ललितपुर (बुंदेलखंड)। कोरोना वायरस की वजह से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पूरे देश को लाॅकडाॅउन की घोषणा कर दी। प्रवासी दिहाड़ी मजदूर भी परेशान हो गए, ये वो मजदूर हैं जो कई साल पहले काम की तलाश में गांव-घर छोड़कर शहर चले गए थे। लेकिन लॉकडाउन के बाद भूखे-प्यासे कई सौ किमी पैदल ही चल घर वापस लौटने लगे।
रामकली सहरिया (40 वर्ष) अपने पति और लड़के के साथ गाँव से 690 किलोमीटर दूर सोनीपत हरियाणा में रहकर दिहाड़ी मजदूरी का काम करती थीं। घर की माली हालात ठीक नहीं थी घर की जरूरतें पूरी नहीं हो पाती थी, ऊपर से आपसी वालों का कर्ज। गाँव में रोजगार दूर दूर तक नहीं था कर्ज चुकाने की चिंता सता रही थी। रामकली पहली बार आर्थिक संकट की वजह से अपना घर छोड़ 2016 में पति अच्छेलाल के साथ परदेश मजदूरी करने चल पड़ीं। साल में दो-तीन बार घर का चक्कर लगता था।
घर से गयी रामकली के परिवार को सोनीपत हरियाणा गये दो ही महीने हुऐ थे कि कोरोना वायरस की वजह से देश में लाॅकडाॅउन की घोषणा हो गई। शहरों में रह रहे बुंदेलखंड के प्रवासी दिहाड़ी मजदूरों में उहापोह की स्थिति बन गई। केन्द्र और राज्यों की घोषणाओं के बाद भी दिहाड़ी मजदूरों ने परदेश में रूकना मुनासिब नहीं समझा। विकल्प के तौर पर उन्होंने अपने घर पहुँचने का रास्ता चुना, शहर छोड़ रामकली जैसे मजदूर लाखों की संख्या मे अपने गाँव की ओर चल पड़े।
घर पहुँचने की जिद में सोनीपत हरियाणा से कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ा तब जाकर ट्रक की मदद से वो अपने गृह जनपद ललितपुर चौथे दिन पहुँच पाईं। सर पर समान की बोरी और हाथ में थैला के साथ करीब आधा दर्जन से अधिक मजदूर साथ चल रहे थे, वो महरौनी सौजना रोड़ के जखौरा गाँव की नहर की पुलिया पर सुस्ता रही थी।
“पाव में छाले पड़ गये अब चलते नहीं बनता कई-कई घंटे भूखे प्यासे सफर में काटे, खाने को कुछ नहीं मिला, सभी दुकानें बंद जो थी बहुत बुरा सफर रहा क्या करते वहाँ मरने से अच्छा था कि घर पर मरें” ललितपुर जनपद के महरौनी तहसील अंतर्गत मैगुवाँ गाँव की रामकली सहरिया से सफर का हाल पूछने पर रोते हुऐ बताया।
रामकली सहरिया दिहाड़ी मजदूरी करने का जिक्र करते हुऐ कहा, “जनी (महिला) को बेलदारी का 300 रूपया और कारीगर को 400 से 500 मिल जाते हैं, मेहनत का काम हैं, अब तो हाथ से वो भी चला गया।”
महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पलायन रोकने के लिए कारगार उस स्थिति में हैं जब मजदूरों को माँग के आधार पर काम मिले। काम माँग के आधार पर नहीं मिलता बल्कि प्रधान की मर्जी के आधार पर चहेतों को मिलता हैं। असल कामगार पात्र रामकली के परिवार की तरह अपात्र बन जाते हैं। ऐसे ही लाखों पात्र परिवार काम के अभाव में पलायन का रास्ता अपनाते हैं। यहीं बुंदेलखंड का विशालतम ग्रामीण पलायन हैं।
रामकली सहरिया और उनके पति अच्छेलाल सहरिया का नाम जाँबकार्ड क्रमाँक – 001/5 पर दर्ज हैं। दोनों पति पत्नि ने 2008 से लेकर मार्च 2016 तक मनरेगा में अनवरत काम करते रहे , इसके बाद प्रधान ने काम देना बंद कर दिया।
पिछले चार साल से काम ना मिलने की दुहाई देते हुऐ रामकली के पति अच्छेलाल सहरिया चिल्लाते हुऐ बोले, ” हम दोनों ने आठ साल मनरेगा में मजदूरी की, हर साल काम मिला उसी लगन से हम लगन से काम किया, हम कभी परदेश नहीं गये लेकिन इन चार सालों में प्रधान ने काम नहीं दिया। फिर हम क्या करते, भुखमरी जैसी स्थिति बन गई थी परदेश नही जाना चाहते थे लेकिन मजबूरी में घर छोड़कर जाना पड़ा। अगर गाँव में काम मिला होता तो हमें परदेश नहीं जाना पड़ता। “
