रिपोर्टिंग सहयोग- हापुड़ से मोहित सैनी और हरदोई से रामजी मिश्रा और मोहित शुक्ला के इनपुट के साथ
उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 100 किलोमीटर दूर हरदोई जिले का सवायजपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र। लगभग 35-36 साल का एक युवक सोनू सिंह अपनी घायल मां मुन्नी देवी को स्वास्थ्य केंद्र के गेट पर लाता है और जोर-जोर से ‘कोई है…कोई है’ चिल्लाने लगता है। बदहवास सोनू सिंह अस्पताल के दोनों तरफ भी जाकर जोर-जोर से चिल्लाता है, दरवाजे खटकटाता है और गुस्से में शीशे की खिड़कियों को भी तोड़ डालता है। लेकिन उसकी पुकार को सुनने वाला वहां कोई नहीं होता। इसके बाद सोनू सिंह अपनी मां के सिर को गोद में रखकर रोने लगता है। इस दौरान सोनू की मां मुन्नी देवी की सांसें बहुत तेजी से चलती हैं।
सोनू के बगल में खड़ा एक व्यक्ति इस पूरी घटना का वीडियो बनाता है और लगभग 100 सेकेंड का यह वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो जाता है। इसके बाद प्रशासन हरकत में आता है और मीडिया में बयान दिया जाता है कि जो घटना हुई, उसमें प्रथम दृष्टया स्वास्थ्य विभाग की कोई लापरवाही नजर नहीं आती है। लेकिन चूंकि यह घटना बहुत गंभीर है इसलिए हम इसकी जांच का आदेश देते हैं।
At Hardoi-Sawaijpur Health Center, where a old lady died as Doctors & medical staff were not available on Duty. Man screamed for help but no one answered.
In the $tate of R0gi’s negligence, tolerance & stupidity G0/t.
Where Humanity Is History.pic.twitter.com/CD4bovEd29
— AEK (@Anas__Khan) July 3, 2020
पिछले दिनों में सोशल मीडिया पर वायरल एक और वीडियो ने लोगों को झकझोरा, जब उत्तर प्रदेश के कन्नौज जिले के जिला अस्पताल में अनुज नाम के एक बच्चे की तेज बुखार और गले में सूजन के कारण मौत हो गई। वीडियो में अनुज के पिता प्रेमचंद अपने एक वर्षीय पुत्र के शव को सीने से चिपकाकर अस्पताल के फर्श पर ही बेसुध लेट नजर आते हैं जबकि बच्चे की मां कुछ दूर पर बेसुध बैठी जोर-जोर से रो रही है।
This video is from Kannauj, UP.
A one year old child who had high fever and was admitted to the District Hospital, died on 28th June.
His father who can be seen grieving in the video, said his child died due to negligence of doctors who left him unattended.#PMAddress
(1/2) pic.twitter.com/Uy3wBOXx0Y
— αgαιηsтнεcυяяεηт (@iamwithtruth1) June 30, 2020
एक जुलाई को हुई इस घटना में भी बच्चे के परिजनों का आरोप है कि डॉक्टरों ने मामले को गंभीरता से नही लिया और अस्पताल पहुंचने के बाद भी उन्हें आधे घंटे तक इधर-उधर भटकाते रहे। इसकी वजह से ईलाज में देरी हुई और उनके बच्चों की मौत हो गई। हरदोई की घटना की तरह कन्नौज में भी अस्पताल और जिला प्रशासन ने ईलाज में किसी भी तरह की लापरवाही से इनकार किया था, हालांकि सोशल मीडिया पर वीडियो वायरल होने के बाद राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस मामले को संज्ञान में लिया है और उत्तर प्रदेश शासन के मुख्य सचिव से घटना की पूरी रिपोर्ट मांगी है।
— Gaurav Dikshit (@GauravKSD) June 29, 2020
जब यह खबर लिखी जा रही है, उसी समय उत्तर प्रदेश के हापुड़ जिले से भी एक ऐसी ही खबर आई, जिसमें मरीज के परिजनों ने अस्पताल प्रशासन पर ईलाज में लापरवाही बरतने और समय से एम्बुलेंस ना भेजने का आरोप लगाया। इस घटना में एक गर्भवती महिला मौत हो गई। 2 जुलाई को हुई इस घटना में महिला के पति रहीमुद्दीन ने आरोप लगाया कि उनके कई बार कहने के बावजूद भी अस्पताल प्रशासन ने मरीज को हापुड़ से मेरठ ले जाने के लिए एम्बुलेंस मुहैया नहीं कराया, जबकि डॉक्टर ने ही हालत गंभीर देखकर मरीज को मेरठ रेफर किया था। इस दौरान महिला की मौत, डॉक्टरों के मुताबिक बच्चे की मौत गर्भ मे ही हो गई थी। उसके बाद उन्हें शव को बैटरी रिक्शा से घर लाना पड़ा।
