भारत की 65 प्रतिशत आबादी ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, जबकि सिर्फ 33 प्रतिशत स्वास्थ्य सुविधाएं ही उन्हें मिल रही हैं। ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा तीन स्तर पर काम करता है, जिसमें एक उप-केंद्र, एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) शामिल हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार इन प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 3,000 से अधिक डॉक्टरों की कमी है, जो पिछले 10 सालों में 200 प्रतिशत या कहें तीन गुना तक बढ़ गई है।
कई अन्य कारणों और कोरोना महामारी की दूसरी लहर के कारण ग्रामीण भारत में संक्रमण के मामलों में तेजी आई है, जो अब तक बेहतर कर रहा था। रिपोर्टों के अनुसार दिल्ली और मुंबई जैसे शहर भारी संकट में हैं, जो सच है, लेकिन गाँवों के हालातों की भी उपेक्षा हुई, जहां स्वास्थ्य कर्मियों, ऑक्सीजन और उचित सुविधाओं की जबरदस्त कमी है।
ग्रामीण डरे और सहमे हुए है। पहली लहर के चले जाने के साथ ज्यादातर लोग बीमारी के बारे में भूल गए थे। खासकर ग्रामीण इलाकों में, क्योंकि इसका असर उतना महसूस नहीं हुआ था, लेकिन कुछ हफ्ते पहले मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के एक दूरस्थ ब्लॉक पेटलावद में दूसरी लहर के रूप में लगभग हर तीसरे ग्रामीण में लक्षण दिखाना शुरू हो गए और कोई भी इसके लिए तैयार नहीं था।
ऐसे में वहां मौजूद स्वास्थ्य व्यवस्था का बुनियादी ढांचा महामारी से लड़ने के लिए तैयार नहीं था। वहां मौजूद कुछ मेडिकल अपने परिवार और अपनी सुरक्षा के डर के कारण मरीजों का इलाज करने में झिझक रहे हैं। दूसरी लहर ग्रामीणों के रोजगार को खत्म कर रही है और उनके अपनों को उनसे दूर ले जा रही है।
झोलाछाप डॉक्टरों पर किया भरोसा
पिछड़ेपन और किसी घटना के कारण ग्रामीण भारत के लोग एलोपैथिक डॉक्टरों के इलाज और अच्छा स्वास्थ्य सुविधाओं पर आसानी से भरोसा नहीं करते हैं। जितने लोग संक्रमित हुए उन्होंने अपने इलाज के लिए नाड़ी बाबाओं या झोलाछाप डॉक्टरों के पास जाना उचित समझा। कई लोगों ने अपने लक्षणों को छुपाया, ताकि डॉक्टरों के पास जाने और कोरोना के कलंक का सामना करने से बचे रहें।
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इस अविश्वास को समझने के लिए ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन (टीआरआईएफ) ने मध्य प्रदेश के झाबुआ में 4 मई से 19 मई तक 300 लोगों के बीच एक सर्वे किया।
सर्वे के आंकड़ों से पता चलता है कि 38 प्रतिशत ग्रामीणों ने अपने इलाज के लिए झोलाछाप डॉक्टरों और नाड़ी बाबाओं पर भरोसा किया, जबकि 39 फीसदी आबादी सरकारी अस्पतालों में गई। हालांकि उनमें से ज्यादातर भर्ती नहीं होने का विकल्प चुना। बाकी (23 फीसदी) इनमें से किसी के पास जाना पसंद नहीं करते और घर पर ही ठीक होना चाहते हैं।
वैक्सीन को लेकर भी है हिचकिचाहट
इसी सर्वे में टीकाकरण के कुछ आंकड़े भी सामने आए। सर्वे में पाया गया कि केवल 14 प्रतिशत ने टीकाकरण के लिए अपना पंजीकरण कराया और केवल चार प्रतिशत ने आगे बढ़कर टीका लगाया। अधिकांश भारतीय गांवों में यही स्थिति है, जो हर्ड इम्युनिटी ( herd immunity) को दूर की कौड़ी बना देती है।
लेकिन लोग पहली बार में टीका क्यों नहीं लगवाना चाहते हैं ? इनमें से ज्यादातर लोग टीके और एलोपैथिक दवाओं को अचानक और रहस्यमय मौतों के साथ जोड़ते हैं। सर्वे के कई दौर के बाद अधिकांश गांव के निवासी इस बात से सहमत नहीं हैं कि टीकाकरण उन्हें वायरस से बचा सकता है।
