रोजगार की बात: बिहार चुनाव में अपने आप को कहां देखते हैं बेरोजगार युवा और प्रवासी मजदूर?

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बिहार में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। सभी राजनीतिक दलों और
गठबंधनों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए बड़े-बड़े वादे किए हैं। इसमें रोजगार का
मुद्दा भी काफी अहम है। महागठबंधन हो या एनडीए या फिर अन्य राजनीतिक दल, सभी ने सत्ता
में आने पर लाखों की संख्या में रोजगार देने का वादा किया है। खासकर
चुनावी घोषणापत्रों में यह जरूर नजर आता है।

सबसे पहले आरजेडी के नेतृत्व वाली महागठबंधन ने घोषणा की कि
तेजस्वी यादव के नेतृत्व में अगर वे सत्ता में आए तो
5 सालों में 10 लाख नौकरियां बाटेंगे। इसके
अलावा उन्होंने सरकारी विभागों में संविदा पर भी अधिक से अधिक नौकरी देने की बात
कही ताकि बेरोजगारी को कम से कम किया जा सके। वहीं नीतीश कुमार की नेतृत्व वाली
एनडीए गठबंधन ने इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए आगे आने वाले 5 सालों में कुल
19 लाख नौकरियों
को देने का वादा कर दिया। बिहार चुनाव में लड़ रहे अन्य दल फिर चाहे वो चिराग
पासवान की नेतृत्व वाली एलजेपी हो या पुष्पम प्रिया चौधरी की नेतृत्व वाली प्लूरस, सभी ने सत्त्ता
में आने पर लाखों की संख्या में सरकारी नौकरियों को देने का वादा किया है और अचानक
से बेरोजगारी का मुद्दा बिहार चुनाव में ‘हॉट
टॉपिक’ बन गया
है।

हालांकि यह देखने वाली बात है कि क्या जमीन पर बेरोजगारी के
इस गंभीर मुद्दे को लेकर हालात बन पा रहे हैं और लोग बेरोजगारी के मुद्दे पर वोट
देने के लिए मोबलाइज (एकजुट) हो रहे हैं या नहीं? क्या यह आम मतदाताओं के बीच प्रमुख मुद्दा बन पाया है या
फिर लोग जाति, धर्म
और लुभावनी चुनावी वादों को देखकर ही वोट देंगे, जिसके लिए बिहार सहित उत्तर भारत के कई राज्य पहले से ही
बदनाम हैं। इसके अलावा यह भी देखने वाली रोचक बात है कि क्या घोषणा पत्रों और बड़े
चुनावी सभाओं के अलावा स्थानीय नेता व प्रत्याशी भी बेरोजगारी के मुद्दे को लेकर
गंभीर हैं या उनके लिए यह सिर्फ चुनावी घोषणा पत्र की बात है?

बिहार में बेरोजगारी का मुद्दा इसलिए भी अहम हो जाता है
क्योंकि इस राज्य में बेरोजगारी की दर भारत के औसत बेरोजगारी दर से दोगुनी और देश
में सबसे अधिक है। इसके अलावा यहां की उच्च शिक्षा और भर्ती व्यवस्था भी अन्य
राज्यों की तुलना में अधिक लेट-लतीफी की शिकार है। हाल में हुए कोरोना लॉकडाउन में
उत्तर प्रदेश के बाद सबसे अधिक प्रवासी मजदूर बिहार से ही लौटे और अब फिर वापस जा
रहे हैं। जनसंख्या के औसत के रूप में देखा जाए, तो यह संख्या भी पूरे देश में सबसे अधिक है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी
(CMIE) के रिपोर्ट के अनुसार बिहार में बेरोजगारी की दर
(11.9%)
देश के बाकी राज्यों और देश के राष्ट्रीय
औसत (7.1%) से काफी अधिक है

