मध्यप्रदेश की यह महिला शिक्षक छात्रों को पढ़ा रही गौरैया संरक्षण का पाठ, कई विद्यालयों में बनवाए घोंसले

गौरैया दिवस विशेषः मध्य प्रदेश के सतना जिले के एक माध्यमिक विद्यालय में शिक्षिका डॉ. अर्चना शुक्ला अपने छात्रों को पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ पर्यावरण व पशु-पक्षी संरक्षण का पाठ सिखाती हैं। फिलहाल वह गौरैयों को बचाने के लिए अपने विद्यार्थियों को घोंसला बनाना भी सीखा रही हैं।
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सतना (मध्यप्रदेश)। “बात 11 साल पहले की है। एक दैनिक अखबार में सफेद कौए के बारे में पढ़ा था। सफेद कौआ मेरे लिए बिल्कुल एक नया टर्म था, क्योंकि अभी तक मैंने बस काले कौए के बारे में ही सुना था। अधिक उत्सुकता जगी तो उस रिक्शा चालक मोहम्मद इस्लाम निवासी के पास पहुंची, जिन्हें वह कौआ मिला था। इस घटना ने मेरे अंदर पक्षियों के बारे में जानने की जिज्ञासा को और बढ़ा दिया। इसके बाद से मैंने परिंदों के संरक्षण का काम शुरू किया। यही सनक थी कि पक्षी विज्ञान से पीएचडी तक की, ” डॉ. अर्चना शुक्ला गाँव कनेक्शन से बताती हैं।

डॉ. अर्चना शुक्ला (38 वर्ष) वर्तमान में शासकीय उत्कृष्ट उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, सतना में माध्यमिक शिक्षक के रूप में कार्यरत हैं। लेकिन इससे इतर उनकी पहचान एक पर्यावरण व पशु-पक्षी प्रेमी के रूप में होती है। वह पिछले सात सालों से गौरैया संरक्षण की दिशा में काम कर रही हैं और लगभग 200 से अधिक घोंसला बना चुकी हैं।

उन्होंने अपने विद्यार्थियों को भी गौरैया संरक्षण के लिए तैयार किया है। इसी को आगे बढ़ाते हुए वह कक्षा ग्यारहवीं के विद्यार्थियों को घोंसला बनाने का काम दे रही हैं। छात्र अपने गली मोहल्लों में घोंसला बनाने का काम करते हैं और लोगों को प्रेरित भी करते हैं।

वह घोंसला बनाने के लिए बच्चों को अलग से प्रशिक्षण भी देती हैं और इस काम के लिए उन्हें राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर कई बार सम्मान भी प्राप्त हो चुका है।

बच्चों ने पुआल से गौरैया के लिए घोसला बनाया है। 

गांव कनेक्शन से बातचीत में वह कहती हैं, “गौरैया को आईयूसीएन (इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर) ने रेड लिस्ट में रखा है। इसे लो-कन्जरवेटिव श्रेणी में शामिल किया गया है। इसी बात को देखते हुए नेचर फारएवर सोसायटी नासिक ने फ्रांस के एक एनजीओ के साथ मिलकर काफी काम किया है। ये सब मेरे लिए बहुत प्रेरक साबित हुए।”

शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय करहीं कला के तब के विद्यार्थी विवेक सिंह वर्तमान में मध्य प्रदेश ट्रांसमिशन कंपनी में टेस्टिंग असिस्टेंट के रूप में कार्यरत हैं। वह ‘गाँव कनेक्शन’ को बताते हैं कि कक्षा नौवीं और दसवीं में जीव विज्ञान पढ़ाने वाली मैडम अर्चना शुक्ला ने गौरैया के साथ-साथ अन्य पक्षियों और उनके संरक्षण के बारे में खूब सिखाया पढ़ाया है।”

अपने स्कूली दिनों को याद करते हुए विवेक कहते हैं, “उस समय एक कक्षा चार सेक्शन में बंटी हुई थी। एक सेक्शन में 40 विद्यार्थी होते थे। इस तरह से दो कक्षाओं के 320 विद्यार्थियों को यह प्रोजेक्ट मिला था। तब स्कूल से सटे करही खुर्द, पोड़ी गरादा, भटिगवां, उचेहरा, गड़ौली और बरा गाँवों में गौरैया संरक्षण के लिए बॉक्स के घर छात्रों द्वारा बनाए गए थे।”

आंगन-गलियों में फुदकने वाली नन्ही गौरैया इंसानों के बीच ही रहना पसंद करती हैं। उसे बस दाना-पानी और छोटा सा घर चाहिए, जो आपके घर के किसी कोने में भी हो सकता है।

