बजट से छोटे किसानों को ज्यादा लाभ मिलेगा

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अरुण जेटली ने अपना तीसरा आम बजट पेश किया। इसे कुछ लोग क्रान्तिकारी कुछ सामान्य और कुछ गाँव-गरीब का विकासोन्मुखी बजट कहते हैं। वैसे यह बजट गाँवों की बातें काफी करता है परन्तु इसमें महात्मा गांधी के सपनों का ग्राम स्वराज नहीं है और न ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का स्वदेशी सोच है। फिर जब दुनियाभर में मन्दी का दौर हो तब इन्फलेशनरी (महंगाई लाने वाला) बजट एक मजबूरी बन जाती है। सेवा कर बढ़ाकर जेटली ने यही करने का प्रयास किया है।

पुराने समय में टैक्स लगाकर जब पैसा वसूला जाता था तो उसे विविध नामों से पुकारते थे जैसे जजि़या, घरी, चारा, उशरफ, ज़कात, चौथ या सरदेशमुखी। इनमें से अधिकांश तो किसानों से सम्बन्धित थे, पर अब समय बदल चुका है। अब कर वसूली की समस्याएं बढ़ी हैं कर चोरी से काला धन और आयकर विभाग से करदाताओं का उत्पीडऩ।

जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने स्वतंत्र भारत में टैक्स की जो दरें लगाई थीं उनके अनुसार कुछ उद्यमियों और उद्योगपतियों पर तो 100 रुपया कमाने पर 90 रुपया तक टैक्स लग जाता था। ऐसे में लोगों ने अपनी आमदनी का खुलासा करना ही बन्द कर दिया और यहीं से विदेशों में काला धन जमा होने लगा। इसे वापस लाना आसान नहीं। कर प्रणाली बदलने की आवश्यकता है जिससे काला और सफेद धन का चक्कर समाप्त हो जाए।

बजट से पता लगना चाहिए कि पैसा आया कहां से और गया कहां। बजट में आय के पक्ष में विदेशी निवेशकों पर निर्भरता अधिक है और गाँवों में श्रम से स्वदेशी पूंजी सृजन पर जोर नहीं। बचत से स्वदेशी पूंजी मिलती है लेकिन उसे हतोत्साहित किया गया है। बातों-बातों में जेटली ने कहा भी खूब कमाएं और खूब खर्चा करें, लेकिन पुश्तैनी किसानों के लिए  मनरेगा में कुआं, तालाब खोदने के अलावा कुछ अधिक नहीं सोच पाए।

एक बड़ा वर्ग है छोटे किसानों का जिनमें आते हैं अनेक डाक्टर, इंजीनियर, सेठ-साहूकार, सोन-चांदी के व्यापारी, पुलिस और प्रशासन के अधिकारी, वकील, राजनेता तथा दूसरे तमाम लोग जो काले धन को सफेद करने के लिए किसान बने बैठे हैं। इन्होंने किसी भी दाम पर खेती की जमीन खरीदी है चाहे उस पर खेती करें या न करें। अपनी काली कमाई को खेती की कमाई बताकर सफेद कर लेते हैं क्योंकि खेती की कमाई पर टैक्स नहीं पड़ता। गाँवों के विकास का असली लाभ इन्हीं छद्म किसानों को अधिक मिलेगा। 

डीजल कारें, हवाई यात्रा और होटल का खाना, ब्यूटी पार्लर महंगा हुआ या सस्ता इससे गरीब किसान का कुछ लेना-देना नहीं है। अमेरिका की बड़ी कम्पनी किसानों से सीधे कच्चा माल खरीदेंगी लेकिन हमारे किसान का माल उस स्तर का होगा नहीं जिसका उचित मूल्य मिल सके। छद्म किसान जो अपने को प्रगतिशील किसान कहते हैं इसका लाभ उठा सकेंगे। यदि हमारे देश का शिक्षित नौजवान गाँव में कुटीर उद्योग लगाकर किसान से माल खरीद कर सामान तैयार करना चाहे तो उसके लिए क्या प्रोत्साहन है बजट में? 

आधारभूत सुविधाएं जुटाने का संकल्प तो बजट में है जैसे हाईवे या स्वर्णिम चतुर्भुज की बात लेकिन नदियों को जोडऩे की बात नहीं हुई है। स्किल विकास की बात तो है लेकिन गाँववालों को मनरेगा के माध्यम से वही फावड़ा चलाने का काम मिलेगा। बेहतर होता गाँवों में यंत्रों और मशीनों के कलपुर्जे बनाने का स्किल विकसित होता और उन्हें बनाया जाता और कस्बों या शहरों में उन्हें असेम्बल किया जाता। 

हमारी कर प्रणाली को सरल करने की आवश्यकता है। जिस तरह चुनाव सुघार और भूमि सुधारों को लागू किया गया है उसी तरह कर सुधारों को भी लागू किया जाना चाहिए। एक सुझाव आया है कि टैक्स आमदनी पर नहीं खर्चे पर लगना चाहिए। ऐसा सुझाव पचास-साठ के दशक में डॉ. राम मनोहर लोहिया ने दिया था जो एक अर्थशास्त्री थे परन्तु उस समय की सरकार ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। कम से कम अब यह तो सोचना होगा कि छद्म किसानों को काला धन सफेद करने का मौका न मिले।

sbmisra@gaonconnection.com

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