जनवरी, 2018 के बाद से ही लगातार ऐसा हाल है। पिछले 5 सालों में ऐसा लगातार चलता आ
रहा है और सिर्फ 2017 ही ऐसा साल था, जब बिहार की बेरोजगारी का दर राष्ट्रीय औसत
से कुछ कम हुआ हो। बेरोजगारी की यह दर शिक्षित बेरोजगारी, संगठित क्षेत्र
की बेरोजगारी और असंगठित क्षेत्र की बेरोजगारी तीनों क्षेत्रों में सबसे अधिक है।

बिहार और देश के बेरोजगारी दर की तुलना (डाटा सोर्स- सीएमआईई)

बिहार और देश के बेरोजगारी दर की तुलना (डाटा सोर्स- सीएमआईई)

अगर प्रवासी मजदूरों की बात करें तो उत्तर प्रदेश के बादसबसे अधिक प्रवासी मजदूर बिहार से ही पलायन करते हैं और जनसंख्या की दृष्टिकोण से
देखा जाए तो औसतन यह संख्या भी सबसे अधिक है। इसलिए बेरोजगारी बिहार में एक अहम
मुद्दा है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि चाहे लोकसभा चुनाव हो या राज्यसभा चुनाव बिहार
में यह कभी भी एक चुनावी मुद्दा नहीं बन पाया है। हालांकि इस बार सभी राजनीतिक दल
इस मुद्दे पर केंद्रित नजर आ रहे हैं।

गांव कनेक्शन ने इस संबंध में कुछ बेरोजगारों, प्रवासी
मजदूरों, स्वतंत्र पत्रकारों और बिहार के सिविल सोसायटी से जुड़े लोगों से बात की
और समझने का प्रयत्न किया कि क्या जमीन पर भी बेरोजगारी एक बड़ा मुद्दा बनता दिख
रहा है या नहीं?

बिहार के राजगीर के रहने वाले योगेश
गिरी कोरोना लॉकडाउन से पहले गुजरात के अहमदाबाद के एक ऑटोमोबाइल कंपनी में
वेल्डिंग का काम करते थे। लॉकडाउन हुआ तो उन्होंने लगभग डेढ़ महीने तक लॉकडाउन
खत्म होने का इंतजार किया। इस दौरान उनकी कंपनी पूरी तरह से बंद रही। लेकिन 1.5
महीने बाद भी जब लॉकडाउन नहीं खुला, कंपनी बंद रही और उनके पास का बचत पूरी तरह से
खत्म हो गया, तो उन्होंने अपने साथियों के साथ घर वापिस आने का फैसला किया।

एजेंट को पैसे देकर किसी तरह उन्होंने
श्रमिक ट्रेन के टिकट का बंदोबस्त किया और अपने घर राजगीर लौट आए। योगेश ने गांव
कनेक्शन को बताया कि ना कोरेन्टीन सेंटर में और ना उसके बाद कभी घर आकर किसी अधिकारी
या नेता ने उनसे रोजगार के बारे में पूछा। जबकि उस दौरान नीतीश सरकार लगातार दावा
कर रही थी कि आने वाले प्रवासी मजदूरों से कोरेन्टीन सेंटर में ही उनके स्किल आदि
के बारे में पूछा जा रहा है और स्किल मैपिंग के द्वारा उन्हें मनरेगा या अन्य किसी
सरकारी योजना के तहत रोजगार दिलाया जाएगा।

योगेश ने गांव कनेक्शन से बताया कि
उन्हें और उनके साथियों को मनरेगा या किसी अन्य सरकारी योजना के तहत अभी तक कोई
रोजगार नहीं मिला है और वह अपने साथियों के साथ फिर से अहमदाबाद जाने पर विचार कर
रहे हैं, जहां पर फैक्ट्री चालू हो चुकी है। जब हमने योगेश से राज्य में हो रहे
चुनाव के बारे में पूछा तो वे उखड़ गए और कहा कि चुनाव के समय भी कोई नेता या प्रत्याशी
उनके पास नहीं आया।

