ग्रामीण भारत में ट्यूबवेल से झर-झर निकलते पानी और उसे खेतों की ओर बहते देखना आम बात है। हम बॉलीवुड फिल्मों में भी गाँवों के ऐसे शॉट्स देखते आए हैं।
लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि ट्यूबवेल वास्तव में सैकड़ों सालों से एक्वीफरों में जमा हुए भूजल को कैसे खींच लेता है? ऊपरी तौर पर देखने पर इसमें कुछ गलत नजर नहीं आएगा। यही लगेगा कि बिजली या डीजल से चलने वाले पंप सेट सिर्फ पानी को बाहर खींच रहे हैं।
लेकिन, इसके नतीजे कहीं अधिक जटिल हैं। कृषि क्षेत्र के विकास और जलवायु परिवर्तन पर इसका सीधा असर पड़ता है।
भारत में खपत की जाने वाली कुल बिजली का लगभग एक-चौथाई हिस्सा कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल किया जाता है और इसमें बिजली सिंचाई पंपसेट की हिस्सेदारी काफी ज्यादा है। एक अनुमान के मुताबिक, देश में 2.2 करोड़ से ज्यादा वेल और ट्यूबवेल हैं। इनमें से 1.2 करोड़ बिजली से और एक करोड़ डीजल से चलने वाले हैं। इनसे सिंचाई के लिए 250 क्यूबिक किलोमीटर से अधिक भूजल का दोहन किया जाता है। यह तेजी से घट रहे भूजल संसाधन के लिए एक साफ नजर आने वाला खतरा है, जिससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है।
भूजल की कमी के चिंताजनक मुद्दे के अलावा कृषि क्षेत्र के सामने बिजली की आपूर्ति का गंभीर मसला भी खड़ा है। लाखों कृषि पंप सेट काफी ज्यादा सब्सिडी वाली बिजली आपूर्ति पर चलते हैं जो बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) पर दबाव बढ़ा रहे है।
हाल ही में IIT गांधीनगर, गुजरात में अंतरराष्ट्रीय जल प्रबंधन संस्थान (IWMI) द्वारा आयोजित एक सम्मेलन ‘एनर्जीजिंग एग्रीकल्चर एंड इनेबलिंग जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन इन साउथ एशिया’ में इस विषय पर काफी विस्तार से चर्चा की गई।
अकेले महाराष्ट्र के पास 4.25 मिलियन इलेक्ट्रिक पंप सेट हैं (भारत में कुल पंप सेटों का 20 प्रतिशत)। महाडिस्कॉम का कृषि पर बकाया 50,000 करोड़ रुपये है। यह डेटा इंस्टीट्यूट ऑफ रूरल मैनेजमेंट, आनंद (IRMA) के हिप्पू साल्क क्रिस्टल नाथ द्वारा साझा किया गया था। उन्होंने महाराष्ट्र में सौर फीडर कार्यक्रम के आईआरएमए के आकलन के निष्कर्ष भी प्रस्तुत किए।
नाथ ने बताया कि किस तरह कृषि क्षेत्र को बिजली की आपूर्ति औद्योगिक और वाणिज्यिक उपभोक्ताओं की क्रॉस सब्सिडी पर की जाती है। उन्होंने कहा कि कृषि क्षेत्र को बिजली की आपूर्ति के लिए औसतन 6.19 रुपये प्रति यूनिट की लागत के मुकाबले औसतन सिर्फ एक रुपये प्रति यूनिट चार्ज किया जाता है।
एनर्जी पॉलिसी में जून 2020 का प्रकाशित एक पेपर बताता है कि “कृषि बिजली सब्सिडी भारत के राजकोषीय घाटे के लगभग 25 फीसदी के बराबर है। यह स्वास्थ्य या ग्रामीण विकास पर वार्षिक सार्वजनिक खर्च का दोगुना और सतही जल सिंचाई बुनियादी ढांचे के विकास पर सालाना खर्च का ढाई गुना है।”
कृषि का सोलराइजेशन
कृषि क्षेत्र में ‘सोलराइजेशन’ का वादा 2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन प्राप्त करने के भारत के लक्ष्य में भी योगदान देगा। किसान सिंचाई के लिए भूजल निकालने के लिए सौर सिंचाई पंप (एसआईपी) का इस्तेमाल कर सकते हैं और अतिरिक्त सौर ऊर्जा को ग्रिड को बेचकर कमाई कर सकते हैं. फीडरों को सौरकृत किया जा सकता है और सौर ऊर्जा संयंत्र स्थापित किए जा सकते हैं।