#Hapur – शव ले जाने के लिए सरकारी अस्पताल में नहीं मिली एम्बुलेंस।
‘नाम बड़े और दर्शन छोटे’ क्यों योगी जी एम्बुलेंस नहीं, उपचार नहीं, काहे का रामराज्य आखिर कब तक जुमलों के बल चलेगी सरकार। @priyankagandhi pic.twitter.com/yh02Daci4K
— Jatinder Kumar ( Tony ) (@tonyJatinder9) July 2, 2020
कोविड 19 और लॉकडाउन लगने के बाद से देश और प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों से कई ऐसी खबरें आई हैं जब अस्पताल पहुंचने के बावजूद भी ईलाज संभव नहीं हो पाया हो और मरीज को जान से हाथ धोना पड़ा। ऊपर की तीनों घटनाएं उसी कड़ी के नए हिस्से हैं। गांव कनेक्शन लगातार ऐसी घटनाओं को कवर करता आ रहा है।
लॉकडाउन लगने के तुरंत बाद 24 मार्च को ऐसी ही एक घटना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले से सामने आई थी, जब सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र, दुद्धी के डॉक्टरों ने कोरोना के संदेह में मरीज को देखने से इनकार कर दिया था और अस्पताल छोड़कर भाग खड़े हुए थे। इस दौरान मरीज अस्पताल के बाहर तीन घंटे तक पड़ा रहा, जब तक एंबुलेंस नहीं आई और मरीज को जिला अस्पताल स्थित आइसोलेशन केंद्र में नहीं ले गई।
लॉकडाउन के बाद अक्सर ऐसा देखा गया है कि डॉक्टर अन्य बीमारियों के मरीजों को भी संदेह की नजर से देखने लगे हैं और ठीक समय पर उनका ईलाज नहीं हो पा रहा है, जैसा कि कन्नौज में प्रेमचंद के बेटे के साथ हुआ। मीडिया से बातचीत में प्रेमचंद आरोप लगाते हैं कि वह जब अस्पताल पहुंचे तो उनके बेटे का शरीर बुखार से एकदम तप रहा था और गले की सूजन बढ़ रही थी।
“लेकिन किसी भी डॉक्टर ने मेरे बेटे को हाथ लगाने से भी इनकार कर दिया। हम आधे घंटे तक इधर-उधर अस्पताल में ही भटकते रहें। जब उसका ईलाज शुरू हुआ तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वह अब हमारे साथ नहीं रहा,” दुःखी प्रेमचंद बताते हैं।
— Gaurav Dikshit (@GauravKSD) June 29, 2020
कोविड के दौरान डॉक्टरों और मेडिकल स्टॉफ ने जिस तरह खुद को जोखिम में डालकर काम किया है वो काबिलेगौर है। भारत में ही कई डॉक्टर और मेडिकल स्टॉफ की कोरोना पीड़ित मरीजों का इलाज करते वक्त संक्रमण हो जाने से मौत हो गई। संक्रमण के इस दौर में डॉक्टरों को लोग कोरोना वरियर्स और धरती के भगवान का रूप मानकर उनका सम्मान कर रहे, उनका हौसला बढ़ा रहे लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी भी हुईं जो सवाल खड़े करती है।
ऐसा नहीं है कि कोरोना संकट या लॉकडाउन में अस्पतालों को एकदम से बंद कर दिया गया हो और सिर्फ कोरोना मरीजों का ईलाज चला हो बल्कि यह लॉकडाउन में भी 24 घंटे खुले आपात सेवाओं में से एक है। लेकिन फिर भी लगातार मरीजों के साथ लापरवाही बरतने, उनका ईलाज नहीं करने और उनके साथ ठीक से बर्ताव नहीं करने की खबरें देश के अलग-अलग हिस्सों से आती रही हैं।
पब्लिक हेल्थ रिसोर्स नेटवर्क की निदेशक डॉक्टर वंदना प्रसाद गांव कनेक्शन को इस बारे में बताती हैं कि हमारी स्वास्थ्य सेवाएं पहले से ही कमजोर हैं और कोरोना लॉकडाउन ने इसकी कलई खोल कर रख दी है। वह कहती हैं, “हमारी ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाएं तो बहुत ही बदतर हैं, सरकारों ने इस ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया। अब इसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ रहा है। हमें इस ओर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है ताकि भविष्य में हम ऐसी मुसीबतों के लिए तैयार रह सकें।”
