दिल्ली की आबोहवा गन्दी हुई है दिल्ली वालों के कारण लेकिन दोष दे रहे हैं पंजाब और हरियाणा को। दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल जितना समय नरेन्द्र मोदी को कोसने में लगाते हैं उसका आधा भी यदि अपने प्रदेश की जनता के कल्याण के लिए लगाएं तो भला हो सकता है। केजरीवाल ने सम और विषम नम्बरों की गाड़ियां चलवाकर देखा, डीजल की गाड़ियां बन्द कराकर देखीं और सोचा हो गया काम।
वास्तव में जल प्रदूषण पर सभी का ध्यान जाता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष होता है लेकिन वायु प्रदूषण सामान्य दिनों में देखा नहीं जा सकता इसलिए उस पर ध्यान नहीं जाता जब तक वह स्मॉग नहीं बन जाता यानी फॅाग और स्मोक का जहरीला मिश्रण नहीं बनता।
स्मॉग वह हवा है जिसमें फाग के साथ नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड, ओज़़ोन, कार्बन मोनो ऑक्साइड आदि रहती हैं और जो कोयला के जलने, औद्योगिक चिमनियों, वाहनों के धुआं और जंगलों तथा खेतों की अपशिष्ट फसल के जलने से निकलने वाली गैसों का मिश्रण है। ये गैसें प्राणवायु अर्थात ऑक्सीजन को खा जाती हैं, फेफड़ों के अन्दर की भी ऑक्सीजन को। इसके कारण मनुष्य का जीवन छोटा हो सकता है और मौत भी हो सकती है। कहते हैं दिल्ली के स्मॉग के 80 प्रतिशत की जिम्मेदारी दिल्ली वालों की और केवल 20 प्रतिशत के लिए हरियाणा और पंजाब के खेतों से आया धुआं जिम्मेदार है।
हरियाणा और पंजाब के किसान अपने खेतों में आग लगाते हैं बचे हुए फसल अपशिष्ट को जलाने के लिए जिससे कार्बनडाइऑक्साइड के साथ अन्य गैसें भी निकलती हैं। इससे किसान के मित्र बैक्टीरिया भी जलकर नष्ट हो जाते हैं। जो फसल अपशिष्ट वे जलाते हैं क्या वह किसी उपयोग में नहीं आ सकता? जब टिम्बर, घास, पत्तियां आदि काम आ जाती हैं कागज बनाने में तो फसल अपशिष्ट क्यों नहीं। कागज को पेपर कहने का कारण है इसका पहले पेपाइरस घास से बनाया जाना। पेपर मिलों से बात करके लुग्दी बनाने में यदि खेतों के अपशिष्ट का उपयोग हो सके तो प्रदूषण से बचेगा दिल्ली और लाभ हो सकता है किसानों का।
हमने उत्तर प्रदेश के गाँवों में देखा है कि हारवेस्टर से गेहूं के कटने के बाद किसान अपने जानवरों के लिए खेत में बचे पौधों से भूसा बनवाते हैं, शायद सौ रुपया एकड़ पड़ता है। कीटनाशकों के अति प्रयोग के कारण यह भूसा कहीं जहरीला तो न होगा इसकी जांच करनी होगी। वैसे यह लांक यानी फसल के बचे पौधे पेपर मिल में काम आ सकते हैं लेकिन वहां तक पहुंचाने में काफी खर्चा होगा इसलिए यदि लघु उद्योग के रूप में इसकी खपत स्थानीय रूप से हो सके तो लाभकर होगा। दूसरे देशों से उपयोगी बातें सीखने में संकोच नहीं होना चाहिए।
कहते हैं इंग्लैंड में बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में स्मॉग से 4000 लोगों की जान गई थी। अब भी चीन के बीजिंग, फ्रांस के पेरिस, अमेरिका के सेन्फ्रान्सिस्को, मैक्सिको और दुनिया के तमाम शहरों में स्मॉग की समस्या रहती है लेकिन वे कुछ न कुछ उपाय खोजते रहते हैं। गाडि़यों की संख्या घटाना, ईंधन की गुणवत्ता बढ़ाना, पब्लिक ट्रान्स्पोर्ट को दुरुस्त करना, सोलर पावर का प्रयोग और इसी प्रकार के उपायों पर सोचना चाहिए। मोदी जी लोगों से सब्सिडी त्यागने का निवेदन करते हैं और उसका प्रभाव भी होता है लेकिन राजनेता हजारों गाडि़यों का कारवां लेकर चलते हैं, मंत्रियों के कारवां के साथ दर्जनों गाडि़यां रहती हैं और दिल्ली जैसे शहरों से धुआंरहित वाहन गायब हो चुके हैं, इस पर भी अपील करनी चाहिए।
हमारे राजनेता आपस में गाली-गलौज करने के बजाय यदि वैज्ञानिकों के पास जाएं और उनसे फसल अपशिष्ट के उपयोगी विसर्जन का उपाय खोजने को कहें तो कुछ रास्ता जरूर निकलेगा। यदि यह अपशिष्ट भूसा चारा के रूप में प्रयोग नहीं हो सकता और पेपर मिल में भी खपत सम्भव नहीं तो मशरूम उत्पादन और मुर्गी पालन में काम आ सकता है। जहां पर हजारों लाखों लोगों के जीवन मरण का प्रश्न हो वहां आय-व्यय का लेखा-जोखा नहीं करना चाहिए। सवाल है हम कीमती जानें बचाने के लिए कुछ करेंगे या फिर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहेंगे और मौत का इन्तजार करेंगे।
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