ये सचमुच भयावह है। कर्ज माफ़ी के ऐलान के बावजूद, किसानों की आत्महत्या का दौर थमा नहीं है। दरअसल लगता है कि कर्ज माफ़ी ने तो किसानों की आत्महत्याओं को और बढ़ा दिया है। मुझे नहीं पता कि इसका कारण गुस्सा है या तनाव, पर लगता है अपनी जान देने वालों को इस कर्जामाफ़ी से कोई वास्ता नहीं।
यद ये कृषि संकट की समस्या इतनी गंभीर और गहरी है कि नीति निर्माता और किसान नेता…कोई भी इसकी नब्ज़ पर हाथ नहीं रख पाया। किसान नेता लगातार सम्पूर्ण कर्ज माफ़ी की मांग कर रहे हैं लेकिन किसानों की आत्महत्याओं के प्रकरण में आती तेजी को देखकर मुझे नहीं लगता कि कर्ज को पूरी तरह से माफ़ करके इस दुःखद प्रकरण को रोका जा सकता है।
पिछले दो हफ्तों में, महाराष्ट्र में 42 किसानों की आत्महत्या दर्ज़ हुई। मराठवाड़ा में 19 से 25 जून यानि सात दिनों के भीतर 19 किसानों ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली। मध्यप्रदेश में पिछले 17 दिनों में 29 किसानों ने ख़ुदकुशी की। वो भी जून 12 से 28 जून के अंतराल में। पंजाब में, जब पंजाब विधानसभा ने 19 जून को बैठक शुरू करते वक्त ऋण माफ़ी की घोषणा की, तब से लगभग दर्जन भर किसान आत्महत्या कर चुके हैं।
क्या ये कृषि ऋण माफ़ी सचमुच महत्वपूर्ण है, या किसान नेताओं की कोई नियमित मांग? कभी-कभी मुझे लगता है इन किसान नेताओं की कृषि संकट पर कोई पकड़ है भी, या इनमें खेती को फायदेमंद बनाने के लिए सुझाव देने की क़ाबलियत ही नहीं है।
महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़नवीस के अनुसार 34 हजार करोड़ की ये कर्ज माफ़ी 89 लाख छोटे और मझोले किसानों को फायदा पहुंचाएगी। अगर ये सही है, तो मैं वहां हो रही किसानों की आत्महत्याओं को समझ नहीं पा रहा हूं। क्यों नहीं किसान कुछ और दिन इंतज़ार नहीं कर सकते थे? जब से पंजाब में छोटे और मझोले किसानों के लिए दो लाख करोड़ की क़र्ज़ माफ़ी का ऐलान हुआ, तब से तो वहां आत्महत्याएं और बढ़ गईं। मध्य प्रदेश में, किसानों के हित में उठाए जा रहे कदमों की जानकारी देने के लिए आयोजित राज्यसरकार की ‘सन्देश यात्रा’ के बावजूद , किसानों की आत्महत्याओं में कोई कमी नहीं आई।
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देश के सबसे नए राज्य तेलंगाना में, उसकी स्थापना से अब तक के तीन वर्षों में कोई 3045 किसान अपना जीवन खत्म कर चुके हैं। मुख्यमंत्री के. चन्द्रशेखर राव के अपने ही विधानसभा क्षेत्र में 109 किसान आत्महत्या कर चुके हैं। पर क्या इससे कोई फ़र्क पड़ता है? मुझे सन्देह है।
अब अगले सवाल पर आता हूं। क्या ये कृषि ऋण माफ़ी सचमुच महत्वपूर्ण है, या किसान नेताओं की कोई नियमित मांग? कभी-कभी मुझे लगता है इन किसान नेताओं की कृषि संकट पर कोई पकड़ है भी, या इनमें खेती को फायदेमंद बनाने के लिए सुझाव देने की क़ाबलियत ही नहीं है। अगर सचमुच कर्ज़ माफ़ी सुधार हुए होते, तो ख़ुदकुशी क्यों बढ़ रही होती? या फिर ये इस ‘चुनावी’ तरह से बनाए और लागू किए गए हैं कि इनसे छोटे और मझोले किसानों को कोई फायदा पहुंच ही नहीं रहा?
