दिल्ली के बहाने नए सिरे से प्रदूषण की चिंता और सरकारी उपाय

शोधकार्यों को लोग और सरकारें इतना खर्चीला समझती है कि वे इसे जान कर भी अनदेखा करती रहती हैं। लेकिन अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग बढाया जाए तो जिस तरह से ओज़ोन लेयर को नुकसान पहुँचाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के एमिशन (उत्सर्जन) को कम करने में सभी देशों ने भूमिका निभाई थी वैसे ही पर्यावरण की दूसरी समस्याओं से भी सही नीतियों के ज़रिए निपटा जा सकता है।
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दिल्ली एनसीआर की हवा ज़हरीली होती जा रही है। कई चिकित्सक और खुद सरकार, बिगड़ते हालात पर चिंता जता रहे हैं। फौरी तौरपर कुछ करते दिखने के लिए पिछले हफ्ते से दिल्ली में वायु प्रदूषण से निपटने की एक आपात योजना शुरू की गई है। इस योजना का नाम ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान रखा गया है। ये अलग बात है कि ऐसी कई योजनाएं पहले भी बनीं लेकिन दिल्ली की हवा बहाल नहीं हुई। बहरहाल उत्तर भारत और खासकर दिल्ली और उससे जुड़े शहरों में हवा की गुणवत्ता ज्यादा ख़राब होते देख इस बार सेंट्रल पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने इस नए एक्शन प्लान को लागू करने की सूचना जारी की है। ये सिर्फ इस साल की ही बात नहीं है बल्कि कुछ साल से ठंड के महीनों में वायु प्रदूषण की समस्या कई गुना हानिकारक बन जाने से दिल्ली के लोगों को स्वास्थ्य सम्बन्धी भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। इसलिए भी पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड अभी से चिंतित है।

संकट की गंभीरता का एक अंदाजा़

अस्पतालों के ओपीडी में अस्थमा और सांस संबंधी रोगों के मरीज़ 25 फीसद तक बढ़ गए हैं। इसी बीच डब्ल्यूएचओ की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में पी.एम. 2.5 और पी.एम. 10 की मात्रा राष्ट्रीय मानकों की तुलना में तीन और साढ़े चार गुना तक बढ़ चुकी हैं। वैसे यह भी एक हकीकत है कि देश में पर्यावरण पर चिंता जताते हुए अब कई दशक गुज़र चुके हैं। भारत ही नहीं पूरा विश्व इस समय प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के खतरे से चिंतित दिख रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल विश्व में करीब 42 लाख असामयिक मौतें हवा के प्रदूषण से उपजी बीमारियों के कारण हो रही हैं। हर साल अलग अलग संस्थाओं और देशों की मेजबानी में कई स्तरों पर पर्यावरण संरक्षण के लिए बैठकें और समारोह भी खूब होते हैं। बैठकें अब भी हो रही हैं। संयुक्तराष्ट्र इस मामले में सालाना रिपोर्ट जारी करता है। लेकिन हालात गुज़रते वक़्त के साथ गंभीर होते जा रहे हैं। भारत के लिए तो अब बात हाथ से निकलती सी दिख रही है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाईजेशन की विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में एक दो नहीं बल्कि शुरू के करीब 10 शहरों में सिर्फ भारत के ही शहर हैं। यानी दुनिया के सभी प्रदूषित देशों की सूची में हमारा देश सबसे ऊपर आता है। जहिर है कि इस मामले में हमें दूसरे देशों की तुलना में ज्यादा चिंता करने की जरूरत है। 


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दुनिया कितनी चिंतित

कुछ दशकों से पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग, कार्बन एमिशन जैसे मुद्दों पर एक साथ मिल कर सोच विचार करने के लिए बाध्य दिख रहा है। इस बात का अंदाजा इस बार के नोबेल पुरस्कारों के चयन से भी लगाया जा सकता है। इस बार अर्थशास्त्र का नोबल पुरस्कार जिन दो अर्थशास्त्रियों को दिया गया है उनके उल्लेखनीय कार्यों में जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में किये गए काम प्रमुख हैं। नोबेल देने वाली स्वीडिश अकादमी की समीति की तरफ़ से कहा गया है कि इस बार के विजेताओं का चयन पूरे विश्व में जलवायु परिवर्तन की समस्या को लेकर अपील के रूप में भी है। संयुक्त राष्ट्र की भी पर्यावरण के लिए खतरों पर आई नई रिपोर्ट में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की बात पर जोर है। संयुक्त राष्ट्र की तरफ से कहा जा रहा है कि जल वायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए अब ऐसे प्रयास करने होंगे जो इतिहास में पहले कभी नहीं किए गए।