दरअसल वंदना हमारा ध्यान उन आंकड़ों की तरफ दिलाती हैं जो कहती है कि ग्रामीण भारत में 26,000 की आबादी पर सिर्फ एक डॉक्टर और 3,100 की आबादी पर सिर्फ एक बेड है। भारत सरकार की नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट 2019 के अनुसार देश में तो वैसे हर 1,700 की आबादी पर एक बेड है लेकिन ग्रामीण भारत में इसकी स्थिति चिंताजनक है। ग्रामीण क्षेत्रों में 3,100 की आबादी पर सिर्फ एक बेड है। उत्तर प्रदेश में यह हालत और भी खराब है जहां 3900 की आबादी पर एक बेड है। उत्तर प्रदेश की 77 फीसदी (15 करोड़ से ज्यादा) ग्रामीण आबादी पर कुल 4,442 अस्पताल और 39,104 बेड हैं।
बेड के अलावा डॉक्टर्स की कमी भी ग्रामीण भारत के लिए एक बड़ी चुनौती है। रूरल हेल्थ स्टैटिस्टिक्स के अनुसार भारत के ग्रामीण क्षेत्र में 26,000 की आबादी पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर हैं जबकि वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार हर 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए। यह बात खुद सरकार भी स्वीकार करती है।
22 नवंबर, 2019 को एक सवाल के जवाब में लोकसभा में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने 31 मई 2018 की एक रिपोर्ट के हवाले से बताया था कि देश के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 34,417 डॉक्टरों की जरूरत है जबकि सिर्फ 25,567 डॉक्टरों की ही तैनाती है।
इसमें भी उत्तर प्रदेश की हालत और गंभीर है, जहां पर आवश्यक 3,621 डॉक्टरों के मुकाबले सिर्फ 1,344 डॉक्टर ही काम कर रहे हैं। इस तरह प्रदेश में लगभग 2,277 डॉक्टरों की कमी है, जो कि आवश्यक संख्या का लगभग दो-तिहाई है।
हरदोई में हुई घटना में भी अपनी मां को खोने वाले सोनू सिंह अस्पताल पर डॉक्टर उपलब्ध ना होने की बात करते हैं। वह गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, “30 जून की सुबह 8 बजे मैं अपनी मां के साथ मोटरसाईकिल से कहीं जा रहे था कि सड़क पर एक गढ्ढा आया और हम संतुलन खोकर गिर पड़े। मेरी मां को इस दुर्घटना में चोट आई और वह दर्द से कराहने लगी। मैंने 108 नंबर पर कॉल कर एंबुलेस बुलाया लेकिन बहुत देर तक एंबुलेंस नहीं आया। इसके बाद मैं अपनी मां को गोद में लेकर पैदल ही अस्पताल की तरफ भागा।”
“पीछे से आ रहे एक मोटरसाइकिल वाले ने हमारी हालत देख हमें अपने बाईक पर बैठाया और पास के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) सवायजपुर पर छोड़ दिया। वीडियो में जो मोटरसाईकिल दिख रहा है, वह उन्हीं का है। हम जब सीएचसी पर पहुंचे तो वहां कोई नहीं था। अस्पताल अंदर से बंद था। मैं इसके बाद जोर-जोर से मदद के लिए चिल्लाने लगा लेकिन किसी का जवाब नहीं मिला। इसके बाद मैं अस्पताल के चारों तरफ गया, वहां एक कोने में मुझे एक महिला मिली। उन्होंने मुझसे कहा कि आप इंतजार करिए, जल्द ही डॉक्टर साहब आएंगे।”
उस अपने साथ घटी घटना पर सोनू आगे बताते हैं, ” इसके कुछ देर बाद डॉक्टर आएं और उन्होंने इमरजेंसी दवाई देकर मेरी मां को जिला अस्पताल, हरदोई रेफर कर दिया। इसके बाद एंबुलेंस आई लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी और मेरी मां इस दुनिया में नहीं रहीं,” सोनू सिंह यह सब बताते-बताते भावुक हो जाते हैं।
सोनू सिंह जिस अस्पताल पर अपनी मां को ले गए थे वह एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) है, जिसकी इमरजेंसी सर्विस 24 घंटे खुले होने का नियम है। लेकिन जब वह अस्पताल पहुचे तो वहां कोई नही मौजूद था। हालांकि जिला और अस्पताल प्रशासन ने इस घटना से पूरी तरह अपना पल्ला झाड़ा है।
हरदोई के मुख्य चिकित्साधिकारी (सीएमओ) डॉ. एसके रावत ने गांव कनेक्शन से बातचीत में कहा कि इस मामले में स्वास्थ्य विभाग की कहीं भी लापरवाही सामने नहीं आई है। घायल महिला को सीएचसी सवायजपुर में इमरजेंसी ईलाज देकर जिला अस्पताल के लिए रेफर किया गया और उनकी रास्ते में मौत हो गई क्योंकि उनकी हालत गंभीर थी।” उन्होंने इस बात से साफ इनकार किया कि मुन्नी देवी की मौत की वजह इलाज में देरी भी हो सकती है।
