बारिश गई। अब सर्दी आएगी। कुछ ही दिनों बाद कोहरे और धुंए की धुंध की खबरें आने लगेंगी। दिल्ली में प्रदूषण पर चिंता का दौर आने वाला है। और इस साल फिर सवाल खड़ा होगा कि हरियाणा, यूपी और पंजाब के खेतों में पराली जलाए जाने को कैसे रोका जाए?
पराली जलाने से प्रदूषण बढ़ने का सवाल नया नहीं है। पिछले साल और उसके पिछले से पिछले साल से हम इसी पुराने सवाल से रूबरू हो रहे हैं। कोई कारण उपलब्ध नहीं है जिसके आधार पर निश्चिंत रहा जा सके कि इस साल यह सवाल सामने नहीं होगा।
फिर भी इतना तय है कि कुछ दिनों बाद पराली (burning stubble) से प्रदूषण के बारे में सरकारें बता रही होंगी कि उन्होंने क्या सोचा और क्या किया? वैज्ञानिक बता रहे होंगे कि खेतों में पराली को निपटाने के लिए उन्होंने क्या खोजें कीं। लेकिन पूरे आसार हैं कि पराली फिर भी जल रही होगी। और धुंआ उठ रहा होगा। क्योंकि उसका कोई व्यवहारिक समाधान अभी तक हमारी पकड़ में है नहीं। यह चर्चा जरूर की जानी चाहिए कि आखिर इसका कोई ऐसा समाधान पकड़ में क्यूँ नहीं आया जो आर्थिक रूप से बड़े स्तर पर दोहराया जा सके।
एक तरह का कूड़ा ही है
भले ही पराली की समस्या शहरी कूड़े-कचरे के निपटान की समस्या से भिन्न मानी जाती रही हो लेकिन गौर से देखें तो है कुछ उसी तरह की। कटाई के बाद खेत में जो डंठल बचे रहते हैं वह एक तरह का कूड़ा ही है। खरीफ की फसल के फौरन बाद रबी की फसल बोने के लिए खेत तैयार चाहिए होता है इसलिए उसमें लगे डंठलों को हटाना जरूरी समझा जाता है। दूसरी फसल की बुआई में खेतों की पराली दिक्कत पैदा करती है।
इतने कम समय में पराली को ठिकाने लगाने के लिए उसे जलाने के अलावा कोई और तरीका कई साल से तलाशा जा रहा है जो अभी तक मिला नज़र आ नहीं रहा है। हालांकि ऐसा भी नहीं है कि तरह-तरह के उपाय सुझाए न गए हों। लेकिन अब तक कोई व्यवहारिक उपाय समझ में आया नहीं है।
यह भी पढ़ें : किसानों की कीमत पर महंगाई रोकने के मायने?
सामान्य अनुभव है कि अब तक सुझाए गए सारे तरीके महंगे हैं। या यों कहें कि इतने सस्ते नहीं हैं कि किसान उन्हें खुशी-खुशी अपना लें। दूसरा तरीका यह था कि कड़े कानून के जरिए किसानों पर दबिश डाली जाए। लेकिन कानून के डंडे से कुछ हुआ करता होता तो देश की सैकड़ों बड़ी-बड़ी समस्याएं कभी की सुलझ चुकी होतीं।
क़ानूनी उपायों को मुंह चिढ़ा रहीं
मसलन चाहे घरों से निकले ठोस कूड़े-कचरे की समस्या हो या जल प्रदूषण हो, ऐसी समस्याएं कानूनी उपायों को मुंह चिढ़ा रही हैं। जनता पर भारी भरकम टैक्स के जरिए सरकारों ने पैसा जुटाकर भी देख लिया तब भी इन कामों के लिए ज़रूरी भारी भरकम खर्चा नहीं उठाया जा पाया। पराली से निजाद पाने के लिए संयंत्र लगाने की बात सोची गई।
यह भी पढ़ें : बेवक़्त बारिश से बुंदेलखंड का किसान फिर तबाह
मगर यह उपाय बड़े स्तर पर लागू होता नहीं दिखा। खास बैक्टीरिया वाले पानी का छिड़काव करके पराली का जल्द ही क्षय करने का काम खर्चे के लिहाज से आसान नहीं है। और इसीलिए शोध परीक्षणों के बावजूद ये तरीके जमीन पर अपनाए जाते नहीं दिखाई देते।
