ठाणे, महाराष्ट्र: कोरोना वायरस के कारण हुए लॉकडाउन ने काफी लोगों के रोज़गार पर वार किया है। लाखों लोग अपनी नौकरी खो चुके हैं। लेकिन 55 साल की इंदुबाई विट्ठल अंडे बेचकर ऐसे लोगों को प्रेरणा दे रही हैं और अपने घर में रहने वाले छह सदस्यों का अकेले ही पेट पाल रही हैं।
इंदुबाई महाराष्ट्र के ठाणे जिले के शाहपुर ब्लॉक के एक आदिवासी गांव खंडूचीवाड़ी में रहती हैं। वह अंडे बेचकर अपना जीवनयापन करती है। गांव कनेक्शन से की बातचीत में उन्होंने बताया, “सबको पैसा चाहिए। ऐसी स्थिति में जहां हम काम करने के लिए बाहर नहीं निकल सकते थे, अंडे बेचना हमारे लिए वरदान साबित हुआ। इन्हे बेचकर मै घर का खर्च चलती हूं।”
पापुलेशन फर्स्ट एक गैर सरकारी संगठन (NGO) है जो भारत में ग्रामीण महिलाओं के स्वास्थ्य की गुणवत्ता में सुधार करने की दिशा में काम करती है। संस्था गांव में प्रति महिला दस चूजे बांटती है। इंदुबाई सहित कुल 18 आदिवासी महिलाएं अब इन्हीं चूजों के अंडे बेचकर आजीविका कमा रही हैं।
पापुलेशन फर्स्ट के प्रोग्राम मैनेजर, फज़ल पठान ने गांव कनेक्शन को बताया, “हमने गांव में इस प्रोजेक्ट की शुरुआत इसी साल जनवरी में की थी। इससे पहले, इन आदिवासी महिलाओं के पास आजीविका कमाने का और कोई साधन नहीं था। हमने इन्हें इन चूजों की देखरेख करने की ट्रेनिंग दी। अप्रैल में हमने गांव की प्रति आदिवासी महिला को 10 चूजों पालने को दिए। अब तक हम 18 महिलाओं मे 180 चूजों का वितरण कर चुके हैं।”
ऐसे समय में जब COVID-19 महामारी के कारण सप्लाई चेन पर असर पड़ा है, ये आदिवासी महिलाएँ पांच गांवों जिनमें खंडूचीवाड़ी, कृष्णाचीवाड़ी, मुसेवाड़ और अम्बीचीवाड़ी शामिल हैं, में गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं को आंगनबाड़ी (ग्रामीण बाल देखभाल केंद्रों) के माध्यम से अंडे बांट रही हैं।
इससे अब्दुल कलाम अमृत अहार योजना चलाने में मदद मिल रही है। यह योजना कुपोषण से निपटने और गर्भवती और स्तनपान कराने वाली महिलाओं और बच्चों के पोषण में सुधार करने की ओर काम करती है। आंगनबाड़ी में काम करने वाली महिलाएं इन आदिवासी महिलाओं से सीधे अंडे खरीदती हैं।
पठान ने हमें आगे बताया, “पहले ये महिलाएं अंडे खाया करती थीं। लेकिन जब उत्पादन में वृद्धि हुई, तो उन्होंने स्थानीय विक्रेताओं और बाद में आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को बेचना शुरू कर दिया। शहरों के साथ खराब सड़कों और कनेक्टिविटी के चलते यहाँ के आदिवासी लोग सब्जियां नहीं खरीद पाते। वे गेहूं और धान पर जीवित थे। लेकिन जब से पोल्ट्री प्रोजेक्ट शुरू हुआ और महिलाओं और बच्चों ने अंडे का सेवन शुरू कर दिया जो कि अब स्थानीय आहार बन गया है। इससे उनमें कुपोषण की समस्या को भी संबोधित किया गया। अब हम महिलाओं में सकारात्मक स्वास्थ्य परिवर्तन देखते हैं।” पठान अपनी टीम के साथ गांवों में पिछले पांच सालों से कुपोषण की समस्याओं पर काम कर रहे हैं।