क्या कहा है इस बार के नोबेल विजाताओं ने

नोबेल पाने वाले दोनों अर्थशास्त्रियों प्रोफेसर विलियम डी. नोर्डहाउस और प्रोफेसर पॉल रोमर का कहना है की पर्यावरण की समस्या कारगर लोकनीतियों के ज़रिये ही सुधारी जा सकती है। यानी सरकारों की भूमिका सबसे अहम है। प्रोफेसर नोर्डहाउस ने प्रदूषण फैलाने वालों से कर यानि टैक्स लेने की संकल्पना पर जोर दिया है। उन्होंने कई दशक आर्थिक वृद्धि और पर्यावरण को पहुंचे नुकसान को अगल बगल रखकर देखने में लगाए। इसे आजकल ग्रीन एकाउंटिंग कहा जाता है। जलवायु परिवर्तन से हर साल पड़ने वाले सूखे, बाढ़ और यहां तक कि फसलों के बर्बाद होने से जो नुकसान होता है उसे आर्थिक रूप से मापने का मॉडल भी प्रोफेसर नोर्डहाउस ने ही विकसित किया है। इस मॉडल का नाम उन्होंने डायनेमिक इंटीग्रेटेड क्लाइमेट.इकॉनमी मॉडल रखा था। लेकिन इस साल का नोबेल पाने के बाद उन्होंने सबसे पहले यही अफसोस जताया कि वे आज तक खुद अपने देश की सरकार तक से अपने किए कार्यों को लागू करावा पाने में सफल नहीं हो पाए। उनका कहना है कि जब तक किसी देश की सरकार अपनी लोकनीतियाँ पर्यावरण संगत नहीं बनाएगी तब तक हम पर्यावरण को होने वाले नुकसान की भरपाई के काम में बहुत पीछे रहेंगे। खैर जब हम दिल्ली और देश के दूसरे शहरों में प्रदूषण पर इतनी चिंता जता रहे हैं तो एकबार इन अर्थशास्त्रियों के शोधकार्यों पर गौर करने में हर्ज क्या है?

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रोमर क्या कह रहे हैं

नार्डहाउस के साथ साझातौर पर नोबेल पुरस्कार पाए न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी के प्रोफसर रोमर हमेशा से ही शोधकार्यों और नवोन्मेष के समर्थक रहे हैं। उनका कहना रहा है कि अगर सरकारें शोध में निवेश करती हैं तो तकनीकी नोवोन्मेष और आविष्कारों से कई बड़ी समस्याओं का हल निकल सकता है। पर्यावरण पर संकट और जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर उनका कहना है की शोधकार्यों को लोग और सरकारें इतना खर्चीला समझती है कि वे इसे जान कर भी अनदेखा करती रहती हैं। लेकिन अगर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग बढाया जाए तो जिस तरह से ओज़ोन लेयर को नुकसान पहुँचाने वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन के एमिशन को कम करने में सभी देशों ने भूमिका निभाई थी वैसे ही पर्यावरण की दूसरी समस्याओं से भी सही नीतियों के ज़रिए निपटा जा सकता है। 

हमारा मसला क्या वाकई लोकनीतियों से जुड़ा है

जब भारत के संदर्भ में हम इस आपदा को देखते हैं तो हमें अपनी कोई दूरदर्शी योजना नज़र नहीं आती। प्रदूषण के मामले में दुनिया में सबसे बुरी स्थिति में होने के बावजूद भी लोक नीतियों में इस समस्या को लेकर उतनी तरजीह देखने को नहीं मिलती जितनी गंभीर यह समस्या है। ना ही उस हिसाब के बड़े शोध कार्य होते दिखाई देते हैं। हमारे सालाना बजट में भी कभी नहीं देखा गया कि कोई बड़ा अनुदान इस समस्या के समाधान के उपाय जानने के लिए किया गया हो। राष्ट्रीय स्तर पर कोई बड़ी मुहिम न सरकारी स्तर पर कभी देखी गई है और न सामाजिक स्तर पर। दिल्ली एनसीआर में भी पिछले एक दो साल में ही पटाखा बैन, रावण जलाना बैन, ऑड इवन जैसे कुछ कदम उठाये गए। क्या ये तात्कालिक उपाय बेहद नाकाफ़ी और अदूरदर्शी नहीं हैं। मसलन केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की तरफ से सिर्फ दिल्ली के लिए जो आपात ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान बनाया गया है उसमें इतनाभर है कि शहर की हवा की गुणवत्ता के हिसाब से उपायों की तीव्रता तय की जाएगी।

