“इंग्लैंड के साथ भारत की बातचीत में भगत सिंह की लाश हमारे बीच में होगी” यह बात जवाहर लाल नेहरू ने भगत सिंह की शहादत पर कही थी। लेकिन क्या हुआ इस भावनात्मक उद्घोष का। शायद उस समय देश के आक्रोश को शान्त करने के लिए यह बयान जरूरी रहा होगा, क्योंकि देश के लोगों का मानना था कि यदि कांग्रेस और महात्मा गांधी चाहते तो भगत सिंह को बचाया जा सकता था। विस्तार में न जाएं लेकिन नेहरू की संवेदना का कोई मतलब नहीं था क्योंकि आजाद होते ही कॉमनवेल्थ में शामिल हो गए। यह बात पुरानी हो चली।
कन्हैया कुमार जब सुर्खियों में थे तो कांग्रेस के सांसद और मंत्री रह चुके शशि थरूर ने देशद्रोह में आरोपित और जमानत पर चल रहे जवाहर लाल नेहरू (जेएनयू) के छात्र नेता कन्हैया कुमार की तुलना भगत सिंह से कर डाली। यह बात दीगर है कि कांग्रेस ने अपने को इस बयान से अलग कर लिया। इसी तरह बहुत साल पहले इन्दिरा गांधी मुक्त विश्वविद्यालय की सामाजिक अध्ययन की एक पुस्तक में भगत सिंह को टेरेरिस्ट लिखा गया था। यह लोग सुखदेव, भगत सिंह और राजगुरु के विषय में न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं।
भगत सिंह के मन में बचपन से ही आजादी की ज्वाला धधक रही थी। वह एक किसान के बेटे थे, जिस परिवार को मातृभूमि से प्यार था। जिस उम्र में बच्चे खिलौने मांगते हैं, भगत सिंह ने अपने पिता किशन सिंह से बन्दूकें मांगी थीं। यह पूछने पर कि क्या करेगा बन्दूकों का, उन्होंने कहा खेत में बोऊंगा, बहुत सी उग जाएंगी। नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की तरह ही भगत सिंह ने गांधीजी के असहयोग आन्दोलन से आरम्भ किया था, लेकिन बाद में पंडित रामप्रसाद बिस्मिल की स्थापित हिन्दुस्तान रिवोलूशनरी रिपब्लिकन एसोसिएशन में शामिल हो गए। बाद में चन्द्रशेखर आजाद और भगत सिंह ने कमान संभाली और इसका नाम हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन रखा।
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हमारे देश के लोग भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी वीरों के विषय में अधिक नहीं जानते और इन देशभक्तों का अक्सर अपमान किया करते हैं। देशवासियों को यही सिखाया गया है कि अहिंसा ने आजादी दिलाई है।
अब समय आ गया है कि हमारे स्कूलों में, कालेजों और विश्वविद्यालयों में सही अर्थों में क्रान्तिवीरों की कहानी बताई जाए, उसे ना तो गांधी-नेहरू से जोड़ा जाए और ना ही मार्क्स और लेनिन से। इन सब से वे प्रभावित रहे थे, लेकिन उनका चिन्तन मिलेगा उनके लेखों और बयानों में, जो समाज को बताए नहीं जाते। शहीद-ए-आजम भगत सिंह की शहादत का दिन 23 मार्च है।
(ये लेख मूल रुप से गांव कनेक्शन अख़बार में 2016 में प्रकाशित संपादकीय का अंश है)