मई-जून में मंदसौर में किसानों के आंदोलन की ख़बरें जिस समय आ रही थीं, देश के दूसरे हिस्सों में भी किसान दूध और सब्जियां सड़कों पर फेंककर अपना गुस्सा जता रहे थे। मीडिया के लिए उनकी दिक्कतों को समझने-समझाने से कहीं ज्यादा आसान था, सड़क पर फैले प्याज़-टमाटर की तस्वीरें दिखाना। और यह सब बाकायदा चल ही रहा था।
मुझे यह जानने की लगातार कुलबुलाहट हो रही थी कि इतनी मेहनत से उगाई गई सब्ज़ियां यों फेंक देने की हिम्मत का उत्स कहां है, कौन से कारक हैं आख़िर ? तभी मंदसौर में किसानों पर पुलिस फायरिंग और किसानों की मौत की ख़बर आई। मध्य प्रदेश सरकार की ओर से पुलिस की गोली से मौतें झुठलाने का बयान और फिर स्वीकारोक्ति भी आई। वहां जाने का इरादा कर ही रहा था कि किसान नेता और पुराने मित्र वीएम सिंह ने किसान मुक्ति यात्रा के बारे में बताया। बताया कि अय्याकन्नु की अगुवाई में जंतर-मंतर पर धरना देकर बैठे तमिलनाडु के किसानों से मिलने के बाद उन्होंने कुछ ऐसा करने की ठानी कि देश भर के किसानों की तकलीफों की ओर सरकार का ध्यान खींचा जा सके।
उनकी पहल पर देश के 130 से ज्यादा किसान संगठनों ने इकट्ठा होकर अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति बनाई। किसानों को आरपार की लड़ाई के लिए जागृत करने के इरादे से किसान मुक्ति यात्रा का विचार आया और तय हुआ कि मंदसौर कांड का एक महीना पूरा होने पर 6 जुलाई को पिपलिया मण्डी में मारे गए किसानों को श्रद्धांजलि देकर यात्रा शुरू की जाए। दिल्ली में जंतर-मंतर से शुरू करके सात राज्यों से गुजरते हुए चार हज़ार किलोमीटर का यह सफर 18 जुलाई को जंतर-मंतर पर पूरा होना था। साथ चलने के उनके न्योते पर मैंने तुरंत हामी भर ली।
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इरादा था कि किसानों से सीधे मिलकर उनकी मुश्किलों को समझ सकूं। सिर्फ़ किसान कहे जाने से हम उन चेहरों की कल्पना कैसे कर सकते हैं, जो कुदरत के कहर से जूझते हैं, क्रूर व्यवस्था से लड़ते हैं मगर पुरखों से मिले खेतों में अपनी रोजी तलाशने का माद्दा कमज़ोर नहीं पड़ने देते। जो हार जाते हैं, वे जान भी दे देते हैं। मैं उनके चेहरों का, उनकी ज़िन्दगी और उनके परिवेश का दस्तावेज़ बनाना चाहता था। यों शुरू हुआ एक सफ़र, जिसमें देखने-सीखने के लिए वह सब कुछ था, जो न्यूज़ रूम में बैठे रहकर हरगिज़ सम्भव नहीं।
पहला पड़ावः लोग मज़बूत पर गांव का नाम बूढ़ा
मंदसौर का एक गाँव है- बूढ़ा। पिपलिया मंडी से कुछ 15 किलोमीटर अंदर। आबादी क़रीब छह हज़ार, औसत जोत आठ-दस बीघा है। इन दिनों खेतों में सोयाबीन, उड़द और मक्का लगा है। पानी की किल्लत तो ख़ैर रहती ही है। अफीम की खेती के भी कई लाइसेंसधारक हैं.। गांव में 11 स्कूल हैं, जिनमें सात हज़ार बच्चे आसपास के गांवों से भी पढ़ने आते हैं। कहने को गांव मगर गांवों की प्रचलित छवि से अलग कस्बे की तरह का बाज़ार है। पक्की सड़क के दोनों ओर पक्के मकान हैं। तमाम मकानों के माथे पर गायत्री मंत्र चमकता दिखाई देता है, जहां मंत्र नही है, वहां पाटीदार भवन या पाटीदार सदन दर्ज़ है।
