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इमरजेंसी 1975 : आधी रात जब छिन गए थे जनता के सारे अधिकार

जब जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करते हुए उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया था, तब उन्होंने अदालती फैसले को ना मंजूर करते हुए आपातकाल लगा दिया था।
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भारत सरकार ने 25 जून को काला दिवस घोषित किया है, क्योंकि इसी दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल लागू कराया था। मुझे याद है जून में मैं रीवा में अकेला था, परिवार लखनऊ में था और अपने लिए चाय बना रहा था तो रेडियो पर समाचार आया कि राष्ट्रपति ने देश में आपातकाल लागू कर दिया है। श्रीमती इंदिरा गांधी बोल रही थी और देश के लोगों को आश्वस्त कर रही थी, लेकिन उस आश्वस्त करने का कोई मतलब नहीं था कोई प्रभाव भी नहीं था। सवेरे जब घर से बाहर निकला तो देखा सड़कों पर सन्नाटा था कोई किसी से ज्यादा कुछ कह नहीं रहा था, मेरी ही तरह शायद बाकी लोगों को भी यह पता नहीं था, कि आपातकाल कैसा होगा? इसमें क्या होगा और जीवन कैसे बीतेगा? दिन बीतते गए कुछ प्रभाव तो दिखाई पड़ा और वह बुरा नहीं था।

दफ्तरों में कर्मचारी घड़ी देखकर समय पर आने लगे थे, रेल गाड़ियाँ समय पर चलने लगी थी, पुलिसकर्मी इस बात को सुनिश्चित कर रहे थे कि कोई राजनीति, कोई लड़ाई-झगड़ा तो नहीं हो रहा है लेकिन कुछ ही समय यही महीना डेढ़ महीना तक तो यह चला लेकिन परिस्थितियों ने करवट बदली और सुनने में आने लगा की बसों से यात्रियों को उतार कर उनकी नसबंदी की जा रही है, शायद आबादी घटाने का तरीका रहा होगा, क्यों कि नारा दिया गया था ‘हम दो हमारे दो’, लेकिन यह भद्दा तरीका था। यह भी सुनने में आया कि अमुक-अमुक नेता जेल में डाल दिए गए हैं और उनके साथी-समर्थक वह भी जेल में डाले गए हैं। भारतीय जनसंघ नाम की राजनीतिक संस्था के कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि गैर राजनीतिक संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता भी जेल के अंदर बिना किसी कारण बिना किसी नोटिस डाल दिए गए थे।

क्या हुआ था 25 जून 1975 की रात?

हमारे देश के इतिहास में 25 जून, काला दिवस इसलिए तो है ही, कि आम जनता ने कीमत चुकाई, जिंदा रहने की। यह काला दिवस मुख्य रूप से इसलिए था, कि इस दिन प्रजातंत्र और संविधान की रक्षक, न्यायपालिका का निंदनीय अपमान हुआ था, जब जस्टिस सिन्हा ने श्रीमती इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द करते हुए उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित कर दिया था, तब उन्होंने अदालती फैसले को ना मंजूर करते हुए आपातकाल लगा दिया था; आपातकाल के बाद मुझे यह तो नहीं पता कि जस्टिस सिन्हा का क्या हुआ लेकिन सामान्यतः असहमति का निराकरण अदालत के माध्यम से होना चाहिए था ना कि अदालत की अवमानना। इसके विपरीत न्यायपालिका में जो जूनियर को सीनियर और सीनियर को जूनियर बनाने का सिलसिला चला और जो सेना में सीनियरिटी को नजरअंदाज करके अनेक लोगों को प्रमोट किया गया, वह सब पीड़ा दायक था। कुछ ने इसे स्वीकार किया, कुछ ने नौकरी छोड़ दी और घर बैठ गए।

इतना ही नहीं कि केवल राजनेताओं को या सत्ताधारी पार्टी के विरोधियों को चिन्हित करके जेल में डाला गया, बल्कि आम जनता में से भी लोगों को शायद बिना कारण बताए जेल में ठूंस दिया, मुझे याद है जब मैं रेलगाड़ी से बिलासपुर से कटनी के लिए आ रहा था, मुझे फील्ड वर्क के बाद रीवा पहुँचना था। मुझे यह अंदाजा नहीं था कि बोलने पर भी कोई अंकुश है और मैं स्वतंत्र रूप से जोर-जोर से ट्रेन के डिब्बे में लोगों से बातें कर रहा था आपातकाल के बारे में, उस समय के जीवन के बारे में और विशेष कर जब कुछ ही साल पहले मैं कनाडा से लौटा तो वहाँ के जीवन के बारे में, तो बहुत से लोग पहले तो काफी देर तक सुनते रहे लेकिन कुछ समय के बाद एक बुजुर्ग मेरे पास आए धीरे से बोले आप यह सब मत बोलिए चुप रहिए। मेरी समझ में आया कि यह बुजुर्ग सही समय पर मुझे सावधान कर रहे हैं और मैंने अपने बातचीत का तरीका और विषय वस्तु बदल दिया।