मार्च 2019 में जब भारत सरकार ने पीएम-कुसुम (प्रधानमंत्री किसान ऊर्जा सुरक्षा एवं उत्थान महाभियान) लॉन्च किया, तो इसका उद्देश्य “कृषि क्षेत्र का डी-डीजलीकरण करना, किसानों को पानी और ऊर्जा सुरक्षा प्रदान करना, किसानों की आय में वृद्धि करना और पर्यावरण प्रदूषण पर अंकुश लगाना था।”
तीन घटकों में विभाजित, पीएम-कुसुम के पास घटक ए के तहत 2 मेगावाट तक की क्षमता वाले प्रत्येक ग्रिड से जुड़े सौर ऊर्जा संयंत्रों की स्थापना करना और उसके जरिए 10,000 मेगावाट क्षमता हासिल करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य है। तो वहीं कंपोनेंट-बी और कंपोनेंट-सी के तहत 3.5 मिलियन कृषि पंपों का सोलराइजेशन करना शामिल है।
लक्ष्य और उपलब्धियां
31 अक्टूबर, 2022 तक 4,886 मेगावाट क्षमता का कुल आवंटन किया जाना था। लेकिन योजना के घटक-ए के तहत सिर्फ 73.45 मेगावाट की कुल सौर क्षमता स्थापित की गई। एक आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, योजना के तहत 3.35 मिलियन पंपों के लक्ष्य के मुकाबले (31.10.22 तक) सिर्फ लगभग 152,000 कृषि पंपों को सोलराइज़ किया गया है (कुछ अनुमानों का दावा है कि भारत में 300,000 SIPs स्थापित किए गए हैं)। पीएम-कुसुम योजना को 31 मार्च, 2026 तक बढ़ा दिया गया है।
IWMI सम्मेलन में SIP के कार्यान्वयन की धीमी गति पर भी चर्चा की गई। दक्षिण एशिया के प्रतिभागियों ने अपने उन अनुभवों और जानकारियों को साझा किया जो योजना को मजबूत बनाने और ज्यादा प्रभावी बनाने में मदद कर सकते हैं। सौर पम्पसेटों का इस्तेमाल करके भूजल के ज्यादा दोहन की तुलना में एसआईपी का कम इस्तेमाल कहीं अधिक चिंता का विषय था।
कुछ साल पहले, मैं महाराष्ट्र के सूखा-प्रभावित विदर्भ क्षेत्र के बुलढाणा जिले में किसानों से मिली थी। वहां जाकर देखा कि साल के चार महीने ये ऑफ-ग्रिड सौर ऊर्जा से चलने वाले कृषि पंप बेकार पड़े रहते हैं।
सीख और आगे बढ़ने का रास्ता
सम्मेलन में पीएम-कुसुम योजना पर फिर से विचार करने के तरीकों पर चर्चा की गई। इस दौरान सामने आने वाली जानकारियां कुछ इस तरह की थीं-
सबसे पहला- एसआईपी को ग्रिड से जुड़ा और नेट मीटर्ड होना चाहिए। किसान साल में बमुश्किल 100 दिन इन सोलर पंपसेट का इस्तेमाल कर पाते हैं। बाकी समय के लिए उत्पन्न सौर ऊर्जा को ग्रिड में डाला दिया जाना चाहिए, जिससे डिस्कॉम और किसानों दोनों को लाभ होगा।
2018 में शुरू की गई गुजरात की सूर्यशक्ति किसान योजना (SKY) योजना को अक्सर एक अच्छे उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है। स्काई के तहत किसान अपनी कैप्टिव खपत (सिंचाई) के लिए सौर पैनलों का उपयोग करके बिजली पैदा करते हैं और बची हुई बिजली को ग्रिड के माध्यम से सरकार को बेचते हैं। स्काई से जुड़े किसानों को दिन के समय 12 घंटे बिजली मिलती है जबकि गैर- एसकेवाई किसानों को सिर्फ आठ घंटे बिजली ही मिल पाती है।
