संवाद: निजी निवेश से क्या कृषि क्षेत्र को होगा लाभ या बढ़ेंगी किसानों की मुश्किलें?

क्या निजी कंपनियां मंडियों को बनाने में रूचि रखती हैं और यदि रखती हैं तो उनके अपने क्या हित, सहूलियतें और मांगें हैं?
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पिछले एक मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कृषि क्षेत्र में बजट कार्यान्वयन पर एक वेबिनार कार्यक्रम के दौरान कहा कि खेती-बाड़ी में अनुसंधान और विकास में सार्वजनिक क्षेत्र का योगदान अधिक है और अब निजी क्षेत्र के लिए अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने का समय आ गया है।

नए कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों की एक बड़ी संख्या भले ही 100 से ज्यादा दिनों से मोर्चा खोले हुए हैं, लेकिन केंद्र सरकार यह मानती है कि तीन कृषि कानून इस क्षेत्र में बुनियादी सुविधाओं के विकास और उत्पादन के लिए निजी कंपनियों को बढ़ावा देने की दिशा में कार्य करेंगे।

राष्ट्रीय किसान आयोग, 2006 (स्वामीनाथन आयोग) की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हर 80 वर्ग किलोमीटर पर एक कृषि मंडी बनाने की आवश्यकता है, जबकि कृषि व किसान कल्याण मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर ने बीते संसद सत्र में लोकसभा में जानकारी दी थी कि वर्तमान में हर 473 वर्ग किलोमीटर पर ही एक कृषि मंडी है।

भारत के कृषि क्षेत्र में निजी कंपनियों का दखल तो पिछले कई सालों से लगातार बढ़ता जा रहा है। 2004-05 से ही निजी कृषि मंडियां बनाने के लिए निजी निवेश को आकर्षित करने की शुरूआत महाराष्ट्र से हो गई थी। ऐसे में प्रश्न है कि क्या निजी कंपनियां मंडियों को बनाने में रूचि रखती हैं और यदि रखती हैं तो उनके अपने क्या हित, सहूलियतें और मांगें हैं?

इसे लेकर गुजरात के बड़ोदरा जिले में जैविक खेती को प्रोत्साहित करने के लिए कार्य करने वाली संस्था जतन ट्रस्ट के निदेशक कपिल शाह बताते हैं, “भारत में कृषि क्षेत्र के तहत निजी मंडियों को स्थापित करने की अनुमति तो एक दशक पहले ही मिल चुकी है। इसके बावजूद गुजरात जैसे विकसित कहे जाने वाले राज्य में नौबत यह है कि कोई तीस निजी मंडियां ही इस दौरान बन सकीं हैं। इनमें से भी जो तीन या चार मंडियां कार्यरत हैं, वे भी बड़े शहरों तक ही सीमित हैं।”

सवाल यह है कि कॉर्पोरेट कंपनियां किसानों से उनकी उपज की सीधी खरीद करने के लिए अपनी मंडियां खोलने के लिए आगे क्यों नहीं आ रही हैं?

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर रामकुमार इस स्थिति पर बात करते हुए कहते हैं, “भारतीय खेती-किसानी का भूगोल समझें तो दूर-दराज के क्षेत्रों तक छोटे किसानों के बीच मंडियां बनाने के लिए कोई भी कार्पोरेट कंपनी मुंबई से सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी गांव या कस्बे में क्यों जाएगी? इसलिए वह यदि अपनी मंडी बनाएगा भी तो शहर को ही केंद्र में रखेगा।”

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह कहते हैं, “भारत में 86 फीसदी के आसपास छोटे और मझौले किसान हैं, जो आधे से लेकर पांच एकड़ के छोटे-छोटे खेतों में खेती करते हैं। कोई भी कॉर्पोरेट भला क्यों चाहेगा कि वह गांव पहुंचकर बड़ी संख्या में छोटे किसानों से अलग-अलग सौदेबाजी करके सीधे उनसे उनकी उपज खरीदे और सभी को अलग-अलग तुरंत नकद भुगतान भी करता रहे। कोई भी बड़ी कंपनी सामान्यत: नकद भुगतान नहीं करना चाहती, जबकि किसान को तुरंत नकद राशि चाहिए होती है।”

शहरों की आसपास मंडियां होने की एक बड़ी वजह लागत भी है। प्रो. रामकुमार के मुताबिक कॉर्पोरेट यदि दूरदराज के क्षेत्रों से कृषि उत्पाद खरीदकर उसे अपनी गोदाम या शहरों की विभिन्न फैक्ट्रियों तक ढोएगा तो इसमें उसे बहुत सारा पैसा खर्च करना पड़ेगा।