शादी-ब्याह के मौके पर घर की दीवारों पर लिखी गई इबारत अभी ताज़ा है- बैरागी परिवार आपका स्वागत करता है, भूत परिवार आपका स्वागत करता है (ज़ाहिर है कि भूत के प्रचलित अर्थों से इसका कोई लेना-देना नहीं)। बाज़ार में पटरी पर लाइन से खड़े तमाम सैलून हैं। इलाहाबाद के ईंट पर बैठाकर हजामत करने वाले इटैलियन सैलून से अलग काफी लक-दक वाले सैलून है यहां। खेती-किसानी के लिए ज़रूरी सामान की दुकानों से लेकर कपड़े और किराने की दुकानें, करीने से रखे शीशे के मर्तबान में बिस्कुट-नमकीन सजाये चाय के अड्डे, हलवाई की दुकानें और पान के ठिकाने भी। चौक पर फलों के ठेले और जूस बेचने वाले भी।
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एक दिन पहले दिल्ली से निकलकर नीमच के रास्ते हम सब यहां पहुंचे थे। हम सब यानी वीएम सिंह और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग इलाकों से जुटे उनकी राष्ट्रीय किसान-मजदूर पार्टी के नेता। पिपलिया मण्डी पहुंचकर हम आगे का रास्ता तलाश कर ही रहे थे कि मोटरसाइकिल पर सवार मिले दो लोगों ने प्रस्ताव किया कि वे हमें आगे तक पहुंचा देंगे। उनकी मदद से हम बूढा पहुंचे और फिर पाटीदार समाज धर्मशाला।
गाँव में घुसते ही सामने एक बड़ा फ्लेक्स लटका दिखाई देता है। मेहमानों के स्वागत और शहीद किसानों की स्मृति में महापंचायत की घोषणा वाले ये फ्लेक्स गाँव में कई और जगह भी लगे हैं। धर्मशाला में ऊपर बने एक बड़े हॉल में मेहमानों के आराम के लिए गद्दे लगे थे और सिरहाने तकिया की जगह मोड़कर रखी हुईं पतली रजाइयां। दो दिन के सफ़र की थकान के बाद बिस्तर देखते ही कई तो फौरन आराम की मुद्रा में आ गए। स्थानीय नेता आ पहुंचे थे तो कुछ लोग उनसे बातचीत के लिए बैठ गए।
वहां के लोगों ने बताया कि चार-पांच रोज़ पहले किसान संदेश यात्रा लेकर पहुंचे सत्ता दल के नेताओं का परोक्ष संदेश था- किसान मुक्ति यात्रा से बचो। इस धमकी के बावजूद बूढ़ा के लोगों ने किसान यात्रा की मेज़बानी का ज़िम्मा उठाया। अभी रात को होने वाली जनसभा को लेकर भी अफसर सख्त हैं। समन्वय समिति के संयोजक वीएम सिंह के काफिले में शामिल अमरोहा के जोरावर सिंह को पुलिस ने रास्ते में रोक लिया। उन्होंने फोन पर ख़बर की है। काफी देर बाद पुलिस ने उन्हें इस शर्त पर छोड़ा कि वह मंदसौर जाने का इरादा छोड़कर वापस लौट जाएं। मध्य प्रदेश में किसान यात्रा के समन्वयक और बैतूल के पूर्व विधायक डॉ.सुनीलम की गिरफ्तारी की ख़बर से काफी गहमागहमी का माहौल था।
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कुछ देर बाद जोरावर तो आ गए। कल ही जंतर-मंतर से निकले योगेंद्र यादव भी पहुंच गए थे। सारे बैठकर आगे की रणनीति पर बात कर ही रहे थे कि जोरावर ने अपना फोन लाकर वीएम सिंह को पकड़ा दिया। लाइन पर दूसरी ओर कोई पुलिस वाला था, जो जोरावर से इस बात की तस्दीक़ करना चाहता था कि वह वापस हापुड़ लौट गए हैं। ख़ैर, वीएम सिंह ने अपना परिचय देते हुए थोड़ी तल्ख़ी से पूछा कि पिपलिया मण्डी जाने में क्या हर्ज़ है या वहां जाने से पहले अफसरों से पूछने की ज़रूरत क्यों होगी? बात इस नुक़्ते पर ख़त्म हुई कि एसपी ख़ुद ही पाटीदार धर्मशाला चले आएं और वहीं आकर बात करें। थोड़ी देर पहले भोपाल के किसी अख़बारनवीस से बात करते वक़्त उन्होंने अपना नाम दो बार बताया, फिर समझाया, ‘हाँ, वी फ़ॉर विक्टिमाइज़्ड। वीरेंद्र मोहन सिंह’. सो एसपी ने जब उन्हें बताया कि वे सभा नहीं कर सकते तो वह फट पड़े, पूछा कि अगर किसी ग़मी के मौके पर किसी के घर जाना हो तो इसमें आपकी इजाज़त क्यों चाहिए?