जयप्रकाश नारायण की शर्त

सच बात यह है कि रीवा से जब मैं बस्तर को फील्ड वर्क के लिए भेजा गया था, तो उस अवधि में आम लोगों की दिनचर्या पर क्या हालत रही, इसका मुझे अनुमान नहीं था। वहाँ बस्तर में मैं टेंट लगाकर आदिवासियों के बीच में जो कोपीन पहनकर और लांदा पीकर मस्त रहते थे, खूब खाते और ‘घोटुल’ यानी समूह नृत्य करते थे, उन्हें आपातकाल से कोई मतलब नहीं था और यही कारण था, कि मुझे भी आपातकाल की गंभीरता का अंदाजा नहीं था। आपातकाल आरंभ होने के तीन- चार महीने बाद जब मैं रीवा आया था, तब स्पष्ट रूप से अंतर दिखाई पड़ा। आम आदमी सहमा-सहमा था हर समय अगल-बगल देखकर बात करता था। धीरे-धीरे पता चला कि देश के सभी बड़े नेता जेलों के अन्दर थे। जेल में ही अटल जी के रीढ़ में दर्द पैदा हुई, ऐसा अखबारों में पढ़ा था, वहीं पर अनेक राजनेताओं को तरह-तरह की तकलीफ दी गई और यहाँ तक की जयप्रकाश नारायण जी को डायलिसिस पर रखा गया था। भेष और नाम बदलकर भले ही जॉर्ज फर्नांडिस हिमालय की तराई में नेपाल की तरफ चले गए थे और सुब्रमण्यम स्वामी अमेरिका निकल गए थे। इस तरह देश में एक कोने में क्या हो रहा है? दूसरे कोने को पता नहीं चलता था, क्योंकि समाचार पत्रों पर इतना प्रतिबंध था, कि उन्हें अपना संपादकीय जिला अधिकारी को दिखाना होता था।

रामनाथ गोयनका जी के इंडियन एक्सप्रेस ने तो एक बार संपादकीय का कॉलम सादा ही छोड़ दिया था। राजनेताओं में आपातकाल के पक्षधर थे, असम के देवकांत बरुआ, मध्य प्रदेश के विद्या चरण शुक्ला, हरियाणा के वंशी लाल, बंगाल के सिद्धार्थ शंकर रे, जो श्रीमती इंदिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के साथ मिलकर काम कर रहे थे। चाटुकारिता इतनी थी कि कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा था, ‘’इंदिरा इज़ इंडिया एंड इंडिया इज़ इंदिरा’’। विरोधी दलों को काफी देर में समझ आई थी, कि अकेले-अकेले कुछ नहीं कर सकते और उन्होंने जयप्रकाश नारायण जी से निवेदन किया था, कि उन सभी का नेतृत्व जयप्रकाश जी स्वीकार करें। उन्होंने इस शर्त के साथ स्वीकारा था कि सभी राजनीतिक दल अपने-अपने झंडा-डंडा, मेनिफेस्टो किनारे रखकर एक नई पार्टी बनाए और पार्टी थी जनता पार्टी । जिसका चुनाव चिन्ह था मशाल, तब इसका नेतृत्व करने को जयप्रकाश जी तैयार हुए थे।

क्यों टूटी जनता पार्टी दो साल बाद?

