जीएसटी के कारण ट्रक मालिकों ने हड़ताल कर दी है। बुनकरों ने अपना दर्द बताया है और गार्बेज वालों के घाव अभी बाकी हैं। इस बीच गुजरात, हिमाचल और महाराष्ट्र की सरकारों ने एक रुपया से तीन रुपया तक डीजल पर वैट घटाया है। इस तरह ”थूक पालिश” से भला नहीं होगा। खनिज तेलों पर से पूरी तरह वैट समाप्त करके उसे जीएसटी के दायरे में लाना चाहिए। यदि जीएसटी देशहित में है तो सब वस्तुओं पर एक समान लागू हो और यदि देशहित में नहीं है तो आरम्भ ही क्यों किया ।
डीजल के दामों को लेकर किसानों को सबसे पहले आन्दोलित होना चाहिए था लेकिन सरकार ने कर्जमाफी का झुनझूना देकर किसानों को बहला लिया। डीजल और मिट्टी का तेल आज भी गांवों में बड़े पैमाने पर खर्च होता है, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष रूप से। माल की ढुलाई, खेतों की जुताई, थ्रेशर अथवा हार्वेस्टर का प्रयोग या पम्पसेट से सिंचाई सब में डीजल लगता है।
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किसान को यह राज़ नहीं पता लेकिन सरकार को पता है कि जीएसटी की परिधि में लाने से डीजल 20 रुपया प्रति लीटर तक सस्ता हो सकता है जिससे पूंजीपतियों को घाटा होगा। पूंजीपतियों के हितों की रक्षा के लिए ही पुरानी व्यवस्था बदल कर खनिज तेलों के दामो पर से सरकारी नियंत्रण हटाया गया।
आश्चर्य की बात है कि मोदी के घोर आलोचक भी इस डंडीमार मनमानी व्यवस्था का विरोध नहीं कर रहे क्योंकि विपक्षियों की सरकारों के लिए भी पेट्रोलियम पदार्थ दुधारू गाय हैं जिससे वैट के माध्यम से सभी प्रान्तीय सरकारें धन बटोरती हैं। पिछली सरकारें तेल के भावों पर अंकुश लगाकर स्वयं भाव निर्धारित करती थीं। इस प्रक्रिया में तेल कम्पनियों की मनमानी नहीं चलती थी। अब इन कम्पनियों को छुट्टा छोड़ दिया गया है। अब ये अपने ढंग से दैनिक आधार पर भाव निर्धारित करती हैं तेल कम्पनियां जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहता। यदि केवल तेल के भाव साहूकार निर्धारित करेंगे तो बाकी चीजों की दरें सरकार क्यों करे। यदि कोई तर्कसंगत स्पष्टीकरण है डीजल को जीएसटी से बाहर रखने का तो पता नहीं।
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पुराने समय की सरकारों को पता था कि पेट्रोल और डीजल का उपयोग करने वाले दो अलग-अलग आय वर्ग हैं इसलिए उन्होंने डीजल और मिट्टी तेल के दाम गरीबों के हिसाब से रखे थे और पेट्रोल के दाम अमीरों के हिसाब से। मौजूदा सरकार ने डीजल के दाम पेट्रोल के दामों के करीब ला दिया है। अभी लम्बे समय तक गरीबी अमीरी का अन्तर चलेगा और डीजल पर गरीब किसानों की निर्भरता रहेगी। यह सोचना कि सोलर पम्प से सिंचाई हो रहीं है अथवा बिजली से काम पूरा हो रहा है कोरी कल्पना है। नहरों और ट्यूबवेलों का हाल बेहाल है, डीजल और पम्पसेट अभी भी बड़े काम के हैं।
सत्तर के दशक में इन्दिरा गांधी कहती थीं “सारी दुनिया में खनिज तेलों की कीमत बढ़ी है इसलिए भारत में महंगाई है।” पिछले तीन साल में खनिज तेल के दाम दुनिया भर में गिरे हैं लेकिन हमारे देश में उस अनुपात में नहीं घटे। यदि देश में डीजल पेट्रोल के दाम घटेंगे तो रेलगाड़ी का किराया, माल भाड़ा, बसों के और हवाई टिकट सस्ते करने पड़ेंगे। भाड़ा घटने से खाद और सीमेन्ट के दाम घटेंगे और पूंजीपतियों का नुकसान होगा। शायद सरकार इसके लिए तैयार नहीं है।
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मैं अर्थशास्त्री नहीं हूं लेकिन इतना समझ सकता हूं कि जो टैक्स के चार वर्ग 28, 18, 12 और 5 प्रतिशत के बनाए हैं उनमें जिस आसानी से फेर बदल किया जाता है उससे स्पष्ट है कि टैक्स रेट का कोई फार्मूला नहीं है और जब जिसे चाहा ब़ढ़ाया अथवा घटाया जा सकता है। तब किसान के लिए उपयोगी खाद और बीज पर से जीएसटी क्यों समाप्त नहीं किया जा सकता ।
तटस्थ भाव से जीएसटी में खराबी नहीं है लेकिन इनके लागू करने में निष्पक्ष भाव और ईमानदारी होनी चाहिए थी जिसकी कमी है। व्यवस्था लागू करने में डंडी मारने का प्रलोभन ठीक नहीं । सरकार के खजाने को भरने में किस तरफ़ डंडी झुकाने से अधिक पैसा आएगा यह चिन्ता पूंजीपति करता है कल्याणकारी सरकारें नहीं। पेट्रोलियम पदार्थों को जीएसटी से बाहर रखना डंडी मारने का सटीक उदाहरण है, इन्हें जीएसटी की परिधि में लाना ही चाहिए था।