टीकों को लेकर अफवाह भी है : लोगों ने अपने क्षेत्रों में हाल ही में हुई कुछ मौतों को वैक्सीन रोलआउट से जोड़ा है, जबकि वास्तविकता इससे कोसों दूर है। कुछ लोगों की मौत उनकी पहले की स्थिति या टीकाकरण के लिए योग्य (गंभीर मेडिकल हिस्ट्री वाले लोग, कमजोर प्रतिरोधक क्षमती, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाएं व शराब पीने वाले) नहीं होने के कारण हुई और उसी के बारे में गलत सूचना दी गई थी। अधिकांश लोगों ने वैक्सीन लेने से पहले डॉक्टर से सलाह नहीं ली और इसके कारण गंभीर स्वास्थ्य परिणामों का सामना किया।
इसके अलावा रोलआउट में भी दिक्कत आई थी। अधिकारियों द्वारा टीकों को सही तापमान पर संग्रहीत नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करने की सुविधाएं अक्सर ग्रामीण क्षेत्रों में मौजूद नहीं होती हैं।
जांच का अभाव और गलत इलाज
जहां सर्वे, टीकाकरण और डॉक्टरों के बारे में लोगों की आशंकाओं को समझने में मददगार था, वहीं आंकड़ों ने यह भी पता चला कि कोरोना-19 से मौतों के बारे में एक अविश्वास था। अधिकांश मौतों को टाइफाइड के लिए जिम्मेदार ठहराया गया था, न कि कोविड-19 को। क्योंकि ग्रामीणों ने झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज कराया और उन्हें टाइफाइड बताया गया। इन मरीजों ने दवाएं भी लीं, लेकिन आरटी-पीसीआर टेस्ट कराने से मना कर दिया।
उनमें से कुछ ठीक हो गए, क्योंकि उनका संक्रमण गंभीर नहीं था, लेकिन कई जिंदा नहीं बचे क्योंकि उन्हें सही इलाज और देखभाल नहीं मिली। उनकी बीमारी का कभी पता नहीं चला, क्योंकि उन्होंने टेस्ट कराने से इनकार कर दिया था। ऐसे में मौत कैसे हुई इसका सही कारण नहीं मिल सकता।
क्या किया जा सकता है, जिससे हालात इतने भयावह न हों
ग्रामीणों के साथ बातचीत को जारी रखना और उन्हें सही जानकारी प्रदान करना जरूरी है। ऐसा करने के लिए जमीनी स्तर के संगठनों को संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिससे कमजोर समुदायों की मदद हो सकती है।
यह स्वास्थ्य कर्मचारी और सामाजिक कार्यकर्ताओं दोनों के लिए महत्वपूर्ण है कि वे महसूस करें कि उन्हें समर्थन मिल रहा है और उन्हें माना जा रहा है।
जमीनी स्तर पर काम करने वाले संगठन भी स्वास्थ्य के इस संकट को समझ रहे हैं। उदाहरण के लिए, टीआरआईएफ जनजातीय आबादी को शिक्षित करने और अपने समुदाय के लोगों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने के प्रयास कर रही है।
सबसे जरूरी उन्हें सही इलाज लेने के लिए आश्वस्त करना महत्वपूर्ण है। सरकार और साथ ही गैर-लाभकारी संस्थाओं को आवश्यक उपकरण और संसाधन प्रदान करने के लिए उनका समर्थन करना चाहिए और उन्हें आश्वस्त करना चाहिए कि उन्हें इस महामारी से लड़ने के लिए अकेला नहीं छोड़ा जाएगा।
शहरी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए इस समस्या को स्वीकारना जरूरी है। भारत के ग्रामीण इलाकों के बारे में जानना जरूरी है, जहां हर 10,000 लोगों पर केवल एक एलोपैथिक डॉक्टर उपलब्ध है। दूसरों को शिक्षित करना भी जरूरी है।
आखिर में यदि आप करना चाहें तो उन संगठनों का समर्थन कर सकते हैं, जो इन समुदायों की सेवा के लिए अथक प्रयास कर रहे हैं।
इस खबर को अंग्रेजी में यहां पढ़ें-
(लेखक संजना कौशिक ट्रांसफॉर्म रूरल इंडिया फाउंडेशन (टीआरआईएफ) में ब्लॉक एंगेजमेंट मैनेजर हैं। वह झाबुआ, मध्य प्रदेश के जनजातीय क्षेत्रों में यहां रहने वाले समुदायों के लिए काम करती हैं और ब्लॉक परिवर्तन कार्यक्रम को सपोर्ट करती हैं। आप टीआरआईएफ के योगदान के बारे में यहां पढ़ सकते हैं।)