अच्छेलाल आगे बताते हैं,” इन चार सालों में गेहूँ की फसल कटने के बाद अप्रैल 2018 में पंचायत ने मनरेगा कूप पर केवल 6 दिन का काम मुझे दिया था। इसके बाद एक पैसे का काम नहीं दिया।”
बुंदेलखंड के प्रवास सोसाइटी के आंतरिक समिति की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार, “बुंदेलखंड के जिलों में बांदा से सात लाख 37 हजार 920, चित्रकूट से तीन लाख 44 हजार 801, महोबा से दो लाख 97 हजार 547, हमीरपुर से चार लाख 17 हजार 489, उरई (जालौन) से पांच लाख 38 हजार 147, झांसी से पांच लाख 58 हजार 377 व ललितपुर से तीन लाख 81 हजार 316 लोग महानगरों की ओर पलायन कर चुके हैं।”
बुंदेलखंड डवलपमेंट फाउंडेशन के सचिव सुधीर त्रिपाठी बताते हैं, “सुखाड़, गरीबी, आर्थिक तंगी, भूखमरी के हालातों से जूझते हुऐ बुंदेलखंड की आबादी का एक बड़ा हिस्सा शहरों की ओर पलायन कर गया था। कोरोना के डर से वो गाँव की तरफ भाग रहे हैं, जहां रोजगार नहीं हैं। ऐसे में श्रमिक बेरोजगारी भुखमरी और गरीबी के भंवरजाल में फसेंगे। विभिन्न योजनाओं के लाभ से ये आबादी अछूती हैं, इस पात्र आबादी तक योजनाओं का लाभ पहुंचाना भी चुनौती है।”
जॉबकार्ड मोनिर्टिरिंग की बात करते हुऐ सुधीर त्रिपाठी कहते हैं, “उस समय के तत्कालीन जिलाधिकारी रणवीर प्रसाद ने हर हफ्ते जॉबकार्ड मानिर्टिरिंग की व्यवस्था की थी। सहरिया मनरेगा मजदूरों को काम मिलने से उनका पलायन रूका था। उनके जाने के बाद जॉबकार्ड मोनिर्टिरिंग व्यवस्था ठप कर दी। लगातार काम करने वाले मजदूरों को काम मिलना बंद हो गया। ना चाहते हुऐ भी उन्हें पलायन करना पड़ा। “
ऑर्गेनाइजेश फॉर इकनामिक कॉपरेशन एंड डेलवमेंट (ओएसडीसी) की जुलाई 2018 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में पिछले दो दशकों में सेल्फ एम्पलाई वर्कर कम हो रहे हैं जबकि कैजुअल वर्कर की संख्या लगातार बढ़ रही है। यह साफ दर्शाता है कि गांवों में किसानों की संख्या कम हुई है जबकि शहरों में मजदूरों की संख्या बढ़ी है। देश लाॅकडाॅउन होने की बजह से लाखों दिहाड़ी मजदूरों का हूजूम शहरों को अलविदा कहते हुऐ गाँवों की ओर चल दिया।
विश्व बैंक के मुताबिक भारत में लगभग एक करोड़ लोग हर साल शहर और कस्बों की तरफ रुख कर रहे हैं। विश्व बैंक ने इसे इस सदी का ‘विशालतम ग्रामीण पलायन’ भी कहा है। वहीं अगर बुंदेलखंड की बात की जाए तो नियोजन विभाग के आंकड़ों के अनुसार बुंदेलखंड के सात जिलों बांदा, चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झांसी और ललितपुर से कम से कम 20 फीसदी आबादी हर साल पलायन कमातीहै।
रामकली के साथ उनके पास के गाँव मैनवार की रहने वाली उमा रैकवार (38 वर्ष) भी अपने पति गणेश रैकवार नौ साल के छोटे बेटे मोहित के साथ सोनीपत हरियाणा से घर लौट रही थी! उनका बड़ा लड़का अपने दादा दादी के साथ गाँव पर हैं। परिवार की तमाम जिम्मेदारी और मजबूरियों के चलते उमा रैकवार एक दशक से दिहाड़ी मजदूरी के लिए हर साल शहर जाती हैं।
उमा रैकवार कहती हैं, “गाँव में ना रोजगार हैं ना ही मजदूरी का काम! पेट पालने के लिए शहर जाकर गुजारा कर लेते हैं! अब तो दिहाड़ी मजदूरी का काम भी हाथ से चला गया! वहाँ के लोगों ने कहा कोरोना बीमारी हैं अपने घर जाओ। वहां से आने में चार दिन लगे जैसे तैसे मार कूट कर आ पाये। अब जिंदगी में शहर नहीं जायेगे चाहे गाँव में ही भूखों मर जाए।”
गणेश रैकवार कहते हैं, “घर छोडकर कोई परदेश नहीं जाना चाहता, मजबूरी सब कराती हैं। बीमारी ने सारे काम बंद कर दिये। सोनीपत से झांसी तक सड़कों पर लाखों मजदूर की भीड़ ही चल रही थी। लग रहा था जीते जी घर पहुंच जाये शहर का दोबारा मुंह नही देखेंगे।” काम छूटने की चिंता हैं और घर चलाने का डर अब घर कैसे पलेगा।