पिछले कुछ दिनों में हिमालय क्षेत्र में अफगानिस्तान से लेकर म्यांमार तक अनेक बार भूकम्प के झटके महसूस किए गए और उनका प्रभाव भारत के मैदानी इलाकों में भी महसूस किया गया। भले ही जानमाल का नुकसान पिछले साल जितना नहीं रहा लेकिन तीव्रता कम नहीं थी। पिछले साल नेपाल और उत्तरी बिहार के इलाकों को भूकम्प ने झकझोर दिया था, त्राहि त्राहि मची थी। मन में आना स्वाभाविक है कि क्या हमारा समाज, देश या दुनिया कुछ नहीं कर सकती? कड़वी सच्चाई यह है कि विज्ञान की मदद से हम कुछ हद तक अपना बचाव कर सकते हैं और नुकसान कम कर सकते हैं। पुराने समय में यह भी सम्भव नहीं था।
विज्ञान ने जानकारी उपलब्ध कराई हैं किन स्थानों पर भूकम्प और ज्वालामुखी आने की अधिक सम्भावना है। उसी प्रकार जैसे हमें पता हो शेर की मांद कहां है। इस जानकारी के आधार पर हम शेर की मांद से दूर रहेंगे और यदि पास जाना बेहद जरूरी होगा तो पूरी सावधानी और तैयारी के साथ जाएंगे। जिन देशों को भूकम्प और ज्वालामुखी का प्राय: सामना करना पड़ता है उन्होंने यह सावधानी बरतना सीख लिया है।
हमारा विज्ञान यह तो बता पाता है कि भूकम्प की सम्भावना कहां अधिक है और कहां कम लेकिन यह नहीं बता पाता कि भूचाल कब आएगा। गाँव की भाषा में कहें तो यदि एक मैदान में जलते चूल्हों पर सैकड़ों पतीलियां चढ़ी हों जिनमें पानी हो और जिन पर ढक्कन रखा हो। यह बताना तो सम्भव हो सकता है कि किस पतीली के ढक्कन को भाप अस्थिर कर रहीं है परन्तु यह नहीं कि कौन सा ढक्कन कब भाप से उठा दिया जाएगा।
दुनिया के जिन भागों में प्राय: भूकम्प और ज्वालामुखी की घटनाएं होती रहती हैं उनमें प्रशान्त महासागर के तटीय भागों में बसे देश प्रमुख है। जापान, चीन, इंडोनेशिया हमारे पूर्व में और अमेरिका, मैक्सिको, ब्राजील, चिली आदि हमारे पश्चिम में। इसके अलावा भारतीय भूभाग के उत्तर में म्यांमार से चलकर हिमालय श्रृंखला यूरोप के आल्प्स पर्वत में मिलती है और एक अस्थिर बेल्ट बनाती है।
भारत को स्थिरता के हिसाब से तीन भागों में बांट सकते हैं पहला तो दक्षिण का पठारी भाग जो मजबूत और स्थिर माना जाता रहा है और दूसरा उत्तर में हिमालय जो निरन्तर अस्थिर है और जिस भाग में ही अधिक भूकम्प आते हैं। इन दोनों के बीच में गंगा यमुना का मैदान है जिसके नीचे हजारों फिट गहरी बालू है। अब यदि बड़े बांध बनाने हों या नए शहर बसाने हों तो स्थिर भागों का ही चुनाव करना होगा।
कभी-कभी स्थिर भागों में भी परियोजनाएं भूगर्भीय कारणों से प्रभावित हो जाती हैं जैसे महाराष्ट्र के कोयनानगर बांध के साथ 1968 में हुआ था। कुछ लोगों का मानना है कि कोयना नगर भूकम्प आया ही कोयना बांध के कारण, परन्तु यह प्रमाणित नहीं है। फिर भी यदि छोटे बांधों और जलाशयों से काम चल सके तो बड़े बांध न बनाए जाएं और अस्थिर पर्वतीय क्षेत्रों में तो कतई नहीं।
यदि अस्थिर भागों में बड़ी इमारतें बनानी ही हों तो हल्की भवन सामग्री का प्रयोग करना होगा। जापान में लकड़ी के मकान बनाते हैं परन्तु हमारे यहां तो जंगल कटने से लकड़ी की भी कमी है। भूकम्प से निपटने के लिए अलग डिजाइन के मकान बनाने होते है, हमारे पूर्वजों को ज्ञान था। वे ऐसी तकनीक का प्रयोग करते थे जिससे बनी बिल्डिंग में जोड़ होते थे जो शाक ऐब्जार्बर का काम करते थे।
मानव जाति का नुकसान भूकम्प से नहीं बल्कि उसके परिणामों से होता है। विकासशील और निर्धन देशों के भवन उतने मजबूत नहीं होते, बचाव के उतने साधन नहीं जितने विकसित देशों में हैं इसलिए निर्धन देशों में जन धन की अधिक हानि होती है। भूकम्प के कारणों की सतत जानकारी वैज्ञानिक हासिल कर रहे हैं, शायद भविष्य में विकासशील देशों में भी पूर्वानुमान सम्भव हो सके।
दुनिया के विकसित देशों ने भूगर्भ की विषद जानकारी हासिल की है और भूकम्प से निपटने के उपाय खोजे हैं। बिल्डिंग सामग्री, कमजोर इलाकों के लिएं भवन डिजाइन, और कभी कभी भूकम्प का पूर्वानुमान यह सब मानव जाति के हित में उन्हें विकासशील देशों के साथ बांटनी चाहिए। यदि पेटेन्ट कानून बनाकर ज्ञान छुपाते रहेंगे तो अमेरिका, चीन, यूरोप और रूस के भी पर्यटक नेपाल में मरते रहेंगे।