पक्षी विज्ञान से डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित करने वाली अर्चना शुक्ला कहती हैं कि गाँव के घरों में, खपरैल के नीचे या फिर किसी कोने में जहां भी जगह हो, गौरैया कुछ घास-फूंस डालकर अपना घोसला बना लेती हैं। लेकिन जब से कंक्रीट के घर बनने शुरू हुए हैं, उन्हें काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। गौरैया के प्रकृति होती है कि वह अपना घोंसला अन्य पक्षियों की तरह नहीं बना सकती, इसलिए उन्हें ऐसी जगहों की तलाश रहती है, जहां कुछ घास-फूस रख कर अपना घर बनाया जा सके।

संघ लोक सेवा आयोग की 2019 की परीक्षा में पहले प्रयास में ही सफल रहे विनायक चमडिय़ा ने कहा कि वह लवडेल विद्यालय में पढ़ते थे। उस दौरान डॉ. अर्चना शुक्ला ने पक्षियों के लिए जो काम किया वह उन्हें आज भी याद है।

चमड़िया को यह अनुभव उनके यूपीएससी इंटरव्यू के दौरान भी काम आया। इंटरव्यू के दौरान नई शिक्षा पद्धति के प्रैक्टिकल अनुभवों के बारे में पूछा गया, तो उन्होंने अर्चना शुक्ला का उदाहरण दिया और बताया कि कैसे एक शिक्षक या शिक्षिका ना सिर्फ समाज को शिक्षित कर सकते हैं बल्कि पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी अपना योगदान दे सकते हैं।

डॉ. अर्चना शुक्ला कहती हैं कि किसान और गौरैया का सदियों पुराना रिश्ता है। “खेत की मेड़ पर बबूल-बेर के पेड़ होते थे। उन पेड़ों की डाल की ओट में इसका घोंसला होता था। इसी घोंसले में इनके बच्चे पलते थे। वजह है कि बच्चों के लिए जरूरी प्रोटीन यह खेतों से ही लेती थी। खेत की मिट्टी में पाए जाने वाले लार्वा से ही यह अपने बच्चों का पेट पालती थी लेकिन खेत से अत्याधिक उत्पादन के चलते इतने पेस्टीसाइड डाले गए कि लार्वा खत्म हो गए। मेड़ों को भी खेत में बदल दिया गया। पेड़ रहे नहीं तो वे भी कम होती चली गईं।”

अर्चना ने बताया कि उन्होंने अपने रिसर्च के समय पाया था कि खेत की मिट्टी में पाया जाने वाला लार्वा फसल को नुकसान पहुंचा सकता है। ऐसे में कह सकते हैं कि गौरेया जिस लार्वा को खाती थी, ऐसा कर वह किसान की मदद करती थी।

अर्चना बताती हैं कि नन्ही गौरैया के लिए घर बनाने में कई बातों, खासकर रंगों का ध्यान रखना बहुत जरूरी है। ऐसा कोई रंग न हो जिससे वे भटक जाएं। ज्यादा चटक रंग से वे दूर भागती हैं, इसलिए हरा रंग उनके लिए बहुत मुफीद है। इसके अलावा गौरैया के घर में तीन तरह के छेद होने चाहिए, पहला छेद आने-जाने के लिए, दूसरा हवा के लिए और एक छेद नीचे की तरफ ताकि घर में पानी या मिट्टी कुछ पड़े तो नीचे गिर जाए। नीचे का छेद बनाते समय यह ध्यान रखना जरूरी होता है कि घोसले का घास-फूस उस छेद के द्वारा ना गिरे।

पक्षी संरक्षण पर लंबे समय से काम कर रहे दिलशेर खान बताते हैं कि गौरैया, इंसानों के साथ रहने वाली चिड़िया है। पहले हम अनाज को बीनते-छानते थे, इससे जो निकलता था वह चिड़ियों के भरण पोषण के काम आता था। अब हमने मॉल से पैकेट बंद और साफ सुधरा अनाज खरीदना शुरू कर दिया है, जिसमें फटकन की जरूरत भी नहीं होती है। ऐसे में चिड़िया दाना के लिए भटकने लगती हैं।

उन्होंने कहा कि अगर हमें अपने आस-पास चिड़ियों, गौरैयों की मीठी आवाज को सुनते रहना है, उन्हें महसूस करना है तो उनके लिए अपने रहन-सहन के परंपरागत तरीकों को भी भूलना नहीं होगा।

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