स्काई योजना के तहत केंद्र किसान को 30 प्रतिशत सब्सिडी और 65 प्रतिशत कर्ज (जिसे सात सालों में चुकाना होता है) मुहैया कराया जाता है। लाभार्थी किसान को सिर्फ पांच प्रतिशत अग्रिम लागत का भुगतान करना होगा। सरकार सात साल के लिए 7 रुपये प्रति यूनिट की दर से और बाकी 18 साल के लिए 3.50 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीदेगी। स्काई योजना से 33 जिलों में 1.5 मिलियन किसानों को कवर करने की उम्मीद है और उन्हें 7,060 फीडरों के माध्यम से सौर ऊर्जा प्रदान की जाएगी।
दूसरा- कृषि के सोलराइजेशन में छोटे और सीमांत किसानों (बटाईदार और काश्तकार किसानों) की जरूरतों को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। दो हेक्टेयर से भी कम जमीन का मालिकाना हक रखने वाले भारत में ऐसे किसानों का प्रतिशत 86.2 है। जबकि 10वीं कृषि जनगणना 2015-16 की अनंतिम संख्या के अनुसार, ये फसल क्षेत्र के सिर्फ 47.3 हिस्से के मालिक हैं।
सौर कार्यक्रम में लैंगिक समानता पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। क्योंकि भारत में अधिकांश कृषि गतिविधियों से महिलाएं जुड़ी हुई हैं। कुछ संगठन महिला किसानों के साथ काम कर रहे हैं और उन्हें एसआईपी तक पहुंचने में मदद कर रहे हैं।
हालांकि पीएम-कुसुम योजना राज्य सरकारों को छोटे और सीमांत किसानों को प्राथमिकता देने का निर्देश देती है, पर फिर भी जोर बड़ी क्षमता वाले पंप सेट (दो हॉर्सपावर, पांच हॉर्सपावर और उससे अधिक) पर रहता है। दिलचस्प बात यह है कि भारत में कई स्टार्ट-अप छोटे और सीमांत किसानों के साथ काम कर रहे हैं और उन्हें सौर तकनीक उपलब्ध करा रहे हैं।
उदाहरण के लिए, स्विचऑन फाउंडेशन पश्चिम बंगाल में महिला किसानों के साथ काम कर रहा है और उन्हें मिनी सोलर पंप की पेशकश कर रहा है जिसकी कीमत 2 लाख रुपये है। ठीक ही कहा गया था कि पैसों की तंगी छोटे और सीमांत ग्रामीण किसानों को सौर पंप लेने करने से रोक रही है।
इसी तरह ओडिशा में कलिंगा रिन्यूएबल एनर्जी ने मोबाइल ऊर्जा मॉडल विकसित किया है। छोटे और सीमांत किसान जिनके पास छोटी जोत है, वे अपनी जरूरत के आधार पर संसाधनों (सौर पंपसेट) को साझा कर सकते हैं।
तीसरा- इंस्टॉलेशन के बाद की सर्विस और एसआईपी के रखरखाव पर ध्यान देने की जरूरत है। गुजरात एनर्जी रिसर्च एंड मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (जीईआरएमआई) किसानों के साथ उनकी क्षमता बनाने और उन्हें एसआईपी का उपयोग करने में प्रशिक्षित करने के लिए काम कर रहा है। इसके हालिया अध्ययन में पाया गया है कि कई किसान योजना के बुनियादी घटकों और एसआईपी का बेहतर तरीके से इस्तेमाल करने को लेकर अनजान थे।
सबसे आखिरी उपाय जिसे कम करके आंका नहीं जा सकता है- IWMI सम्मेलन के समापन सत्र में एक अर्थशास्त्री और सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ तुषार शाह ने समझाया कि नई पीएम-कुसुम योजना का मुख्य उद्देश्य 19 मिलियन बिना मीटर वाले ग्रिड से जुड़े ट्यूबवेलों को मीटर से जोड़ा जाना होना चाहिए। एक किसान-भागीदारी ग्रामीण पावर ग्रिड बनाकर किसानों को अपनी सौर ऊर्जा का 60-70 प्रतिशत बेचने और कमाई करने में सक्षम बनाया जा सकता है।
भारत के कृषि क्षेत्र को सोलराइज करने का वादा काफी बड़ा है और इस पर पिछले सालों में मिली सीख को ध्यान में रखते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
निधि जम्वाल गाँव कनेक्शन की मैनेजिंग एडिटर हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।