धर्मशाला की गहमागहमी छोड़कर पानी की बोतल की तलाश में मैं बाज़ार की तरफ निकल आया। चौक पर जाकर एक दुकान पर पूछा। मालूम हुआ कि बोतल ख़त्म हो गई है, पन्नी है। पास की पान की एक दुकान पर पूछा तो उन्होंने भी इनकार में सिर हिलाया। मगर मैं आगे बढ़ता, इसके पहले ही वह बाहर निकल आए और पड़ोस की एक दुकान तक छोड़कर आए। गाँव-खेड़ा कितना ही बड़ा क्यों न हो, बाहर वाले को लोग आसानी से पहचान लेते हैं। और मेरे पास तो कैमरा भी था। वहां दुकानदार ने सवालिया निगाह उठाई।
मैंने कहा, ‘पानी चाहिए।’ वह तुरंत उठे, काउण्टर के नीचे से लिम्का की एक ख़ाली बोतल उठाई और अपने वॉटर जग से पानी भर लाए। जिन्हें गंवई रवायत का अंदाज़ा नहीं है, उन्हें शायद इस बात पर हैरत हो कि गाँव के लोग अब भी इस बात पर यकीन करते हैं कि पानी पिलाना पुण्य का काम है। पानी बेचने की चीज़ नहीं है। ख़ैर, मैंने उन्हें अपना मंतव्य बताया। इस बार उन्होंने बताया कि बिजली नहीं आई है तो बोतल ठंडी नहीं है। मुझे पानी चाहिए था, जो था, वही लेकर निकल आया। और हां, चौराहे की एक दुकान पर बिना चीनी की चाय भी पी। मेरे बताने के बाद उन्होंने भगौना साफ करके पानी-दूध चढ़ाया, ताज़ी पत्तियां डालीं और ख़ूब खौलाकर शीशे के छोटे ग्लास में चाय छानी। इसके लिए मुझे चुकाने पड़े, कुल पांच रुपये.।
सैलून पर रुककर बंधु-बांधवों की जिज्ञासा का जवाब देते, सलाम क़बूल करते मैं धर्मशाला लौटा तो सांझ घिर रही थी। कुछ बड़ी उम्र के लोग धर्मशाला के सामने बने लम्बे चबूतरे पर जमे हुए थे। धर्मशाला में ऊपर पुलिस और किसान नेताओं के बीच सभा और यात्रा को लेकर बातचीत चल रही थी। अफसर सरकारी अनुशासन और आदेश से बंधे थे। ज़ाहिर है कि वे अपनी ओर से न तो कोई फ़ैसला ले सकते थे और न ही कोई रियायत दे सकते थे। देश भर से जुटने वाले किसानों के संघर्ष के अगुवा भी यह बात अच्छी तरह जानते थे। मगर वे यह भी मानते थे कि अगर वे अपने तयशुदा कार्यक्रम से ज़रा भी पीछे हटे तो लोगों की उम्मीदों को झटका लगेगा। सो दो बार की बातचीत का कोई नतीजा न निकलना था, न निकला। अगले रोज़ के संघर्ष की बुनियाद पड़ चुकी थी।