पंजाब का उदाहरण लीजिए। चुनाव के वक्त कांग्रेस पार्टी नेता कैप्टन अमरेंद्र सिंह ने सारे कर्ज़ माफ़ कर देने का वादा किया था। केवल को-ऑपरेटिव ही नहीं, सरकारी और निजी। बैंको से लिया ऋण भी इसमें शामिल था लेकिन उनके सत्ता में आ जाने के बाद ये वादा इस तरह लागू किया गया, कि वादाखिलाफी किसानों को नाराज़ कर गई। यहां तक कि भारतीय किसान यूनियन का एक घटक तो पंजाब सरकार को उसके चुनावी वादों का पालन करवाने के लिए उच्चतम न्यायालय जाने का विचार कर रही है।
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने 35359 करोड़ रुपए की कर्ज़ माफ़ी का ऐलान किया है, जिससे करीब 85 लाख किसान ही लाभान्वित हो पाएंगे। हालांकि इसे लागू किए जाना अभी बाक़ी है। फिर भी तथ्य यही है कि जहां 2.14 करोड़ लघु और सीमांत किसान हैं, वहां फायदा केवल 85 लाख किसानों को ही मिल सकेगा। तो फिर बचे हुए 1.02 करोड़ छोटे किसानों का क्या होगा। अगर मुझे सही से याद है तो प्रधानमंत्री मोदी ने खुद चुनाव जीतने के बाद सभी कर्जों को माफ़ कर देने का आश्वासन दिया था। किसानों ने तो वोट दिया, परन्तु सत्ताधारी दल अपने वादे भूल गया।
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मुझे लगता है कि अब वक्त आ गया है, कि खेती-किसानी के कर्जे माफ़ करने की मांग करने की बजाय …थोड़े रचनात्मक या कल्पनाशील बना जाए। आर्थिक बोझ कम करने के लिए किसान नेताओं को और उपाय भी सोचने चाहिए। साथ ही नीति निर्माताओं को भी अपने पुराने ढर्रे को छोड़कर ऐसे कदमों के बारे में सोचना चाहिए जो किसानों को सचमुच फायदा पहुंचा सकें। चलिए पंजाब को दोबारा देखते हैं। बजाय कृषि आय बढ़ाने की नीतियां बनाने के, वो वित्त मंत्रालय से खोजबीन करवा रही है कि कैसे निजी बैंकों ने किसानों को इतना अधिक कर्ज़ दे डाला। लगभग 1700 करोड़ का ऋण बैंकों ने किसानों को दिया है जो कि उपज की सालाना कीमत से बहुत ज्यादा है।
इसी तरह नौकरशाही अपना वक्त और मेहनत बर्बाद करती है। मैं नहीं समझता इसमें कुछ गलत है। इस पर ध्यान नहीं दिया जाता, कि न्यूनतम सहायता मूल्य (MSP) में लाभ का प्रावधान न होने के कारण ही किसान कर्ज़ लेने को मजबूर होता है। अगर बैंक इनकी मदद करते हैं तो उनकी भूमिका को सराहा जाना चाहिए। अगर बैंक उन्हें कम ब्याज दरों पर ऋण न देते, तो वैसे भी उन्हें अर्थियों पर लेटना ही होता। वैसे भी मैं नहीं सोचता कि बैंकों द्वारा अधिक ऋण दिए जाना कोई बहुत बड़ी बात है।
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क्या ये खुला राज नहीं, कि औद्यौगिक प्रोजेक्ट की कीमतें मुद्रास्फीति से निर्धारित होती हैं? क्या हम नहीं जानते कि बैंक इसी मुद्रास्फीति का अनुमान लगाके उन्हें ऋण देते हैं? क्यों बैंक इन कम्पनियों को उन्हें उनके मूल निवेश का कई गुना कर्ज़ दे देते हैं? साथ ही उन्हें टैक्स हॉलीडे, करों में कटौती, बेलआउट पैकेज आदि सुविधाएं भी तो मिलती हैं। बावजूद इसके अगर कम्पनियां ऋण नहीं चुकातीं, तो मैंने कभी बैंकों या लालफीताशाहों की भृकुटि तनते नहीं देखी लेकिन अगर किसान ऐसा करता है, तो समस्या बन जाता है। जाहिर है, ये तो उन कम्पनियों का अधिकार है। बेचारे गरीब किसान को तो भुगतना ही पड़ता है।
(लेखक प्रख्यात खाद्य एवं निवेश नीति विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं। ट्विटर हैंडल @Devinder_Sharma )