आममतौर से देखा गया है कि दो साल लगातार सामान्य वर्षा के बाद तीसरे साल सूखा जैसी हालत आती है। मौसम विज्ञानी के. निरंजन और उनके साथी शोधकर्ताओं ने अपनी रिसर्च का परिणाम 2013 में छापा और इंटरनेट पर उपलब्ध कराया। इसके अनुसार 1901 से 2010 के बीच देश में 21 बार सूखा पड़ा है। समय के साथ हालात बिगड़ ही रहे हैं। दूसरी तरफ हमारी नदियां जो जीवन धारा हैं, समय-समय पर बाढ़ का प्रकोप लाती रहती हैं। इस प्रकार अनावृष्टि और अतिवृष्टि के चक्रव्यूह में हम फंसे रहते हैं जिसमें सबसे अधिक संकट नदी किनारे रहने वालों को होता है।
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नदी किनारे के बलुअर क्षेत्र में पानी पारगम्यता अच्छी होती है इसलिए पानी बालू कणों के बीच से होता हुआ गहराई तक चला जाता है और पृथ्वी पर जल संचय नहीं होता, अनावृष्टि के समय आसानी से उपलब्ध नहीं रहता। अतिवृष्टि की दशा में नदियां अपने किनारे और तलहटी को आसानी से काटती और ढोकर मिट्टी ले जाती हैं। कभी तो नदी तट के कटान के कारण एक तरफ के खेत बह जाते हैं और दूसरे तट पर नए खेत तैयार भी हो जाते हैं। यदि नदी ने अपना मार्ग बदला तो गाँव जो इस किनारे था, दूसरे किनारे पहुंच जाता है, उसका जिला तक बदल जाता है।
ऐसी हालत में कोई भी सरकार यदि बाढ़ से हुई हानि की क्षतिपूर्ति करना चाहे तो उनके नुकसान का सत्यापन आसान नहीं होता। पहले नदियों पर मनुष्य का नियंत्रण नहीं था तब ह्वांगहो नदी को चीन का शोक और नील नदी को मिस्र का वरदान कहते थे।
अब नदियों पर बांध बनाकर चीन ब्रम्हपुत्र नदी पर बांध बनाकर असमय पानी छोड़ता है और भारत में बाढ़ पैदा करता है, लेकिन आवश्यकता की घड़ी में रोक कर भारत के सामने संकट पैदा करता है।भारत की नदियों में प्राकृतिक विविधता है, जहां उत्तर भारत की नदियों में प्रायः बाढ़ आती है वहीं दक्षिण भारत की नदियों में पानी की कमी रहती है। बड़े बांध बनाकर जल संचय का रिवाज अब जोखिम भरा माना जाता है और छोटे-छोटे बांध बनाए जाते हैं। यह काम सब जगह सम्भव नहीं होता। भारत की विशेष परिस्थिति में विशेष प्रबंध नही काम करेगा।
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सत्तर के दशक में दस्तूर कमीशन के अंतर्गत इंजीनियर के. एल. राव ने अतिवृष्टि और अनावृष्टि के संकट से बचने के लिए भारत की नदियों को आपस में जोड़ने का प्रस्ताव दिया था, जिस पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई की सरकार ने 1977 में कार्यवाही भी आरम्भ की थी। वह सरकार 1980 में सत्ता से बाहर हो गई तो इस योजना को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। एक बार फिर 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने योजना को पुनर्जीवित करना चाहा और प्रयास किया, लेकिन 2004 में उनकी सरकार जाने के साथ ही यह योजना भी ठंड बस्ते में चली गई।
वर्तमान परस्थितियों में अतिवृष्टि और अनावृष्टि के चक्रव्यूह को तोड़ने के लिए कुछ क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे, जिनमें से एक तो नदियों को जोडने का कार्यक्रम है, भले ही पर्यावरणविद इसके पक्षधर नहीं है। दूसरा युद्धस्तर पर तटबंध बनाकर नदियों के कटान को घटाना होगा। इसके साथ ही बड़े पैमाने पर वृक्षारोपण करके नदी घाटी की मिट्टी को मजबूती देनी होगी। बार-बार मुआवजा देना शायद संभव न हो इसलिए सूखा और बाढ़ से बचने का स्थायी समाधान जरूरी है।