डॉ. एसके रावत ने जिले के स्वास्थ्य विभाग की तरफ से एक प्रेस रिलीज भी जारी किया, जिसमें कहा गया है कि सीएचसी पर उस समय एक डॉक्टर और एक फॉर्मासिस्ट उपस्थित था और उन्होंने तत्परता से उनका प्राथमिक ईलाज कर उन्हें जिला अस्पताल के लिए रेफर किया। लेकिन सोनू की बातों और वीडियो से उपलब्ध साक्ष्यों से साफ दिख रहा है कि जिस समय सोनू अस्पताल पहुंचे उस समय अस्पताल बंद था।
ऐसा नहीं है कि वर्तमान कोरोना संकट ने सिर्फ आपातकालीन स्वास्थ्य सुविधाओं पर ग्रहण लगाया है बल्कि इससे टीबी, कुष्ठ, कैंसर, थैलीसीमिया से ग्रसित रोगियों का ईलाज और उनका देखभाल भी प्रभावित हुआ है। इसके अलावा गर्भवती महिलाओं का हर महीने होने वाला टीकाकरण, उनकी समय-समय पर होने वाली गर्भ जांच भी कोरोना संकट की वजह से प्रभावित हुई है। लॉकडाउन के दौरान अस्पतालों में होने वाले संस्थागत प्रसव में भी कमी आई है।
हापुड़ का हालिया मामला भी गर्भवती महिला से संबंधित था, जिसमें जच्चा-बच्चा दोनों की मौत हो गई। लेकिन ऊपर के दोनों मामलों की तरह इस मामले में भी अस्पताल प्रशासन ने किसी भी तरह की लापरवाही से इनकार किया।
हापुड़ सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के सुपरिडेंट डॉ० दिनेश खत्री का कहना है कि अस्पताल में जब मरीज को लाया गया, उस वक्त ही उनकी हालत गंभीर थी। “कहीं और से पहले ही डिलीवरी का प्रयास किया गया था और बच्चे का सिर पहले से ही गर्भ से बाहर था। हमने पूरी कोशिश की लेकिन बच्चा मृत पैदा हुआ। महिला की स्थिति को गंभीर देखते हुए हमने उसे मेरठ रेफर किया। लेकिन महिला के घरवाले एंबुलेस का इंतजार करने को तैयार नहीं थे, इसलिए वे उन्हें बैटरी रिक्शा से ही ले गए। इस दौरान महिला की मौत हो गई,” डॉ. खत्री बताते हैं।
It seemed delivery was earlier attempted, child’s head was dangling out of her body. We somehow delivered it but it was stillborn. She was critical. We gave emegency aid & referred her. Her family didn’t wait for ambulance&took e-rickshaw: Superintendent, Community Health Center pic.twitter.com/LzBDcMEfFT
— ANI UP (@ANINewsUP) July 2, 2020
स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार उत्तर प्रदेश मातृ मृत्यु दर के मामले में देश में दूसरे नम्बर पर है। यहाँ एक लाख महिलाओं में से 258 की मौत हो जाती है। शिशु मृत्यु दर के मामले में उत्तर प्रदेश पूरे देश में पहले स्थान पर है। पूरे देश में जन्म के समय 1000 में से 32 शिशुओं की मौत हो जाती है, उत्तर प्रदेश में यह मौत दोगुनी रफ्तार से होती है यानी 1000 में से 64 बच्चे जन्म के समय ही जान गंवा देते हैं।
कोरोना लॉकडाउन के दौरान इन मामलों में कितनी बढ़ोतरी हुई है इसका कोई भी सरकारी रिपोर्ट अभी तक नहीं आया है, लेकिन फाउंडेशन फॉर रिप्रोडक्टिव हेल्थ सर्विसेज (FRHS), इंडिया के एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना लॉकडाउन के दौरान 10 लाख से अधिक महिलाओं का गर्भपात हो सकता है और इस दौरान लगभग 1400 से 2000 गर्भवती महिलाओं की मौत हो सकती है।
ग्लोबल फाइनेंसिंग फैसिलिटी की रिपोर्ट कहती है कि कोरोना लॉकडाउन परिस्थितियों के कारण लगभग 40 लाख महिलाओं को बिना सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं के डिलेवरी करवाना पड़ सकता है। इसकी वजह से गर्भपात की संभावना 40 फीसदी तक बढ़ जाती है, वहीं गर्भवती महिला की मृत्यु की संभावना भी 52 फीसदी तक बढ़ जाती है।
स्वास्थ्य संबंधी विषयों पर शोध करने वाली रेनुका मोतिहार कहती हैं कि अगर स्थिति ऐसे ही रही और इनमें कुछ सुधार नहीं हुआ तो हम दो दशक पीछे चले जाएंगे।
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