उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले के पिसावां
ब्लॉक की रहने वाली निकिता (20 वर्ष) (बदला हुआ नाम) जब 17 साल की थीं, तब एक
पड़ोसी ने उनका बलात्कार कर दिया। जन्म से मूक बधिर निकिता चिल्लाकर अपना विरोध भी नहीं जता सकीं। डर के मारे
निकिता ने इस घटना के बारे में बाद में किसी को नहीं बताया। निकिता की मां को इस
बात का अंदाजा तब लगा जब वह 5 महीने की गर्भवती हो गई। इसके बाद उन्हें एफआईआर
कराने के लिए महीनों तक भटकना पड़ा, तब जाकर कहीं आरोपी के खिलाफ एफआईआर दर्ज हो सका।
निकिता के साथ यह दिल दहलाने वाली घटना तीन
साल पहले अगस्त, 2017 में हुई थी। निकिता आज दो साल के एक बच्चे की मां है, लेकिन
इस रेप पीड़िता को न्याय के साथ-साथ अभी भी आर्थिक सहायता की दरकार है। जबकि
बलात्कार पीड़िता को जीवन निर्वाह के लिए केंद्र और राज्य सरकारों की तरफ से निर्भया फंड सहित दर्जनों योजनाएं बनी हुई हैं, जिसको एक
निश्चित समय (तीन से छः महीने) में प्रशासन को पीड़िता तक पहुंचाना होता है।
उत्तर प्रदेश में एक फोन कॉल पर महिलाओं तक मदद पहुंचाने वाली महिला हेल्पलाइन वन स्टॉप
सेंटर 181 योजना का भी बुरा
हाल है। ऐसा इसलिए है क्योंकि राज्य सरकार के द्वारा पिछले एक साल से इस योजना के
लिए बजट नहीं दिया गया। इससे 181 में काम करने वाले सैकड़ों संविदा कर्मचारियों का
वेतन और अन्य खर्चें रूक गए। इस तरह सरकारी उदासीनता और बजट के अभाव में महिला
सुरक्षा से जुड़ी इस बेहद महत्वपूर्ण योजना ने दम तोड़ दिया।
हाथरस में हुए गैंगरेप
से उबल रहे देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में महिलाओं की स्थिति अब किसी से
छिपी नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की 2018 की रिपोर्ट के
अनुसार उत्तर प्रदेश में हर साल महिलाओं के खिलाफ हिंसा और अपराध के मामले बढ़ते
जा रहे हैं। जहां 2016 में महिलाओं से अपराध की संख्या 49,262 थी, वहीं 2017 में
यह 56,011 और 2018 में बढ़कर 59,445 हो गई। अगर हम बलात्कार और यौनिक हिंसा की बात
करें तो 2018 में उत्तर प्रदेश में 3946 रेप केस दर्ज हुए, जिसका मतलब है कि हर
रोज 11 बलात्कार की घटनाएं प्रदेश में होती हैं।
जहां एक तरफ महिला
सुरक्षा का मुद्दा देश और प्रदेश के लिए बहुत बड़ा सवाल है, वहीं बलात्कार और अन्य
शारीरिक व यौनिक हिंसा झेल चुकी महिलाओं के लिए भी स्थितियां बेहद खराब हैं। इन
महिलाओं के जीवन निर्वाह व पुनर्वास के लिए केंद्र सरकार ने 2013 में ‘निर्भया फंड’ की स्थापना की गई थी। इस फंड का उद्देश्य महिला
सशक्तीकरण और महिला सुरक्षा से संबंधित कई योजनाओं का क्रियान्वयन करना था, जिसमें
आपातकालीन फोन हेल्पलाइन सहायता, पीड़ितों को मुआवज़ा, महिलाओं के विरूद्ध अपराध
रोकथाम और महिला पुलिस वालंटियर जैसी योजनाएं शामिल थीं। लेकिन आज की तारीख में
देखें तो केंद्र सरकार की इस बेहद महत्वपूर्ण योजना की जमीनी हालात सही नहीं हैं
और यह बात खुद स्वीकार भी करती है।
संसद के बीते मानसून
सत्र में केरल के अट्टिंगल से कांग्रेस के सांसद अदूर प्रकाश के एक सवाल के जवाब