मुझे याद है अखबारों में अटल जी का भाषण निकला था, जब आपातकाल समाप्त हुआ जनता पार्टी की सरकार आई, लेकिन चौधरी चरण सिंह, मोरारजी देसाई और बाबू जगजीवन राम के बीच खींचतान के कारण जनता पार्टी दो साल बाद ही टूट गयी। जनता पार्टी टूटने के बाद जनसंघ के अटल जी ने कहा था मैंने अपना दीप बुझाकर एक मशाल जलाई थी, जिसमें रोशनी कम और धुआं ज्यादा है। अंततः जनसंघ अपने रूप में तो जिंदा नहीं हुई, बल्कि 1980 में जनसंघ ने भारतीय जनता पार्टी के रूप में जन्म लिया। बाकी पार्टियां भी एक-एक करके फिर से पुनर्जीवित हो गई और वह भूल गए कि सबने आपातकाल में क्या वचन दिया था क्या कष्ट झेले थे? 60 के दशक में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने इंदिरा जी को गूंगी गुड़िया समझ कर कांग्रेस अध्यक्ष बनाया था।

यह दिग्गज नेता थे कर्नाटक के निजलिंगप्पा, तमिलनाडु के कामराज नागर, बंगाल से अतुल्य घोष, गुजरात से सदोबा पाटिल और मोरारजी देसाई, राजस्थान के मोहन लाल सुखाड़िया, बाद के वर्षों में इन सभी को घोर निराशा हाथ लगी थी, जब 1972 में कांग्रेस के दो फाड़ हुए और इन पुराने दिग्गज नेताओं के हाथ लगी, ओल्ड कांग्रेस जिसके पास ना पैसा था ना ताकत और इंदिरा जी के हाथ में रही कांग्रेस (आई) जिसके पास सत्ता भी थी, पैसा भी था, ताकत भी थी। इन सब को एक-एक करके परास्त करते हुए इंदिरा जी शिखर पर पहुँची थी और वही ताकत थी जिसके बल पर उन्होंने आपातकाल लगाया था।

आपातकाल में संविधान का क्या हुआ था?

जिज्ञासा होती होगी कि आपातकाल में संविधान का क्या हुआ था? कहते हैं कि राइट टू प्रॉपर्टीज तो समाप्त कर ही दिया गया था, लेकिन राइट टू लाइफ भी समाप्त हो गयी थी। यानी लोगों के जिंदा रहने का अधिकार भी हाथ से चला गया था। संविधान के प्रस्तावना में समाजवाद को जोड़ा गया था और इस तरह के अनेक परिवर्तन किए गए थे, जिससे वह संविधान डॉ अंबेडकर का संविधान नहीं रह गया था। लोगों को बेहद आश्चर्य तब हुआ था जब 1980 में इंदिरा जी ने दोबारा चुनाव जीत कर देश भर के सारे प्रांतीय सरकारों को धारा 356 का प्रयोग करके समाप्त कर दिया, यह कहकर कि वह केंद्रीय चुनाव में तो हार गए, इसलिए प्रान्त में हुकूमत करने का उनका अधिकार भी चला गया। आपातकाल समाप्त होने के बाद 1977 में जब मोरारजी भाई की सरकार आई थी, तो उस सरकार ने संविधान की विकृतियां जो पैदा की गई थी, पूरी तरह बदल दिया और संविधान लगभग अपने प्रारंभिक रूप में आ गया था।

गलत है ‘संविधान की हत्या’ जैसे शब्दों का प्रयोग

जो बीत गया उसे बुरा सपना समझ कर भुला देने में ही देश की भलाई है। फिर भी यह एक सार्थक कदम होगा कि स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में प्रत्येक छात्र को संविधान द्वारा दिए गए अधिकार और कर्तव्यों से सभी को अवगत कराया जाए। यह भी बताया जाना चाहिए कि संविधान सभा में किन-किन विषयों पर गंभीरता से चर्चा हुई थी और जो फैसले हुए वह किन परिस्थितियों में लिए गए थे। जहाँ तक हो सके संविधान की हत्या जैसे शब्दों का प्रयोग ना हो तो बेहतर होगा और संविधान की कॉपी हवा में चमका कर आप संविधान के भक्त नहीं बन जाते। हमारा संविधान देश के लोगों की सुविधा के लिए, समाज को सुख-शांति से जीने के लिए बनाया गया एक दस्तावेज है, जिसको समय-समय पर सर्व सहमत से बदला जा सकता है। यह बाइबिल, कुरान शरीफ जैसा धर्म ग्रन्थ नहीं है जिसे बदला नहीं जा सकता धर्म, यह तो राष्ट्र संचालन का एक नियम और कानून के तहत बनाया गया है, जिसकी रक्षा राजनेता, न्यायपालिका, पत्रकार बंधु यह सब मिलकर करने की कोशिश करते हैं। संविधान निर्माण और इसकी रक्षा में कोई कम या कोई ज्यादा उत्तरदायी नहीं है, फिर भी न्यायपालिका की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है I

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