हवा की गुणवत्ता को तय करने के लिए एयर क्वालिटी इंडेक्स नाम का पैमाना पहले से मौजूद है। इस पैमाने की मदद से हवा की गुणवत्ता को खराब, बेहद खराब, गंभीर, गंभीर और आपातकालीन जैसी श्रेणियों में बांटा जाता है, हर श्रेणी के साथ उपायों की तीव्रता को बढाते जाने की योजना बनाई गई है। इन उपायों में कूड़े के ढेरों में आग न लगाना, डीजल के जनरेटर कुछ दिन न चलने देना, ट्रकों की एंट्री पर रोक, पानी का छिड़काव, पार्किंग का किराया बढ़ाना, निर्माण कार्य बंद कराना और स्थिति बहुत गंभीर हो जाने पर स्कूलों की छुट्टी करवा देने जैसे उपाय किए जाते हैं। लेकिन देखना यह पड़ेगा कि यह उपाय हालात को कितने समय के लिए सुधार सकते हैं। और फिर चाहे कूड़े के निस्तारण का सवाल हो या निर्माण कार्य रोकने की बात यह सब आर्थिक रूप से खर्चीले काम हैं। ना स्कूल ज्यादा समय बंद रह सकते हैं ना ही पार्किंग का किराया बढ़ा कर रखा जा सकता है। इसीलिए यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या ये उपाय विश्व के सबसे प्रदूषित देश के लिए काफी हैं। इन उपायों से समस्या को सिर्फ आगे खिसकाया जा सकता है लेकिन हालात हर साल बिगड़ते ही जायेंगे। आज नहीं तो कल हमें साफ़ हवा में सांस लेने के लिए स्थायी उपाय भी तलाशने पड़ेंगे। समस्या के मूल कारणों और मुख्य कारणों को समझने के लिए शोध में लगना ही पड़ेगा। बेशक यह चुनौती या अंदेशा भी हमारे सामने है कि शोधअध्ययनों और समस्या के समाधान के उपाय ढूंढने में इतना समय न गुजर जाए कि तब तक कहीं हम खुद को अपूरणीय क्षति पहुंचा बैठें।


आखिर दिल्ली में किया क्या जाए

दिल्ली में प्रदूषण की नापतोल और उसकी तीव्रता पर चिंता करने को कोई भी गलत नहीं कह सकता। लेकिन इतना भर पर्याप्त तो कतई नहीं है। अब तक जो कुछ भी किया जा रहा था उसे भी एक बार पलट कर देख लेना चाहिए। हो सकता है कि यह पता चले कि जो उपाय किए जाने का दावा किया जा रहा था वे उपाय ही ठीक से लागू न हुए हों। क्या यह सबको मालूम नहीं है कि दिल्ली आज भी बढ़ते वाहनो से परेशान है। दिल्ली ताबड़तोड़ निर्माण कार्यों से उड़ने वाले धूल धक्कड़ से भी परेशान है। वह इस बात से भी परेशान है कि ठोस कचरे का निस्तारण कैसे करे? हम कितना भी कहते रहें कि कूड़े के पहाड़ों पर लगने वाली आग खुद ब खुद लग जाती है लेकिन यह सवाल भी तो उठ सकता है कि अगर ये आग न लगे या लगाई न जाए तो दिल्ली का कचरा आखिर जाएगा कहां? वह दिल्ली जो अपने प्राकृतिक संसाधनों के हिसाब से मसलन पानी की उपलब्धता के लिहाज से पचास लाख से ज्यादा आबादी को पानी तक नहीं पिला सकती वहां चार गुने लोग रह ही कैसे सकते हैं।

अब राजधानी होने के कारण यहां सभी तरह के रोज़गार के साधन ज्यादा हैं। सो यहां की आबादी तो दिन दूनी रात चौगनी बढ़ेगी ही। किसी को अपनी राजधानी दिल्ली आने से रोका भी नहीं जा सकता। लेकिन जब किसी राज्य के पास उतने संसाधन ही न हों तो इसके अलावा चारा ही क्या बचता है कि वह सबसे पहले पानी, जमीन, यातायात, स्वास्थ्य के समुचित प्रबंध के लिए पर्याप्त आर्थिक संसाधन का प्रबंध करे। संयोग से इस बार अर्थशास्त्र का नोबेल पाने वाले नोर्डहाउस ने अपने लंबे शोधकार्यों के बाद एक उपाय यह बताया था कि प्रदूषण कर लगाना पड़ेगा। विकास की चाह में उद्योग को तो बंद नहीं कर सकते लेकिन पर्यावरण को नुकसान पहुंचाकर मुनाफा कमाने वालों से समुचित हर्जाना तो ले सकते हैं। बेशक यह हर्जाना उद्योग जगत उपभोक्ताओं से वसूलेगा। अब यह शोध का विषय है कि वह उपभोक्ता जो पर्यावरण की कीमत पर विकास का सुखभोग कर रहा है उससे उसकी कीमत वसूलना कितना जायज़ या नाजायज़ है?   

(सुविज्ञा जैन प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं। सुविज्ञा जैन के बाकी लेख पढ़ने के लिए )

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