राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस पर गांव कनेक्शन के संपादक, भूगर्भ वैज्ञानिक और शिक्षाविद डॉ. एसबी मिश्र का लेख.. आखिर पंचायतों का ये हाल क्यों है ?
भारत में पंचायत की व्यवस्था जिसे ग्राम सभा कहते थे, बहुत पुरानी है शायद वैदिक काल से चली आ रही थी। इसके अन्तर्गत गांव के लोगों की आम सहमति से समझदार और सम्मानित लोगों में से पांच बुजुर्ग नामित किए जात थे। ये ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में काम करते थे और इन्हें पंच परमेश्वर कहा जाता था। इस पुरानी परम्परा को महात्मा गांधी ने समझा था और इसे ग्राम स्वराज का नाम दिया था। आजाद भारत के बाकी नेताओं ने पहली पंच वर्षीय योजना में पंचायती राज पर ध्यान नहीं दिया लेकिन बाद के वर्षों में कुछ ध्यान दिया गया।
ग्राम सभा वास्तव में ग्राम स्वराज की आदर्श व्यवस्था थी जिस पर राजाओं और बादशाहों की लड़ाई तक का कोई प्रभाव नहीं पड़ा, न तो मुगलों की गुलामी में और न अंग्रेजों की गुलामी में। यह स्थानीय प्रशासन की सबसे छोटी स्वतंत्र इकाई थी लेकिन इसे आजादी के बाद की सरकारों ने भी अपनी हुकूमत का भाग नहीं माना। आजादी के बाद गांधी जी के नाम की माला जपने वाले हुक्मरानों से आशा थी कि गांवों का पुराना स्वरूप कायम करेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
आजाद भारत में करीब 40 साल तक पंचायतें भले ही प्रभावी भूमिका नहीं निभा सकीं लेकिन इनमें लोभी और स्वार्थी लोग नहीं थे इसलिए कुछ हद तक पुराना स्वरूप बना रहा। चुनाव खर्जीले नहीं थे, ग्रामीण कलह नहीं थी और शान्ति से ग्राम सभापति का चुनाव होता था जिसे अब ग्राम प्रधान कहते हैं। जब 1992 में पंचायती राज ऐक्ट लागू किया गया तब इसका पुराना स्वरूप पूरी तरह बदल गया ।
अब राजनैतिक दलों ने अपना वोट बैंक प्रत्येक गांव में तलाशना आरम्भ कर दिया, बदले हुए नियमों के साथ नियमित चुनाव होने लगे प्रत्योक पांच साल के लिए और इसमें जाति गत और लिंगानुसार आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई जिससे प्रत्येक गांव जातीय कलह से ग्रस्त हो गया। अब पंच परमेश्वर नहीं रहे उनकी जगह लठैत, संख्या बल और धन बल वाले लोगों का बोलबाला हो गया। केन्द्र सरकार ने सारे देश में प्रजातंत्र की इस नींव से योग्यता,क्षमता, अनुभव के बजाय लोक लुभावन कानून लागू कर दिए। पहला कानून था जाति आधारित आरक्षण को रोस्टर विधि से विभिन्न जातियों का प्रधान चुना जाना। हर पंचायत में जाति के हिसाब से गोलबन्दी हो गई और वैमनस्यता भी बढ़ती गई। जातियों के अन्दर जातियां बन गईं और गांव का पारस्परिक प्रेमभाव पूरी तरह चला गया ।
दूसरा कानून है प्रधानों के चुनाव में महिलाओं को आरक्षण जिससे अपेक्षा की गई थी महिला सशक्तीकरण की। कानून के हिसाब से महिला प्रधान तो बन जाती हैं लेकिन काम उनकी जगह कोई पुरुष ही करता है, कभी प्रधानपति के रूप में तो कभी प्रधानपुत्र के रूप में। कुछ अपवादों को छोड़कर प्रधान तो केवनल हस्ताक्षर करती या अंगूठा लगाती है । इस प्रकार महिलाओं का सशक्तीकरण तो नहीं हो रहा उनका केवल यूज़ हो रहा है पुरुषों द्वारा।
पंचायतीराज से अपेक्षा थी कि गांव के लोग अदालतों के चक्कर लगाने से बचेंगे जब न्याय पंचायतें अपना काम आरम्भ करेंगी। पिछले तीस साल में इन्हें काम करते और अदालतो का बोझा घटाते नहीं देखा गया। न्याय पंचायत अथवा ग्राम पंचायत की बैठकों की कौन कहे अधिकांश पंचायतों में उनका अपना भवन तक नहीं है। मैं समझता हूं अधिकांश आंगनवाड़ी और बालवाड़ी केन्द्रों के लिए भी जगह किराए पर ही ली जाती है। गांव के लोगों को यह जानकारी तक नहीं रहती कि उन्हें किन योजनाओं में क्या लाभ मिल सकता है।
ग्राम प्रधानों की रुचि इस बात में नहीं रहती कि सर्वशिक्षा अभियान कैसा चल रहा है, टीकाकरण की क्या प्रगति है, प्राइमरी स्कूल में शहर से आकर पढ़ाने वाली अध्यापिका आती भी है या नहीं अथवा प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक हैं या नहीं बल्कि इसमें उनकी रुचि रहती है कि भवन निर्माण के लिए बैंक खाते में पैसा आया अथवा नहीं, पट्टे पर जमीन बांटने का अवसर मिलेगा या नहीं और लोहिया भवन, अम्बेडकर भवन या प्रधानमंत्री आवास के लिए परिवारों को कब चिन्हित करना और भेजना है ताकि उन परिवारों से कुछ मिल सके।
विकास के कामों में प्रधान की मलाई है जहां उसे एक निश्चित प्रतिशत प्राप्त होता है । यही कारण है कि प्रधान के चुनाव में हजारो में नहीं लाखों में खर्च होता है । ब्लाक प्रमुख और जिला प्रमुख के चुनाव में तो और भी अधिक खर्चा होता है । प्रत्यक्ष रूप से राजनैतिक दलों के प्रत्याशी नहीं होते हैं फिर भी पार्टियों से जुड़े लोग भाग लेते हैं । पंचायतों का राजनीतिकरण, जातीयता, धन का बन्दर बांट और मसल पावर समाप्त करने के बाद ही कुछ उपयोगी काम हो सकेगा अन्यथा सरकारी मशीनरी काम करे और पंचायतें उसकी मानीटरिंग करे तो ठीक रहेगा ।
डॉ. एसबी मिश्र के अन्य लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.. https://www.gaonconnection.com/author/82510