इस साल के शुरू में विधान सभा में दिए गए एक लिखित जवाब में, राज्य के स्वास्थ्य मंत्री, राजेश टोपे ने बताया कि 1 अप्रैल, 2019 और 5 जनवरी, 2020 के बीच राज्य में मातृ मृत्यु के 1,070 मामले दर्ज किए गए। ठाणे के ग्रामीण हिस्सों में 327 बच्चों को गंभीर कुपोषण और 1736 में मध्यम कुपोषण का पता चला। राज्य के स्वास्थ्य विभाग द्वारा उपायों के बावजूद कुपोषण की दर बढ़ रही है। हालांकि, ठाणे के इस गांव में आदिवासी महिलाओं ने खुद कुपोषण को दूर करने के लिए कदम बढ़ाया है।
लॉकडाउन का एक अनपेक्षित लेकिन गंभीर प्रभाव बच्चों पर पड़ा है। भारत में लगभग 217 मिलियन बच्चे – आंगनबाड़ी में पंजीकृत 158 मिलियन बच्चे और सरकारी स्कूलों में मिड-डे मील के लिए स्वीकृत 59.6 मिलियन छात्र – संभवतः भूखे रह रहे हैं। लेकिन इन आदिवासी महिलाओं ने गांव में अपनी सेवाएं जारी रखीं हैं।
35 वर्षीय अनीता धर्म वाघ गांव मे रह रही एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता हैं, जो पिछले 17 सालों से इस काम में है। उन्होंने गांव कनेक्शन को बताया, “हम अप्रैल से गांव में पांच गर्भवती और चार स्तनपान कराने वाली महिलाओं को अंडे दे हैं। हम उन्हें सप्ताह में छह दिन अंडे देते हैं। आहार में चावल, दालें, तेल और नमक भी शामिल हैं।” अनीता ने कहा कि इन महिलाओं को अंडे देना बहुत ज़रूरी है। यदि उन्हें अंडे नहीं देते हैं, तो उनका वजन घटने लगेगा।
पठान के अनुसार इस गांव में 0-6 वर्ष के बीच के लगभग 60 बच्चे हैं, “इन बच्चों के वजन में सुधार हो रहा है। हम महिलाओं और बच्चों में स्पष्ट बदलाव देख सकते हैं।”
इंदुबाई ने गांव कनेक्शन को बताया कि उन्होंने आंगनवाड़ी केंद्रों और स्थानीय दुकानदारों को जून में 250 अंडे बेचे और 1,250 रुपये कमाए। औसतन, ये आदिवासी महिलाएं प्रति माह 700-800 रुपये कमा लिया करती हैं। वे इन अंडों को 7-8 रुपये प्रति अंडा बेचती हैं। प्रत्येक अंडे के उत्पादन की लागत 2-3 रुपये है। उत्पादन की लागत और मुनाफे के बारे में बात करते हुए इंदुबाई ने कहा, “हम इन चूजों को चावल, गेहूं और बाजरी (बाजरा) देते हैं।”
इंदुबाई वन विभाग द्वारा प्रदान किए गए खेत में भी काम करती हैं जहाँ वह धान उगाती हैं। इंदु ने बताया कि उसे केवल बाजरा खरीदना पड़ता है। बाकी सब वह सस्ती दरों पर खेत और राशन की दुकान से खरीद लेती हैं ।
इंदुबाई और अन्य आदिवासी महिलाएं नए चूजों को पाल भी रही हैं। “18 में से 13 महिलाओं ने चूजों को पालना शुरू किया। कुल 100 चूजों का जन्म हुआ। कुछ गर्मी से मर गए, बाकी बच गए। अब, हमारे पास कुल 250 पक्षी हैं। ये बाद में अन्य चूजों को जन्म देंगे और बदले में, अधिक अंडे हमें मिलेंगे। इससे कई गुना लाभ बढ़ जाएगा।”
पापुलेशन फर्स्ट अपने इस पायलट प्रोजेक्ट को तीन और गांवों में आगे बढ़ाने की योजना बना रहा है। शेनवा के स्थानीय बाजार में अंडों की उच्च बिक्री और खपत के चलते इसे गांव से लिंक करने की योजना है। इससे राज्य की जनजातीय बेल्ट में रहने वाली कई और महिलाओं के लिए आजीविका के अवसर पैदा होंगे।
अनुवाद : शिवांगी सक्सेना
इस स्टोरी को मूल रूप से अंग्रेजी में यहां पढ़ें।
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