प्रोफेसर रामकुमार मानते हैं कि एक ओर जहां बीते कई सालों से सरकार यह मानकर चल रही है कि कृषि मंडियां बनाना उसका काम नहीं बल्कि इसके तहत वह जो नीति अपना रही है उसके मुताबिक कृषि मंडियां बनाने के मामले में कॉर्पोरेट को निवेश करने के लिए आगे आना चाहिए और इसलिए सरकारी स्तर पर मंडियां बनाने का काम लगभग बंद हो चुका है। वहीं, दूसरी ओर यदि निजी कंपनियां भी खासकर देश के ज्यादातर दूर-दराज के क्षेत्रों में मंडियां स्थापित नहीं करती हैं तो इससे किसानों के सामने विकल्पहीनता की स्थिति बनेगी।

प्रो. रामकुमार कहते हैं, “बिहार का उदाहरण हमारे सामने हैं जहां 2006 से सरकार की अपनी एपीएमसी (कृषि उपज विपणन समिति) मंडियां बंद हो चुकी हैं और पिछले 15 सालों से वहां कॉर्पोरेट मंडियां भी नहीं बनने से विकल्पहीन किसान धान जैसी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य से 30 से 40 फीसदी कम दाम पर बिचौलियों को ही बेचने के लिए मजबूर है।”

दूसरा प्रश्न है कि सरकार किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए एपीएमसी मंडियां बनाने की व्यवस्था को लेकर यदि बजट न होने का कारण बताकर पीछे हट रही है तो क्या वाकई में वह बहुत असहाय है?

इस बारे में छत्तीसगढ़ के किसान नेता संजय पराते बताते हैं कि यदि कोई सरकार किसान हितैषी है तो बाजार और बजट दोनों को उसी के अनुरूप बनाया जा सकता है। वे कहते हैं, “यदि सरकार बैंक, बीमा और रेल जैसे फायदे में चलने वाले सार्वजनिक उपक्रम भी कॉर्पोरेट को बेचने लगे तब उसके खजाने में पैसा कहां से आएगा और तब सरकार कैसे कृषि की अधोसंरचना बनाने के लिए निवेश कर सकती है। सरकार यदि कॉर्पोरेट से पिछले कई सालों के दौरान बैंकों से लिए गए कई लाख करोड़ रूपए की वसूली का एक मामूली हिस्सा ही वसूल कर सके तो कृषि मंडियों को बनाने के लिए पैसों की कमी का मामला चुटकियों में हल हो जाएगा।’

सरकार की नीतियों पर सवाल उठाते हुए वो आगे कहते हैं, “अड़चन तो यही है कि सरकार की आर्थिक नीतियां प्रो-कॉर्पोरेट हैं, अन्यथा मंहगा पेट्रोल और डीजल बेचकर ही वह कई गुना मुनाफा कमाना जानती है। मुद्दा यह है कि यह मुनाफा कहां खर्च होगा। यदि किसानों की बजाय यह मुनाफा कॉर्पोरेट के हितों के लिए खर्च होगा तो कृषि मंडियां कभी बनेंगी ही नहीं। इसलिए सरकार कॉर्पोरेट के पक्ष में कई तरह के नैरेटिव गढ़ती रहती है।”

सरकार पर किसान और कॉर्पोरेट के मामले में भेदभाव को लेकर बातचीत में खाद्य एवं निर्यात नीति विशेषज्ञ देविंदर शर्मा कहते हैं, “सरकार किसानों की वित्तीय मदद को सब्सिडी बोलती है किंतु कॉर्पोरेट को दी जाने वाली वित्तीय मदद को वह सब्सिडी बोलने से बचती है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में सब्सिडी शब्द का प्रचलन नकारात्मक भाव से किया जाने लगा है और ऐसा नैरेटिव तैयार किया गया है जिससे मध्यम-शहरी तबके को लगे कि सब्सिडी के नाम पर उनके टैक्स का एक हिस्सा किसानों को दिया जाता है। इस तरह सरकार ही इतनी प्रो-कॉर्पोरेट हो चुकी है कि एक ही चीज के लिए वह दो अलग-अलग शब्द इस्तेमाल करती है ताकि उसके आधार पर एक को सकारात्मक और दूसरे को नकारात्मक प्रस्तुत कर सके।”

देविंदर शर्मा आगे कहते हैं, “उदाहरण के लिए, किसान और कॉर्पोरेट एक ही बैंक से कर्ज लेते हैं और जब उनके कर्ज को माफ करने की बारी आती है तो कॉर्पोरेट के पक्ष में यह कहा जाता है कि इससे इंसेंटिव ऑफ़ ग्रोथ मतलब विकास को प्रोत्साहन मिलेगा। दूसरी तरफ, किसान का कर्ज यह कहकर इसलिए माफ करना ठीक नहीं समझा जाता है कि इससे सरकार की नेशनल बैलेंस शीट खराब होती है।” 

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