में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने बताया कि 2013 से अब तक निर्भया फंड
में 3024.46 करोड़ रूपये जारी किए गए हैं, लेकिन इसमें से लगभग 63.45 प्रतिशत यानी
1919.11 करोड़ रूपये ही खर्च हो पाया है। बाकी के 1105.35 करोड़ रूपये क्यों नहीं
खर्च हो पाए, इसका जवाब केंद्र या किसी भी राज्य सरकार के पास नहीं है।
साल 2012 की सर्दियों
में राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में हुए निर्भया गैंगरेप मामले ने महिला सुरक्षा के
मुद्दे पर पूरे देश को आंदोलित कर दिया। केंद्र सरकार को इसके बाद महिला सुरक्षा
को ध्यान में रखते हुए कुछ बड़े सुधार करने पड़े थे। इसी क्रम में साल 2013 में सरकार
द्वारा ‘निर्भया फंड’ की स्थापना
की गई। चूंकि महिला सुरक्षा कानून-व्यवस्था का विषय
है और कानून-व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है इसलिए निर्भया फंड के तहत
वित्त मंत्रालय द्वारा राज्य सरकारों को पैसा जारी करने की घोषणा की गई।
पहले साल इस योजना के
तहत 1000 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की गई थी और यह भी कहा गया था कि हर साल 1000
करोड़ रूपये इस फंड के तहत विभिन्न राज्यों को उनकी जनसंख्या, क्षेत्रफल और
महिलाओं के प्रति हुए अपराध के रिकॉर्ड के अनुसार दिए जाएंगे। लेकिन साल दर साल यह
राशि घटती रही और सात साल में अभी तक 3024.46 करोड़ रूपये ही केंद्र सरकार इस पर
जारी कर पाई है।
लेकिन सबसे बड़ा
प्रश्न यह है कि साल दर साल महिलाओं के प्रति अपराध बढ़ने के बावजूद इस फंड का बजट
और खर्च लगातार घटता गया। यही कारण है कि निर्भया फंड का सिर्फ 63.45 प्रतिशत
हिस्सा ही अब तक राज्य सरकारें खर्च कर पाई हैं। इस मामले में सबसे कम खर्च करने
वाले पिछड़े दस राज्य क्रमशः सिक्किम (15.08%), मेघालय (21.88%), गोवा- (22.5%), आंध्र प्रदेश (23.65%), ओडिशा (24.93%), झारखंड (25.94%), हरियाणा (26.93%), असम (32.06%), मध्य प्रदेश
(34.63%) और केरल (37.14%) हैं।
वहीं तमिलनाडु (87.62%),
दिल्ली (86.2%), पश्चिम बंगाल (81.7%), गुजरात (78.31%), कर्नाटक (76.44%), नागालैंड
(68.81%), उत्तर प्रदेश (66.67%), उत्तराखंड (65.58%), महाराष्ट्र (60.61%) और मिजोरम
(59.46%) इस मामले में खर्च करने वाले शीर्ष दस राज्य रहे हैं।
अगर हम उत्तर प्रदेश
के विशेष संदर्भ में बात करें, जहां अभी हाथरस की विभत्स घटना घटी है तो उत्तर
प्रदेश को अब तक 324.88 करोड़ रूपये निर्भया फंड के तहत मिले हैं लेकिन खर्च सिर्फ
66.72 प्रतिशत यानी 216.75 करोड़ रूपये हुए हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश का खर्च औसत
(66.72%), सरकारी औसत (63.45%) से थोड़ा अधिक है और निर्भया फंड के तहत खर्च करने वाले
शीर्ष दस राज्यों में भी उत्तर प्रदेश का नाम है, लेकिन 33.28% भी नहीं खर्च
होना कई बड़े सवाल खड़े करते हैं। खासकर तब जब प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ हिंसा
के मामले लगातार बढ़ते रहे हैं, जैसा कि एनसीआरबी की रिपोर्ट भी कहती है।
इस संबंध में महिला
