिश है। वैसे किसानों की जमीन और कर्ज का डाटाबेस बनाने के लिए मैनेजमेंट इनफॉर्मेशन सिस्टम के इस्तेमाल की बात भी रिपोर्ट में है लेकिन यह प्रबंधन के नज़रिए से किसी भी व्यवस्था के लिए न्यूनतम आवश्यकताएं है तो इन्हें पहले से ही जरूरी मानकर चलना चाहिए।

रिपोर्ट में कुछ समस्याओं का भी जिक्र किया गया है। कहा गया है कि इस क्षेत्र में कैपिटल फॉर्मेशन यानि पूंजी निर्माण की कमी है। यह भी कोई नई बात नहीं है। कौन नहीं जानता कि कृषि क्षेत्र में लगा उत्पादक अपनी लागत ही बड़ी मुश्किल से निकाल पा रहा है। इस क्षेत्र में पूंजी बनना या बढ़ पाना तो बहुत ही दूर की बात है।

कृषि कर्ज के मामले में क्षेत्रीय असमानताएं बहुत ज्यादा

रिपोर्ट में एक और ज़िक्र है कि कृषि कर्ज के मामले में क्षेत्रीय असमानताएं बहुत ज्यादा है। यह क्षेत्रीय आधार पर समान कर्ज वितरण को साधने की बात है। सरकार चाहेगी तो इसका समाधान कौन सी बड़ी बात है।

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पैनल ने जो समाधान सुझाए हैं वे ऐसे सार्वभौमिक और सार्वकालिक प्रकार के हैं उन पर कोई टीका टिप्पणी हो ही नहीं सकती। मसलन एक सुझाव है कि बैंकों में आसान कर्ज प्राप्ति के लिए टेक्नोलॉजी ड्रिवेन पोर्टल बनाए जाएं और ज़मीन के रिकॉर्ड का डिजिटलीकरण जल्द से जल्द पूरा किया जाए। बेशक यह सुझाव भी बैंकों की अपनी सुविधा और सुरक्षा या हित से जुड़ा मसला ज्यादा है।

देखने में छोटा सा लेकिन अंदरूनी तौर पर बड़ा भारी सुझाव यह है कि किसानों को कर्ज के मामले में भी जीएसटी कॉन्सिल जैसी संस्था या व्यवस्था बनाई जाए। यही सुझाव ऐसा है जिसका आगे-पीछा समझने में पेशवरों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ेगी।

केंद्र के अलावा दूसरे निकाय या संस्थाएं भी उठाएं ज़िम्मेदारी

सबको पता चल चुका है कि जीएसटी के जरिए केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों पर भी शामिल करके जीएसटी कॉन्सिल बनवाने में सफलता पा ली थी। इससे जिम्मेदारियां बंट गईं थीं। इस सुझाव का एक आशय यह भी लगाया जा सकता है कि कृषि और किसानों के मामलों में नई नीतियां बनाने, नीतियों की समीक्षा करने और उनके क्रियान्वयन के काम की जिम्मेदारी केंद्र सरकार के अलावा दूसरे निकाय या संस्थाएं भी उठाएं।

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कुल मिला कर रिजर्व बैंक के पैनल की इस रिपोर्ट में कृषि कर्ज खासतौर पर क़र्ज़ माफी और सब्सिडी के बोझ का विकल्प तलाशने की कवायद ज्यादा दिखाई देती है।

जो लोग किसानों की समस्याओं को लेकर फिक्रमंद हैं उन्हें रिजर्व बैंक की बजाए सीधे नीति निर्माताओं से उम्मीद लगाना चाहिए। किसानों को वाजिब दाम न मिल पाना और कृषि क्षेत्र पर अनगिनत संकटों के समाधान की उम्मीद बैंकों से लगाना उन पर ज्यादती ही होगी। 

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)


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