जब गाँव की सबसे गरीब गुरबा औरत अपनी कमाई का कोई साधन जुटाने के लिए बकरी खरीदने का निर्णय करती है तो वो थोड़ी अग्रिम राशि जुटाने के तरीके खोजती है। मान लीजिये कि उसे बकरी खरीदने के लिए 5000 रुपए से कुछ अधिक की आवश्यकता है और उसे सलाह दी जाती है कि वह माइक्रो फाइनेंस इंस्टीटूशन्स (एमएफ़आई ) से संपर्क करे। माइक्रो फाइनेंस इंस्टीटूशन्स उसे 26 प्रतिशत ब्याज दर पर कर्ज देता है जिसे पाक्षिक अंतराल पर लौटाने का प्रावधान है। वास्तविक रूप में देखा जाये तो ये ब्याज दर 60 प्रतिशत से भी अधिक हो जाती है।
अब ये देखिये। गुजरात सरकार ने अहमदाबाद के निकट स्थित सानंद में नैनो गाड़ियों का संयंत्र लगाने के लिए टाटा को 558. 58 करोड़ रुपए का कर्ज दिया। सरकार ने ये बात स्वीकार की कि ये बड़ा ऋण 0.1 प्रतिशत ब्याज दर पर दिया गया जिसका भुगतान 20 वर्षों में किया जाना है। या यूँ कहें कि ये ऋण एक तरह से ब्याज मुक्त दीर्घावधि ऋण था। एक और मामला लीजिये। स्टील सम्राट लक्ष्मी मित्तल को पंजाब की भटिंडा रिफाइनरी में निवेश करने के लिए पंजाब सरकार ने 0. 1 प्रतिशत ब्याज पर 1200 करोड़ रुपए का ऋण दिया था। यानि एक भारी भरकम राशि एक तरह से मुफ्त दे दी गयी।
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यदि गाँव की सबसे गरीब महिला को भी 0.1 प्रतिशत ब्याज दर पर 5000 रुपए का ऋण दिए जाये जो टाटा और मित्तल समान 20 वर्ष नहीं भी तो 5 सालों में चुकाना हो तो मैं शर्त लगा सकता हूँ कि वो साल के अंत तक एक नैनो कार तो चला ही रही होगी। भटिंडा में कुछ हफ़्तों पहले पंजाब खेत मज़दूर यूनियन द्वारा आयोजित राज्य स्तर सम्मलेन में यह जानकर मैं हतप्रभ रह गया कि माइक्रो फाइनेंस इंस्टीटूशन्स द्वारा इस प्रकार का निर्मम शोषण अपवाद नहीं सामान्य बात है। यूनियन के सचिव लक्ष्मण्स सिंह के अनुसार पंजाब में 23 एमएफआई कार्यरत हैं और वे 26 से 60 प्रतिशत तक के अत्यधिक ऊंची ब्याज दर वसूलते हैं। 38.8 प्रतिशत परिवार एमएफआई से लिए गए ऋण के चंगुल में फंसे हैं और तकरीबन इतने ही प्रतिशत साहूकारों और अमीर ज़मींदारों से ऋण लेते हैं। अन्य शब्दों में कहें तो निजी साहूकारों के साथ एमएफआई खून चूसने वाली संस्था के रूप में उभर कर आये हैं।
मैंने पहली बार पंजाब के किसान क्षेत्र में एमएफआई की इतनी गहरी पैठ देखी है। शहरी आभिजात्य वर्ग जहां निजी साहूकारों को विलन बताता है वहीँ हम भूल जाते हैं कि आयोजित वित्तीय संस्थानों की भूमिका भी कमोबेश वही है। मज़े की बात है कि किसानों को (यदि वो ऋण समय पर लौटा दे तो ) प्रभावी रूप से 3 प्रतिशत की दर पर ऋण मिल जाता है पर जाने क्यों वही सुविधा कृषि मज़दूरों के लिए नहीं है। आखिरकार भूमिहीन श्रमिक भी तो किसान ही हैं और उसे भी समान वित्तीय लाभ दिए जाने चाहिए। जैसा मैंने पहले भी कहा, यदि गरीब खेत मज़दूरों को भी 3 प्रतिशत की दर पर ब्याज मिल जाये तो ग्रामीण भारत का ये छिपा हुआ चेहरा उजला हो जाएगा।
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खेत मज़दूरों को मैं छिपा हुआ चेहरा क्यों बोल रहा हूँ? कुछ महीने पहले जब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह बकाया ऋणों की माफ़ी के बारे में पंजाब विधान सभा को सूचित कर रहे थे तब उनसे पूछा गया था खेत मज़दूरों का क्या होगा? तो उन्होंने जवाब दिया कि सरकार के पास खेत मज़दूरों की वित्तीय स्थिति के बारे में कोई आधिकारिक आंकड़े नहीं हैं। क्या ये आश्चर्य की बात नहीं है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी हमें देश में सबसे गरीब वर्ग के बारे में कोई जानकारी नहीं है कि वो किस प्रकार की आर्थिक दुर्दशा के हालातों में जीवनयापन कर रहे हैं?