गुस्से में योगेश कहते हैं, “नेता लोग हम गरीबों के वहां कहां आता है। वह तो बस गांव के बड़े लोगों
(आर्थिक रूप से मजबूत और उच्च जाति के लोग) के वहां आता है, उनके दालान में बैठता
है, कुछ बात करता है और फिर वापिस चला जाता है। उनको लगता है कि ये बड़का लोग हम
लोगों का भी वोट तय कर देगा, लेकिन ऐसा नहीं होने वाला है।”
वोट देने के बारे में पूछने पर योगेश ने कहा कि उनका तो वोट देने का कोई मन नहीं
है लेकिन अगर उनका परिवार और समुदाय कहेगा तो दो दिन पहले आपस में सोच-समझ कर किसी
ठीक-ठाक उम्मीदवार को वोट कर देंगे। इससे हम योगेश के नाउम्मीदी का अंदाजा लगा सकते
हैं।

योगेश की ही तरह नाउम्मीद बिहार के बांका जिले के नौजवान बिपिन भारती (27 वर्ष) भी हैं। हालांकि बिपिन कोई प्रवासी
मजदूर नहीं बल्कि एक शिक्षित बेरोजगार हैं जो कि पिछले 5-6 सालों से प्रतियोगी
परीक्षाओं की तैयारी कर रहे हैं और परीक्षाएं दे रहे हैं। उन्होंने बताया कि
उन्होंने 2014 से ही लगभग दहाई की संख्या में कई ऐसी परीक्षाएं दी हैं, जिनका
अंतिम परिणाम नहीं आ पाया है और भर्ती प्रक्रिया अधर में लटकी हुई है। उन्होंने
बताया कि 2014 से ही बिहार में शिक्षकों की बहाली नहीं हुई है, जबकि बिहार में
शिक्षकों के ही सिर्फ 1.5 लाख से अधिक पद
खाली हैं। उन्होंने कहा कि तब भी यह भर्ती लोकसभा और अगले साल होने वाले विधानसभा
चुनाव के दबाव में हुई थी ताकि युवाओं का वोट सत्ताधारी पार्टी और उनके गठबंधन को
मिल सके। उन्होंने कहा तब से 6 साल हो गए, शिक्षक भर्ती प्रक्रिया शुरू भी हुई
लेकिन आज तक पूरी नहीं हो सकी।

इस चुनाव में बेरोजगारी का मुद्दा
बनने के सवाल पर बिपिन कहते हैं, “यह सिर्फ हवाई मुद्दा है। अभी
चुनाव है तो सभी दल इसकी बात कर रहे हैं। अगर नीतीश कुमार को इतनी ही बेरोजगारी की
फिक्र होती तो पिछले 15 साल में लाखों रोजगार दिए होते। प्रदेश में 4.5 लाख सरकारी
पद और 1.5 लाख शिक्षकों के पद खाली नहीं होते। 2014 के बाद भी शिक्षकों की बहाली
होती। सात साल से बिहार एसएससी और बीपीएससी के विद्यार्थियों को अपने परीक्षाफल का
इंतजार नहीं करना पड़ता। इसी तरह तेजस्वी यादव भी कुछ सालों तक सत्ता में थे, वे
भी कुछ करते। लेकिन अभी चुनाव आ रहा है, तो अचानक से इन्हें बेरोजगारों की याद आ
गई है।”

हालांकि युवा हल्ला बोल के प्रमुख और संयोजक अनुपम बिपिन से
थोड़ी अलग राय रखते हैं। युवा हल्ला बोल पिछले कुछ सालों से देश के शिक्षित
बेरोजगारों की आवाज प्रमुखता से सोशल मीडिया से सड़क तक उठाता रहा है और अनुपम इस
समय अपने साथियों के साथ बिहार के अलग-अलग हिस्सों का दौरा कर रहे हैं और
बेरोजगारी को एक प्रमुख मुद्दा बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