तब तक अंधेरा हो चुका था। बाहर से माइक्रोफोन जांचने और खरखराने की आवाज़ पर खिड़की से बाहर झांका तो देखा कि सड़क पर बैठने का इंतज़ाम हो गया था। हरे गलीचे बिछ चुके थे। दो ट्रालियों को जोड़कर मंच बन गया था। शहीद किसानों की तस्वीरों वाला बैनर टंग गया था। अफसरों की इजाज़त के बगैर ही जनसभा की तैयारी पूरी हो गई थी। धर्मशाला में जुटे सारे लोग नीचे उतरकर सड़क पर आ गए। माइक का टेस्ट हो चुका था। महफ़िल जम गई। भाषणों के बीच ही शेतकरी संगठन स्वाभिमानी के सांसद राजू शेट्ठी भी बस भर साथियों को लेकर वहां पहुंच गए। वे पुणे से लगातार चलकर आए हैं। सभा में और जोश आ गया। केंद्र की सरकार में साझीदार दल के सांसद जो हैं। मंच से ललकार गूंज रही थी, वक्ताओं के निशाने पर पुलिस और सरकार थे। अगले रोज़ सुबह जुटने के संकल्प के साथ देर रात को सभा विसर्जित हुई।
वापस धर्मशाला पहुंचे। वहां बड़े-बड़े भगौने, कड़ाह आंच पर चढ़े थे। परातें कचौड़ियों से भरी हुईं। बरामदे में पंगत बैठी। खाने-पीने का दौर चल ही रहा था कि रामपाल जाट आ पहुंचे। उनके साथ ही तिजारा के पुराने विधायक और मेवात किसान पंचायत के अगुवा अयूब ख़ान भी थे। बड़ी गर्मजोशी से गले मिले, नौ तारीख को राजस्थान में गांव-कर्फ्यू की सफलता तफ़सील से बताई। लोग खाने में मशगूल थे और मेरी चिंता यह थी कि मोबाइल की बैटरी और पॉवर बैंक दोनों चुक गए थे। धर्मशाला में जितने भी प्वाइंट थे, सब जगह पहले से मोबाइल चार्ज होते मिले। कई जगह तो लोग ख़ुद जमे बैठे थे कि कहीं कोई उनका चार्जर हटाकर अपना न लगा दे।
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बाद में आगे के सफ़र में जान पाया कि मोबाइल चार्जर, चार्जिंग प्वाइंट, टूथ पेस्ट, साबुन और पानी की बोतल आपकी व्यक्तिगत तभी तक है, जब तक आपकी निगाह में है। वरना आपसे पूछे बगैर कोई भी आपकी बोतल से पानी पी सकता है और आपका फोन हटाकर आपके चार्जर से अपना फोन लगा सकता है। मगर बूढ़ा में हमारा वह पहला दिन था और तब तक इन व्यावहारिक बातों का इल्म न था सो वहां खाना खिला रहे एक युवक से आग्रह किया कि वह मेरा पॉवर बैंक घर पर चार्ज करके सुबह मुझे दे दे।
दिलीप पाटीदार ने मुझसे पॉवर बैंक लेकर अपना फोन नम्बर दिया। वादा किया कि सुबह आते ही वह मुझे फोन कर देगा। अपनी इस पॉवर क्राइसिस के समाधान के बाद मैं भी खाने बैठा- बड़ी-बड़ी पूड़ियां, अरहर की दाल और ज़र्दा पुलाव। ज़र्दा ज़ाहिर है कि मेरे लिए नहीं था मगर पास ही बैठे वीएम सिंह ने इतनी वाह-वाह के साथ फिर से ज़र्दा मांगा कि थोड़ा मैंने भी ले लिया। इतने सारे लोगों के बीच सोने का तर्जुबा बरसों पीछे छूट गया था मगर थकान इस क़दर थी कि कुछ और सोचने से पहले नींद आ गई।