पंजाब खेत मज़दूर यूनियन ने चुनौती स्वीकार की और एक विस्तृत सर्वेक्षण किया। मुझे मानना पड़ेगा कि ये काफी पेशेवर तरीके से किया गया। पंजाब के छह ज़िलों के 13 गाँवों में सर्वेक्षण किया गया। प्रारंभिक नतीजों को औपचारिक रूप से भटिंडा सम्मलेन में पेश किया गया। सर्वेक्षण में शामिल किये गये कुल 1618 खेत मज़दूर परिवारों में से 84 प्रतिशत क़र्ज़ के बोझ तले दबे थे। और प्रति परिवार औसत क़र्ज़ 91,437 रूपए था। क़र्ज़ का बड़ा भाग, अनुमानतः 25 प्रतिशत घर बनाने के लिए लिया गया था। पर आप किसी ग़लतफ़हमी में मत पड़िये। यहाँ घर बनाने का अर्थ है सर पर छत हो ये पक्का करने के लिए एक कमरा डाल लेना।
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मोटा मोटी 35 प्रतिशत मकानों में केवल एक कमरा था, 79 प्रतिशत मकानों में कोई बरामदा नहीं था। सैंपल मकानों में से 38 प्रतिशत में पृथक बाथरूम था और 33 प्रतिशत के लिए अस्थायी बाथरूम थे। शेष मकानों में बाथरूम का अर्थ था स्त्रियों के नहाने के लिए कमरे का एक कोना। 67 प्रतिशत मकानों में पीने के पानी के लिए नल लगा था। किसी भी मकान में पीने के पानी के लिए आरओ नहीं था। 31 प्रतिशत मकानों में शौचालय नहीं थे। एक ओर सरकार शौचालय बनाने पर ज़ोर दे रही है और दूसरी ओर आश्चर्य की बात है कि 72 प्रतिशत मकानों में रसोईघर नहीं था। मैं नहीं जानता कि किसी श्रमिक के लिए रसोई अधिक प्राथमिकता रखती होगी या शौचालय परन्तु दोनों की अनुपस्थिति बताती हैं कि खेत मज़दूर परिवार की आर्थिक स्थिति कितनी शोचनीय है। चूंकि खेत मज़दूर परिवारों की संख्या 15 लाख है और ये पंजाब की जनसँख्या का 15 प्रतिशत है। ये कोई छोटी संख्या नहीं है कि इन्हें नज़रअंदाज़ कर दिया जाये या इन पर झाड़ू फेर दी जाये। और यहां मैं वही लौटता हूँ जहाँ से शुरू किया था।
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यदि इन खेत मज़दूरों को उसी दर पर ऋण किया जाता जिस दर पर उद्योगपतियों को दिया जाता है तो निश्चित ही उनकी आर्थिक स्थिति में अब तक ज़मीन आसमान का अंतर आ चुका होता। साथ ही, इंडियन स्कूल ऑफ़ बिज़नेस अथवा आई टी कंपनियों को 1 रुपए प्रति वर्ग मीटर की दर पर मूल्यवान भूमि देने का आर्थिक औचित्य समझ नहीं आता जबकि सबसे गरीब वर्ग को भूमि के छोटे छोटे टुकड़ो के लिए बाजार मूल्य देना पड़ता है। यदि खेत मज़दूरों को भी 1 रूपए प्रति वर्ग मीटर की दर पर रेहड़ी लगाने के लिए 25 वर्ग मीटर भूमि दे दी जाये तो मैं दावे से कह सकता हूँ कि उनका प्रदर्शन उन स्टार्ट अप्स से बेहतर होगा जिन्हे मुफ्त के लाभ और कर से छूट मुहैया कराई जाती है। वही होगा सच्चा सबका साथ, सबका विकास।
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