बजट से पहले चर्चा में कृषि का आना शुभ संकेत

देश की मौजूदा माली हालत के नजरिए से भी कृषि क्षेत्र की अहमियत को समझा जाना चाहिए। यह भी देखा जा सकता है कि देश की आर्थिकी में कृषि का योगदान कम नहीं होता।
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यह साल खत्म होने को है। आर्थिक नजरिये से 2019-20 का साल बेहद मुश्किल रहा। पूरे साल हालात संभालने की तरह-तरह की कोशिशें होती नज़र आईं, लेकिन कामयाबी मिलती नहीं दिखी। इसी बीच वित्त मंत्रालय की ओर से नए वित्तीय बजट की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं। फरवरी में पेश होने वाले बजट से पहले विमर्श की प्रक्रियाएं पूरी की जा रही हैं। इसी बीच इस विमर्श में कृषि क्षेत्र का शामिल होना एक शुभ संकेत माना जाना चाहिए।

देश की आर्थिक दशा और दिशा तय करने में बजट की बड़ी भूमिका होती है। बहरहाल, हाल में वित्त मंत्री ने अलग-अलग क्षेत्रों के सम्बंधित संस्थाओं और विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श शुरू किया और अगले बजट के लिए सुझाव मांगे। इस तरह के राय मशविरे की शरुआत आईटी, वित्तीय और उद्योग जगत के प्रतिनिधियों के साथ बैठकों से हुई।

उसी कड़ी में चौथा विमर्श कृषि क्षेत्र से जुड़ी संस्थाओं, विशेषज्ञों और कृषि मंत्रालय के प्रतिनिधियों के साथ किया गया। कृषि संबंधी विमर्श में खासा ध्यान इस बात पर दिलाया गया कि कृषि क्षेत्र में पैसा कैसे पहुँचाया जाए। ज्यादातर सुझाव ये थे कि कृषि और कृषि प्रसंस्करण क्षेत्र में सुधार की जरूरत है। इस जरूरत को समझा जाना एक महत्वपूर्ण घटना बताया जा रहा है।

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फौरी तौर पर मसला बजट पेश करने का है लिहाजा कृषि क्षेत्र से संबधित विमर्श और सुझाव आमंत्रण एक आवश्यक औपचारिकता कही जाएगी। मगर देश की मौजूदा माली हालत के नजरिए से भी कृषि क्षेत्र की अहमियत को समझा जाना चाहिए। यह भी देखा जा सकता है कि देश की आर्थिकी में कृषि का योगदान कम नहीं होता।

देश की आर्थिक दुश्वारियों को बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है। तिमाही आर्थिक वृद्धि दर में लगातार घटान चिंताजनक है। सरकार जी तोड़ कोशिश कर रही है जिससे बाजारों का रुका हुआ चक्का घुमाया जा सके। लगता है कि नीतिकारों को भी समझ आने लगा है कि उत्पादन बढ़ाने के साथ ग्राहकों को भी मजबूत करना पड़ेगा ताकि देश में मांग बढ़ाई जा सके।

यानी उत्पाद की मांग बढ़ाए बगैर बाजार नहीं संभलेंगे और मांग बढ़ाने के लिए ग्राहक यानी देश की जनता की जेब में पैसा चाहिए। जेब तक पैसा पहुंचे कैसे बस सारी कवायद इसी बात के लिए होनी चाहिए और यह मानने में किसी को भी बिल्कुल अड़चन नहीं होनी चाहिए कि अपना देश आज भी कृषि प्रधान देश है। आज भी देश की कुल आबादी का आधे से ज्यादा हिस्सा खेती-किसानी में लगा है। इतनी बड़ी आबादी सिर्फ कृषि उत्पादक ही नहीं बल्कि दूसरे उत्पादों की उपभोक्ता भी है।

ग्राहकों की जेब में पैसा पहुँचाने के लिए सीधे या दूसरे माध्यमों से शहरी ग्राहक के लिए तो फिर भी लोन या टैक्स में कटौती जैसे उपाय सुनने में आए हैं, लेकिन एकमुश्त ग्राहक के रूप में देश का सबसे बड़ा ग्राहकों का तबके यानी गाँव पर उतना गौर अब तक नजर नहीं आया।

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कई जानकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सम्भालने की ओर इशारा तो कर रहे थे लेकिन खुल कर कोई यह नहीं बता रहा था कि देश की आधी से ज्यादा आबादी गाँव में रहती है। यानी विशेषज्ञ जगत यह कहने में संकोच करता रहा कि ग्रामीण भारत देश में एक बड़ा उपभोक्ता भी है। इस बात को कौन नहीं जानता कि भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था आज भी कृषि पर ही निर्भर है। इसलिए ग्रामीण उपभोक्ता की जेब में पैसा उसके व्यवसाय यानी कृषि के माध्यम से ही सबसे सरल तरीके से पहुँचाया जा सकता है।

