रमनदीप सिंह मान
दिल्ली में फैले वायु प्रदूषण के कई कारण हैं। इनमें से एक कारण ठूंठ का जलना भी है। नवंबर आते ही दिल्ली में बिगड़ती वायु प्रदूषण को लेकर लोग हो हल्ला शुरू कर देते हैं। एनजीटी राज्य सरकारों की खिंचाई शुरू कर देती है। राज्य सरकारें एक दूसरे पर आरोप मढ़ना शुरू कर देते हैं। केंद्र सरकार को भी इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। कुछ समय के लिए इस परिस्थति से बचने के प्रयास किए जाते हैं और फिर सब कुछ पहले जैसा हो जाता है। जीवन आगे बढ़ता है और अगले सत्र में एक बार फिर दोषारोपण का खेल शुरू हो जाता है।
एक बात जो बहुत स्पष्ट रूप से समझने की जरूरत है वो यह है कि पुआल जलाने से किसानों को क्या नुकसान होगा, वे इस बारे में अच्छी तरह जानते हैं। वे जानते हैं कि पुआल जलाने से उनके खेतों की मिट्टी की गुणवत्ता को नुकसान पहुंचाता है और वायु प्रदूषण का कारक बनता है, जिससे वे स्वयं प्रभावित होते हैं। लेकिन वे करें क्या, उनके पास और कोई विकल्प है ही नहीं है। इससे पहले धान की कटाई हाथों से होती थी। कटाई ऐसी होती थी कि पुआल को एकत्र कर गठरी बांधने में आसानी थी।
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हार्वेस्टर के आने के बाद अब धान की कटाई से लेकर पूरी फिनशिंग में काफी कम समय लगता है। कटाई का खर्च लगभग 1200 से 1500 रुपए प्रति एकड़ आता है। एक एकड़ धान की कटाई में ज्यादा से ज्यादा एक घंटे का समय लगता है। जबकि मैन्युअल रूप से किए इसी काम का खर्च प्रति एकड़ 5000 रुपए बैठता था। लेकिन हार्वेस्टर की गड़बड़ी यह है कि धान के पौधे का 20% हिस्सा ही वो काट पाता है, बाकी का 80 प्रतिशत भाग खड़ा ही रहता है। ये 12-15 इंच के डंठल जो खेतों में खड़े रह गए, समस्या यही हैं।
गेहूं के भूसे के विपरीत उच्च सिलिका सामग्री के कारण चावल का भूसा कम पोषक होता है, जिस कारण ये पशुओं के लिए भी अनुपयोगी है। अक्टूबर के अंत में धान की कटाई के बाद गेहूं की फसल लगाने के लिए लगभग 15 दिन का अंतर रहता है। ऐसे में किसान अपना खेत जल्दी तैयार करने के लिए सबसे सस्ता और आसान तरीके अपनाता है। पुआल जलाकर। आदर्श रूप से गेहूं की बुवाई 15 नवंबर तक समाप्त होनी चाहिए, अगर ऐसा नहीं होता तो प्रति एक एकड़ में लगभग 1.5 क्विंटल का नुकसान प्रति सप्ताह होने लगता है।
इसका एक संभावित समाधान है। धान की कटाई के लिए हार्वेस्टर में सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएसएमएस) को फिट कर दिया जाए और फिर बुवाई के लिए हैप्पी सीडर उपयोग किया जाए। सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएसएमएस) यह सुनिश्चित करेगी कि संयंत्र से फसल छोटे टुकड़ों कटे और क्षेत्र में एक समान रूप से फैले। मौजूदा हार्वेस्टिंग को सुपर स्ट्रॉ मैनेजमेंट सिस्टम (एसएसएमएस) के साथ अपग्रेड करने के लिए शुरुआत 1.5 लाख रुपए से है। इन मशीनों के मालिकों को 500 रुपए प्रति एकड़ में अपनी व्यय बढ़ानी होगी क्योंकि उनकी दैनिक कटाई क्षमता कम हो जाएगी। धान के एक एकड़ में फसल लगाने के लिए 1700 रुपए से 2000 रुपए की बढ़ोतरी होगी। अन्य लागतों में एक हैप्पी सीडर के लिए 1.5 लाख रुपए का निवेश शामिल होगा।