गांव कनेक्शन से बातचीत में अनुपम कहते हैं, “यह बहुत ही संतोष और खुशी की बात है कि जो राजनीतिक दल आज
से एक महीने पहले जाति, धर्म और क्षेत्र के अस्मितावादी मुद्दे पर खेल रहे थे, वे कम
से कम अब बेरोजगारी की बात अपने चुनावी घोषणा पत्रों और चुनावी सभाओं से कर रहे
हैं। यह हमारे लिए पहली सफलता की तरह है। मैं जहां-जहां घूम रहा हूं, वहां के लोगों
खासकर युवाओं में बेरोजगारी को लेकर आक्रोश है और मुझे उम्मीद है कि आखिरी चरण के
वोट पड़ने तक यह एक प्रमुख मुद्दा बना रहेगा और लोग इसको ध्यान में ही रखकर सही
उम्मीदवार और सही दल को वोट करेंगे।”

हालांकि अनुपम इस बात को लेकर थोड़े से निराश हैं कि कोई भी
उचित विकल्प इन युवाओं के पास नहीं है। वह कहते हैं कि चाहे नीतीश कुमार हो या
तेजस्वी यादव या फिर चिराग पासवान सभी लाखों की संख्या में रोजगार देने की बात कर
रहे हैं लेकिन उनके पास इसके लिए कोई विशेष रोडमैप तैयार नहीं दिखता। वे यह नहीं
बता पा रहे हैं कि जिस बिहार में पिछले 15 साल में सिर्फ 6 लाख की संख्या में
सरकारी भर्तियां हो सकीं, वे अचानक से अगले 5 साल में 10 लाख या 19 लाख भर्तियां
कैसे करा सकती हैं।

हालांकि उन्होंने कहा कि अगर सरकारी इच्छाशक्ति हो तो यह
काम भी किया जा सकता है क्योंकि बिहार में पहले से साढ़े चार लाख से अधिक पद खाली
हैं। इसके अलावा कई ऐसे सरकारी विभाग हैं, जहां पर देश के औसत मानक से काफी कम सरकारी
कर्मचारी या अधिकारी तैनात हैं। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि बिहार के पुलिस
विभाग में 50 हजार से अधिक पद खाली हैं, लेकिन सरकारी मानक और राष्ट्रीय औसत को
देखा जाए तो बिहार में सामान्य नागरिकों और पुलिस बल का अनुपात 1 लाखः77 है यानी 1 लाख नागरिकों पर
सिर्फ 77 पुलिस कर्मी हैं। जबकि राष्ट्रीय औसत 1 लाख नागरिकों पर 151 पुलिसकर्मी
का है। अगर इस राष्ट्रीय औसत के हिसाब से ही भर्ती किया जाए तो बिहार पुलिस में ही
सवा लाख से अधिक भर्तियां निकल के आ जाएंगी। यह बेरोजगारी तो दूर करेगा ही इसके
अलावा बिहार के कानून-व्यवस्था को भी सुधारेगा।

इसी तरह बिहार के स्वास्थ्य विभाग की बात की जाए तो नेशनल
रूरल हेल्थ मिशन (NRHM) के आंकड़ों के अनुसार बिहार में 90
फीसदी से भी अधिक की संख्या में सामुदायिक स्वास्थ्य क्षेत्रों की कमी है। इंडियन
मेडिकल एशोसिएशन के आंकड़ें भी कहते हैं कि बिहार में एक लाख लोगों पर सिर्फ 26
बेड हैं, जबकि राष्ट्रीय औसत 138 बेड का है। अगर ये सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र बनते
हैं, तो उसी हिसाब से डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों की भर्ती की
जाएगी, इससे बेरोजगारी भी दूर होगा और बिहार की स्वास्थ्य व्यवस्था भी सही होगी।
NRHM के ही आंकड़ों के अनुसार बिहार में 7800 डॉक्टरों, 13800
नर्सों और 1500 फॉर्मासिस्टों की कमी है।

शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि बिहारमें 2 लाख 75 हजार 255 शिक्षकों की कमी है। अनुपम कहते हैं कि अगर इन सभी पदों को
राष्ट्रीय औसत और मानकों के अनुसार भरा जाए तो 10 लाख सरकारी पदों को आसानी से
सृजित किया जा सकता है। हालांकि वह कहते हैं कि इससे बेरोजगारी का एक तिहाई हिस्सा
ही दूर होगा।
सीएमआईई के डाटा के अनुसार 11.9% बेरोजगारी दर और 38.5% श्रम भागीदारी के साथ बिहार में 36 लाख से अधिक बेरोजगार हैं। अशिक्षित और असंगठित क्षेत्र की बेरोजगारी को दूर
करने के लिए बिहार सरकार को क्षेत्रीय और
लोकल उद्यमों को भी बढ़ावा देना होगा ताकि पलायन रोका जा सके और बेरोजगारी को दूर
किया जा सके।

मिथिला स्टूडेंट यूनियन (एमएसयू) के अनूप मैथिल भी
अनुपम की बातों से सहमत दिखते हैं। उनका कहना है कि सिर्फ सरकारी नौकरियां देने से
शिक्षित बेरोजगारी को ही कुछ हद तक दूर किया जा सकता है। अशिक्षित और असंगठित क्षेत्र
के बेरोजगारी को दूर करने के लिए क्षेत्रीय उद्योगों को ही सरकार को बढ़ावा देना
होगा। उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि हाल ही में मिथिला क्षेत्र में व्यापक तौर
पर पैदा होने वाले मखाना को ‘मिथिला मखाना’ का जीआई टैग
मिला है। इसके अलावा मगध में पान, दक्षिणी बिहार में बीड़ी आदि का कुटीर उद्योग
है, इसे सरकार को बढ़ावा देना होगा, तभी पलायन और बेरोजगारी को दूर किया जा सकता
है। अनूप ने इसके अलावा पर्यटन क्षेत्र को बढ़ावा देने की बात कही जिससे पर्यटक
बिहार की तरफ आकर्षित होंगे और पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलेगा।

बिहार के वरिष्ठ पत्रकार लेखक पुष्यमित्र कहते हैं कि लोगों का ध्यान सरकारी
पदों पर इसलिए रहता है क्योंकि यह आपको स्थायित्व और सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा
देता है, इसलिए बिहार की बेरोजगारी को व्यापक तौर पर सरकारी रिक्त पदों को भरने से
ही दूर किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि बिहार में कई तरह के छोटे-छोटे लघु व
कुटीर उद्योग हैं लेकिन वे अभी तक बड़े उद्योगों में नहीं बदल पाए हैं। अगर
बेरोजगारी को व्यापक तौर पर दूर करना है तो इन छोटे कुटीर उद्योगों को बड़े
उद्योगों में बदलना होगा, जो कि सरकारी मदद के बिना संभव नहीं है।

हालांकि वह इसमें सरकारी प्रयासों का अभाव देखते हैं। वह कहते हैं कि सरकार खुद
ही नहीं चाहती कि बिहार में उद्योग विकसित हो इसलिए सीएम नीतीश कुमार ने कुछ दिन
पहले कहा था कि हम चाहकर औद्योगिक राज्य नहीं बन सकते क्योंकि हम
कोई
समुद्र के किनारे बसे राज्य
नहीं बल्कि भूभागों से घिरे राज्य हैं। एमएसयू के अनूप
मैथिल कहते हैं कि यह सिर्फ सरकारों का बहाना है। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश
जैसे ऐसे कई राज्य हैं, जहां पर समुद्र नहीं है लेकिन ये शहर औद्योगिक और कृषि दोनों
रूप में विकसित हो रहे हैं। ‘अगर सरकारी इच्छाशक्ति
हो तो सब कुछ संभव है, लेकिन बिहार का कोई भी दल और गठबंधन इस इच्छाशक्ति को नहीं
दिखा पाया है,’ अनूप
अपनी बातों को समाप्त करते हैं।

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