उपायों के नाम पर ऐसी मशीनें भी विकसित की गई हैं जिनसे खेत में पराली खड़ी भी रहे तब भी दूसरी फसल की बुआई की जा सके। मसलन हैपी सीडर, जीरो टिल ड्रिल, रोटेवेटर जैसी तमाम मशीनें बाजार में लाई गईं। लेकिन कोई भी मशीन बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई जाती नहीं दिखती जिसे हर खेत तक पहुँचाया जा सका हो।
अब तक ईमानदारी से हिसाब नहीं लगाया गया
अब तक ईमानदारी से हिसाब नहीं लगाया गया कि ऐसी मशीन के इस्तेमाल का खर्चा क्या बैठ रहा है? अब तक ढंग से जांचा नहीं गया है कि हैपी सीडर जैसी मशीन के इस्तेमाल से 20 फीसदी फायदे की बात कितनी विश्वसनीय है? सार्वजनिक रूप से साफ-साफ कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतना जरूर पता है कि मौजूदा हालात में किसान फसल की लागत के मुकाबले लाभ पाने में दिक्कत महसूस कर रहा है।
यह भी पढ़ें : सरकार, गाँव को कब मिलेगा राहत पैकेज?
किसान की आमदनी बढ़ाने के लिए सरकारी खजाने से अनुदान वगैरह देने पड़ रहे हैं। ऐसे में क्या किसान खुद पराली की समस्या से निपटने के लिए हैपी सीडर या दूसरी मशीनों का इस्तेमाल कर सकता है? और अगर इसके इस्तेमाल करने में सरकारी मदद दिए जाने की दरकार हो तो क्या यह हिसाब नहीं लगाया जाना चाहिए कि इसे किस हद तक किया जा सकता है। मसला लाखों हेक्टेयर जमीन पर पराली की समस्या का है।
मशीनों के अलावा भी कुछ सुझाव दिए गए हैं। मसलन पराली से लाभकारी उत्पाद बनाने का सुझाव दिया गया। आईआईटी दिल्ली में पराली से कप प्लेट बनाने की तरकीब ढूढी गई। बेशक प्लास्टिक कचरे से परेशान दुनिया के लिए प्लास्टिक के कप प्लेट चम्मच का विकल्प ढ़ूढने की जरूरत पड़ रही है। यानी पराली से वे उत्पाद बनाने का सुझाव क्रांतिकारी साबित होना था।
पराली के औद्योगिक इस्तेमाल में दिक्कत कहां है?
वाकई शोधकर्ताओं ने एक ऐसी प्रकिया विकसित की है जिसकी मदद से किसी भी कृषि अपशिष्ट लिग्नोसेल्यूलोसिक पदार्थ को होलोसेल्यूलोस या लुगदी और लिग्निन में तब्दील किया जा सकता है। लिग्निन को सीमेंट और सिरेमिक उद्योग में बाइंडर के रूप् में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। अगर इस तरह के सफल प्रयोग किए जा चुके हैं तो पराली के औद्योगिक इस्तेमाल में दिक्कत कहां है?
कहीं ऐसा तो नहीं कि ये प्रयोग पदार्थ विज्ञान की कसौटी पर तो खरे साबित हो गए हों लेकिन अर्थशास्त्रीय पैमाने पर कारगर न हों? बहरहाल अगर पराली इतनी बड़ी समस्या है तो सरकारी मदद के जरिए पराली का औद्योगिक इस्तेमाल बढ़ाने में कोई दिक्कत आनी नहीं चाहिए। लेकिन इतना तय है कि किसान आज जिस आर्थिक तंगी में जी रहा है उससे पर्यावरण की रक्षा के लिए खर्च उठाने की उम्मीद करना बेमानी है।
(लेखिका प्रबंधन प्रौद्योगिकी की विशेषज्ञ और सोशल ऑन्त्रेप्रनोर हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)