यह एक शुभ संकेत है कि बजट से पहले चर्चा में सरकार कृषि में जान फूंकने के सुझाव मांग रही है। वित्त मंत्रालय की पहल पर 17 दिसंबर को हुए विमर्श में कृषि एवं कृषि प्रसंस्करण क्षेत्र के प्रतिनिधियों, कृषि मंत्रालय और कृषि अनुसन्धान केंद्र के अध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारियों की मौजूदगी में वित्त मंत्री ने कृषि क्षेत्र में सम्भव सुधारों के लिए सुझाव लिए।

सुझाव देने वालों की तरफ से मुख्य ध्यान कृषि उत्पाद की बिक्री बढ़ाने और कृषि उत्पाद की सही कीमत के निर्धारण पर ही रहा। कृषि के लिए इस्तेमाल होने वाले सामान और मशीनों पर से जीएसटी हटाने का सुझाव दिया गया है जिससे खेती की लागत में कमी लाई जा सके।

इसी के साथ कृषि बाजारों में क्या बदलाव किए जा सकते हैं जिससे किसानों की पहुँच में ज्यादा बाजार आ जाएं इस पर भी विचार-विमर्श किया गया। साथ ही किसान संगठनों ने फिर मांग की कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ज्यादा से ज्यादा खरीद करे। इसके लिए फसलों के भण्डारण की व्यवस्था को बेहतर करने की तरफ भी इशारा किया गया। सुझाव आये कि सरकार खाद्य उत्पादों के भण्डारण में निजी क्षेत्र से ज्यादा मदद ले।

इन सभी कार्यों के लिए संसाधनों की जरूरत पड़ेगी। इसलिए इस विचार गोष्ठी में कृषि में निवेश बढ़ाने की मांग भी रखी गई। यह बात नहीं भूलनी चाहिए कि 2019 के आम चुनावों से पहले वर्तमान सत्ता दल ने अपने चुनावी वायदों में कृषि में हर साल 5 लाख करोड़ खर्च करने का वायदा किया था। उसी लक्ष्य की ओर अगर बढ़ा जाए तो विमर्श में दिए गए सभी सुझावों पर अमल किया जा सकता है।

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इस बजट से पहले चर्चा में सरकार ने कृषि सब्सिडी कितनी और कैसे खत्म की जा सकती है इस पर भी सुझाव मांगे। लेकिन इस समय देश में जो आर्थिक हालात हैं और जिस तरह ग्रामीण व्यक्ति अपनी रोजमर्रा की जरूरतें भी पूरी नहीं कर पा रहा है वैसे में किसी भी तरह की कटौती हालात और बिगाड़ सकती है।

यह बात बार-बार दोहराई जाती रहनी चाहिए कि किसान या ग्रामीण आबादी सिर्फ उत्पादक नहीं उपभोक्ता भी है। और धीमे पड़े बाजारों को दोबारा चलाने के लिए सरकारों को उपभोक्ताओं को मजबूत करना है जिसके लिए उनकी जेब में पैसा पहुंचाए जाने की जरूरत है। इसलिए कृषि सब्सिडी खत्म करने का या उसका विकल्प ढूँढने का यह सही समय नहीं है।

अब तक के विमर्श में प्रधान मंत्री फसल बीमा योजना की नई रूपरेखा बनाने के भी सुझाव दिए गए। बदलते मौसम और बेमौसम बारिश से किसानों की फसल बर्बाद होने की दर बढ़ती जा रही है। ऐसे में नुकसान की भरपाई के लिए एक बेहतर बीमा योजना की बहुत ज्यादा जरूरत है। इसी तरह कृषि सम्बंधित कई क्षेत्रों में सुधार के लिए सुझाव वित्त मंत्री के सामने रखे गए हैं।

उम्मीद है कि आने वाले बजट में इन सुझावों को अमल में भी लाया जाएगा क्योंकि ये सुझाव देश में कृषि क्षेत्र से जुड़े बड़े-बड़े जानकारों और विशेषज्ञों की तरफ से आए हैं। लेकिन देश की मौजूदा आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर यह भी देख लिया जाना चाहिए कि क्या इन खर्चीले उपायों का क्रियान्वयन संभव है?

बजट की तैयारियों के बीच इस बात पर भी गौर कराया जा सकता है कि कृषि क्षेत्र में उत्पादन की मात्रा की समस्या नहीं है। समस्या पर्याप्त कृषि उत्पादन के बावजूद कृषि उत्पादकों की माली हालत की है। यह निष्कर्ष निकालने में किसी को भी दुविधा नहीं होनी चाहिए कि कृषि उत्पाद के वाजिब दाम दिलाए बगैर इस समस्या से नहीं निपटा जा सकता। और अगर कई कारणों से वैसा संभव न हो तो कृषि उत्पादकों को वैसी ही एकमुश्त मदद देने के अलावा क्या चारा बचता है जैसी सीधी मदद कॉरपोरेट जगत को दी जाती है।

(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।) 

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