एक देश एक टैक्स, सुनने में काफी अच्छा लगता है

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राज्य सभा में तीन अगस्त 2016 का दिन देश के लिए ऐतिहासिक रहा, टैक्स सुधारों के मामले में इतना व्यापक बिल जीएसटी का पास होना और वह भी सर्वसम्मति से। इस पर अटलजी की एनडीए सरकार ने और बाद में मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने भी काफ़ी मशक्कत की थी लेकिन कामयाबी नहीं मिली थी। मोदी के कड़े रुख से यह बिल दो साल वर्तमान सरकार में भी लटका रहा। अब मोदी सरकार ने लचीला रवैया अपनाया और बिल पास हो गया।

सबसे पहला सवाल ध्यान में आता है कि गरीब मजदूर और किसान का इससे क्या लाभ होगा या होगा भी। समस्या के दो पक्ष हैं, वस्तुओं की उपलब्धता और उनके भाव। कई बार भाव से अधिक महत्व उपलब्धता का होता है जैसे लड़की की शादी या परिवार में बीमारी। ऐसे हालात हों तो भाव से अधिक महत्व है उपलब्धता का।

नासिक का प्याज दिल्ली आना है, उत्तराखंड और हिमाचल का टमाटर राजस्थान जाना है और मलिहाबाद का दशहरी केरल पहुंचना है तो क्या इन वस्तुओं की आवाजाही बिना रोक-टोक सम्भव होगी या फिर चौकियों पर रोककर पुलिस के लोग अपना धंधा चलाते रहेंगे। 

उत्तर प्रदेश में ऑक्ट्राइ यानी आबकारी की जांच के लिए चुंगी नाका बने थे जिससे एक जिले से दूसरे जिले को सामान ले जाना दुष्कर होता था। यह समाप्त होने से एक जिले से दूसरे जिले को सामान लाना ले जाना सरल हो गया है। यदि देशभर में सामान कहीं रुके नहीं और जहां जाना है पहुंच जाए तो उपलब्धता तो रहेगी, भाव भी ठीक रहेंगे। वैसे यदि मांग और पूर्ति का सन्तुलन बना रहा तो भाव नियंत्रित रहेंगे, ऐसा माना जा सकता है। 

जीएसटी लागू करने वाला फ्रांस पहला देश था और अब तो अधिकांश देशों में यह व्यवस्था लागू है लेकिन दूसरे देशों का अनुभव बहुत अच्छा नहीं रहा है, शायद न्यूज़ीलैंड को छोड़कर। देखना होगा कि इसका लाभ किसे मिलेगा गरीब किसान को, व्यापारी को या उद्योगपति को। हमारे देश में जलवायु, भोजन आदतें, मिट्टी-पानी, आर्थिक विषमता की विविधता में टैक्स एकता आने से लाभ हो भी सकता है। जब सामान निर्बाध गति से चलता रहेगा तो डीजल की खपत घटेगी और सामान सड़ने का डर कम होगा। क्या देशभर में बने हुए चुंगी नाका समाप्त हो जाएंगे? काश ऐसा हो पाए।

हमारे देश में किसान और उपभोक्ता दोनों के दुश्मन हैं बिचौलिए और जखीरेबाज यानी जमाखोर। देखना होगा इनकी सेहत पर क्या प्रभाव पड़ता है। यदि जीएसटी को कड़ाई और ईमानदारी से लागू किया गया तो इनकी भूमिका निश्चित रूप से घटेगी। इनकी भूमिका न तो कॉम्पिटीशन के व्यापार में होती है और ना ही डंडाशाही व्यवस्था में। यह तो नेहरूवादी मिलीजुली अर्थव्यवस्था की देन है। आशा है अब प्रतिस्पर्धा का वातावरण बनेगा।

गाँव के लोगों को इससे आनन्द नहीं मिलेगा कि कारें सस्ती हो गईं, उन्हें तो चिन्ता है ट्रैक्टर, खाद, बीज, पानी और बिजली सस्ती होगी क्या, उसकी उपज का सही दाम मिल सकेगा? सीमेन्टभर सस्ता होने से कच्चे मकान पक्के नहीं हो जाएंगे, ईंटा, सरिया, मौरंग भी चाहिए। संशोधन की बारीकियां तो अर्थशास्त्री ही बता पाएंगे और आजादी के बाद का सबसे बड़ा आर्थिक संशोधन अच्छे दिन लाएगा या मोदी सरकार के लिए अपशगुन बन कर रह जाएगा यह तो समय के गर्भ में छुपा है।    

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