अधिकारों के लिए काम करने वाली विधिक संस्था ऑली (Association for Advocacy and Legal Initiatives- AALI) की वकील
रेनु मिश्रा कहती हैं कि ये आंकड़े दिखाते हैं कि सरकारे और प्रशासन बलात्कार
पीड़िताओं के पुनर्वास और रिहैबिलेटेशन के प्रति कितना गंभीर है।
गांव कनेक्शन के खास शो गांव कैफे में अपनी बात
रखते हुए वह कहती हैं, “जब
भी कोई बलात्कार की घटना नेशनल मीडिया तक पहुंच जाती है तो लोग बलात्कार जैसी
घटनाओं के खिलाफ और कठोर कानून बनाने की बात करने लगते हैं। हमें ध्यान रखना चाहिए
कि बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर पहले से ही देश में कठोर कानून है।
खासकर निर्भया की घटना के बाद परिदृश्य और भी बदला है। ठीक इसी तरह पीड़ितों के
पुनर्वास पर भी कई अच्छे नियम-कायदे बनाए गए हैं। बस जरूरत है कि उसे सरकार,
स्थानीय जिला प्रशासन उचित ढंग से लागू करे और उसे सरकारी लालफीता शाही में ना
अटकाए।”
वहीं उत्तर प्रदेश में
महिला हेल्पलाइन वन स्टॉप सेंटर 181 की प्रभारी अर्चना सिंह कहती हैं कि निर्भया
फंड के ही तहत उत्तर प्रदेश में हिंसा पीड़ित महिलाओं के लिए रानी लक्ष्मीबाई
महिला सम्मान कोष की भी स्थापना की गई थी। इसके तहत किसी भी तरह की हिंसा से
प्रताड़ित महिला को आजीविका व पुनर्वास के लिए तीन महीने के भीतर तीन से पांच लाख
रूपये दिए जाने थे लेकिन आज स्थिति इतनी खराब है कि पीड़ित महिलाओं को इसे पाने के
लिए दो से तीन साल लग जाते हैं। उन्होंने कहा कि इसके लिए सरकारों से अधिक जिला
स्तर के स्थानीय अधिकारियों की प्रशासनिक लापरवाही होती है, जिसके कारण इतनी देर
होती है और पीड़ित महिलाओं को ही दर-दर भटकना पड़ता है।
181 कॉल सेंटर बंद
होने के सवाल पर अर्चना सिंह ने गांव कनेक्शन को बताया कि यह सच है कि पिछले एक
साल से फंड के अभाव में 181 की कार्यप्रणाली प्रभावित हुई और बंद हो गया। लेकिन
पिछले सप्ताह सरकार ने इसके लिए फंड पारित किए और इसे 121 हेल्पलाइन के साथ मिला
दिया गया है। “उत्तर प्रदेश
में अभी भी अगर कोई महिला 181 हेल्पलाइन पर कॉल करती है तो उनका कॉल 121 पर मर्ज
कर दिया जाएगा और उन्हें तत्काल जरूरी सहायता उपलब्ध कराई जाएगी।”
गौरतलब है कि गांव-देहात में बैठी महिलाओं की एक फोन पर मदद दिलाने
वाली 181 की सैकड़ों महिला कर्मचारी पिछले एक साल से खुद को बहुत कमजोर महसूस कर
रही थी। इस दौरान आर्थिक तंगी के कारण एक महिला कर्मचारी ने आत्महत्या भी कर ली और
कईयों ने मायूस होकर नौकरी भी छोड़ दी। वकील रेनु मिश्रा कहती हैं, “अगर 181 को ही
देखे तो यह एक सही मंशा से शुरू की गई एक सरकारी पहल थी। इसमें काम करने वाली सभी
महिलाएं खुद हिंसा पीड़ित महिलाएं थी और उन्हें नौकरी देकर उन्हें सशक्त किया जाना
था। लेकिन कुछ ही साल में सरकारी उदासीनता के कारण यह व्यवस्था भी भरभरा कर गिर
पड़ी। साफ है कि सरकार और व्यवस्था खुद नहीं चाहती कि बलात्कार और हिंसा पीड़ित
महिलाएं अपनी पुरानी स्थिति से उबरें और खुद के पैरों पर खड़ा हों,” रेनु मिश्रा
अपनी बातों को समाप्त करती हैं।
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