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सिक्के का दूसरा पहलू ये भी है कि इन राज्यों का कोई भी किसान इन अतिरिक्त खर्चों को सहन नहीं करेगा। लागत में बढ़ोतरी और लाभ कम होने से किसान समुदाय की रीढ़ वैसे ही टूट चुकी है। इसलिए किसानों को पुआल को जलाने को रोकने के लिए प्रोत्साहित करने के लिए आर्थिक प्रोत्साहनों की आवश्यकता है। पुआल जलाने से रोकने के लिए किसानों को वित्तिय मदद देने की आवश्यक है। यह जरूरी है कि इसके लिए केंद्र उन किसानों को क्षतिपूर्ति देने की बात कहे जो पुआल नहीं जलाएंगे। पंजाब सरकार केंद्र से किसानों को 100 रुपये प्रति क्विंटल का भुगतान करने के लिए कह रही है ताकि वे इसे पुआल की देखभाल कर सकें, बिना जलाए। इसमें कुल खर्च करीब 2,000 करोड़ रुपए का आएगा।
एक पत्थर से दो चिड़िया मारी जा सकती है। इसलिए पंजाब में वायु प्रदूषण और भू-जल की समस्या को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मक्के की खेती को प्रोत्साहित किया जा सकता है। योजना के मुताबिक पंजाब सरकार धान के रकबे को 12 लाख हेक्टेयर (2012-13 और 2017-18) में कम करना चाहती है। वहीं मक्के की खेती के रकबे को 5 लाख हेक्टेयर तक करना चाहती है।
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यह योजना पेपर पर रही क्योंकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर मक्का की खरीद करने में असफल रही है, जिसे इस तथ्य से देखा जा सकता है कि पिछले खरीफ सीजन में केवल 1.35 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में मक्का था और इस क्षेत्र का 1.15 लाख हेक्टेयर कंडी बेल्ट में था यानी पठानकोट, रोपर, होशियारपुर, मोहाली, नवनशहर, रोपर। यदि केंद्र मक्का से इथेनॉल का उत्पादन करने की अनुमति देता है तो मक्का से धान के विविधीकरण को एक बड़ा बढ़ावा मिल सकता है। धान से मक्का के लिए यह स्विच निश्चित रूप से धान के पुआल की मात्रा को कम कर देगा।
एक अन्य वैकल्पिक दृष्टिकोण भी है जो फायदेमंद हो सकता है कि फॉस्फो कंपोस्ट में ठूंठी की समस्या से निपटने के लिए मनरेगा मजदूरों की मदद ली जाए। यह कार्यक्रम पहले से ही भटिंडा और तरण-तारण जिलों में चल रहा है। इस पहल के तहत मनरेगा के मजदूरों का इस्तेमाल धान की खाल को इकट्ठा करने के लिए किया जाएगा फिर उन्हें गड्ढों में दबा दिया जाएगा। मिट्टी से ढंके उस जमीन पर गेहूं की बुवाई की जाएगी। गेहूं कटाई के 6 महीने बाद धान की ठूंठ खाद में बदल जाएगा जिसका खेतों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस योजना के माध्यम से पंजाब सरकार कम से कम 10 लाख छोटे और सीमांत किसानों के क्षेत्र का प्रबंधन करने की कोशिश कर रही है।
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पुआल जलाने की वजह से वायु प्रदूषण एक समस्या है और अन्य समस्याओं की तरह भी इसका हल है। लेकिन किसानों को दोष देने और दंडित करने का दृष्टिकोण सही नहीं है। दोषारोपण के खेल ने आज तक किसी भी एक की मदद नहीं की है। इससे आने वाले समय में भी इस समस्या से निजात नहीं मिलेगी। इस मुद्दे का हल नीतियों को तैयार करने से हो सकता है जो कि धान से वैकल्पिक फसलों में विविधीकरण को प्रोत्साहित करे और किसानों को उचित वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करें। ये मदद उन किसानों को मिले जो धान के पुआल को नहीं जलाते और पुआल प्रबंधन मशीनरी के खर्च पर सब्सिडी मिले।
(लेखक कृषि विशेषज्ञ हैं)