बाढ़ से निपटने के लिए क्या तटबंध ही हैं आखिरी उपाय?

छोटी और मैदानी नदियों को तो तटबंधों के सहारे नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन बड़ी और पहाड़ी नदियों को खासकर मानसून के समय में तटबंधों के सहारे रोकना बहुत ही मुश्किल है। इस समय नदियों में पानी और गाद की मात्रा काफी अधिक होती है और वे उफान पर होती हैं।
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बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और पूर्वोत्तर भारत इस साल फिर से बाढ़ की तबाही झेल रहे हैं। हाल के कुछ वर्षों में पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में जब कभी बाढ़ आई है तो इसके पीछे एक प्रमुख कारण तटबंधों का टूटना भी रहा है। दोनों राज्य हर साल नदियों के किनारे बने पुराने तटबंधों के रखरखाव-मरम्मत और नए तटबंध बनाने पर करोड़ों रूपए खर्च करती हैं। लेकिन मानसून आते ही कई जगहों पर तटबंध टूटते हैं और बाढ़ की स्थिति बन जाती है।

इन तटबंधों को बाढ़ से बचाने के लिए बनाया गया है लेकिन कई जानकारों के मुताबिक अब यही बांध बाढ़ का कारण बनते जा रहे हैं। दरअसल ये तटबंध नदियों के स्वाभाविक और प्राकृतिक रास्ते को रोकते हैं। छोटी-छोटी और मैदानी नदियों को तो तटबंधों के सहारे नियंत्रित किया जा सकता है लेकिन बड़ी और पहाड़ी नदियों को तटबंधों के सहारे रोकना संभव नहीं है।

पिछले कई सालों से बिहार के बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में ‘बाढ़ मुक्ति अभियान’ चलाने वाले डी. के. मिश्रा गांव कनेक्शन को बताते हैं, “बिहार को बाढ़ से बचाने के लिए 1954 में तटबंध नीति लाया गया था लेकिन इससे राज्य में बाढ़ का खतरा और बढ़ा ही है। तटबंधों को इसलिए बनाया गया था ताकि नदियों के किनारे बसे अधिक से अधिक गांवों को सुरक्षित किया जा सके। लेकिन नदियों के दोनों तरफ तटबंध बनने से हजारों गांव इन तटबंधों के बीच में ही आ गए और इन गांवों में बाढ़ की समस्या लगातार विकराल होती चली गई।”

डी के मिश्रा की बातों को इन सरकारी आंकड़ों से भी बल मिलता है। बिहार जल संसाधन विभाग की वेबसाइट के अनुसार, 1954 में जब राज्य में सिर्फ 160 किमी लंबे तटबंध थे तब राज्य की सिर्फ 25 लाख हेक्टेयर जमीन और 76 लाख की जनसंख्या ही बाढ़ से प्रभावित होती थी। लेकिन अब जब राज्य में लगभग हर नदियों पर बांध है तो लगभग 70 लाख हेक्टेयर इलाका बाढ़ से प्रभावित हो गया है। यह आंकड़ा साल दर साल लगातार बढ़ता ही जा रहा है।

नदियों में बढ़ रही गाद भी बाढ़ का प्रमुख कारण

नेपाल की तराई में बसा बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश, हिमालयी नदियों और उनकी सहायक नदियों के पानी से हर साल प्रभावित होता है। इनमें से अधिकतर नदियां नेपाल के पहाड़ी इलाकों से आती हैं। मानसून के समय भारी बारिश होने पर पहाड़ी इलाकों से होते हुए ये नदियां अपने साथ भारी मात्रा में पानी के साथ, गाद (सिल्ट) भी लाती हैं।


बिहार में बाढ़ से तबाही मचाने वाली सबसे प्रमुख नदी कोसी है, जिसे ‘बिहार का शोक’ भी कहा जाता है। इसके अलावा गंडक, बागमती, कमला बलान, लालबकया, अधवारा और महानंदा लगभग हर साल बिहार में तबाही मचाती है। यह सभी नदियां नेपाल से होकर आती हैं।

वहीं उत्तर प्रदेश का पूर्वी इलाका, जो कि नेपाल की सीमा से सटा हुआ है, खासकर इससे प्रभावित होता है। यहां की शारदा, राप्ती, गंडक और घाघरा नदियां हर साल बाढ़ से तबाही मचाती हैं। तभी उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में शारदा नदी के किनारे बसे एक गांव के बुजुर्ग सुरेश द्विवेदी (65 वर्ष) कहते हैं, “ये नदियां आरी की तरह जमीन को काटती हैं और अपने साथ सब कुछ बहा ले जाती हैं।” उत्तर प्रदेश राज्य आपदा प्रबंधन विभाग के मुताबिक बाढ़ के कारण हर साल लगभग 432 करोड़ रूपए का नुकसान होता है।


आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर राजीव सिन्हा और उनके सहयोगियों के एक रिसर्च के अनुसार, तटबंधों से नदियों के प्राकृतिक और स्वाभाविक रास्ते को बांध दिया जाता है। बाढ़ के समय नदियां बड़ी मात्रा में अपने साथ गाद लाती हैं। पहले जब तटबंध नहीं थे तब बरसात के समय आए इन गाद को फैलने का पूरा क्षेत्र मिलता था। इससे क्षेत्र की मिट्टी भी उपजाऊ होती थी।

लेकिन तटबंधों के कारण अब गाद को फैलने का पूरा क्षेत्र नहीं मिलता। इस वजह से यह गाद नदियों में ही मिल जाती हैं। इससे नदियां लगातार उथली हो रही हैं नदियों में बाढ़ का खतरा लगातार बढ़ रहा है। नदियों में गाद बढ़ने से नदियां कटान भी खूब करती हैं।


लखीमपुर जिले में एक बाढ़ प्रभावित गांव बेहड़ा सुतिया के तेज लाल निषाद के मुताबिक असली समस्या बाढ़ नहीं बल्कि नदियों का कटान है, जो कि नदियों में फैल रहे गाद के कारण हो रहा है। पानी में ही अपना जीवन बीताने वाले जलवंशी तेज लाल निषाद कहते हैं, “इन नदियों की मुख्य समस्या बाढ़ नहीं बल्कि इसकी कटान है, जो कि नदियों में जमे गाद (सिल्ट) के कारण होता है। इसलिए नदियों की कटान की समस्या को उसमें जमी गाद को बाहर निकाल कर ही सुधारा जा सकता है।”

हालांकि सरकारें अभी भी इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं। उनका पूरा का पूरा जोर तटबंधों को बनाने और उनके रख-रखाव में ही लगा रहता है। बिहार और उत्तर प्रदेश सरकार के मुताबिक नदियों के किनारे बनने वाले तटबंध (बांध) ही बाढ़ को नियंत्रित करने के लिए सबसे प्रमुख उपाय है। यही वजह है कि सरकारों का अभी भी ध्यान तटबंधों के निर्माण पर ही है।

‘तटबंधों का टूटना: एक घोटाला’

2008 और 2017 में भी जब बिहार में प्रलयकारी बाढ़ आई थी तो वह तटबंधों के टूटने के कारण ही आई थी। वहीं पूर्वी उत्तर प्रदेश में साल 1998 में प्रलयकारी बाढ़ आई थी, तब सिर्फ गोरखपुर जिले में एक दिन में कुल 13 तटबंध टूटे थे। उस वक्त गोरखपुर जिला कुछ दिनों के लिए टापू बन गया था। गोरखपुर का सड़क और रेलमार्ग से संपर्क 72 घंटे से अधिक समय के लिए टूट गया था।

फोटो- अभिषेक वर्मा, गांव कनेक्शनफोटो- अभिषेक वर्मा, गांव कनेक्शन

इसके बाद 2013, 2017 में भी गोरखपुर और आस-पास के जिलों में कई बांध टूटे थे और प्रलयकारी बाढ़ की स्थिति आई थी। इस बार भी राप्ती और घाघरा नदी के किनारों पर कई तटबंधों के कमजोर होने पर बाढ़ की स्थिति बनी हुई है।

हालांकि सरकारें हर साल कहती हैं कि वह बाढ़ से पहले इन तटबंधों को मजबूत करने का हरसंभव उपाय करती हैं। इसके लिए मार्च से ही रोडमैप बनने शुरू हो जाते हैं। तटबंधों के मरम्मत के लिए जिला प्रशासन को निर्देश दिए जाते हैं। लेकिन मानसून आते ही इन तटबंधों के टूटने का सिलसिला शुरू हो जाता है।

बाढ़ पर पिछले कई दशक से काम कर रहे ‘मेघ पाइन अभियान’ के एकलव्य प्रसाद गांव कनेक्शन को बताते हैं, “यह हर साल का रूटीन हो गया है। हर साल मई के महीने में जिलाधिकारियों को बाढ़ से बचाव के लिए निर्देश दिए जाते हैं। उनसे कहा जाता है कि वह तटबंधों की सुरक्षा के उपाय करें, उन्हें मजबूत बनाए। लेकिन फिर भी हर साल बाढ़ से सैकड़ों लोगों की जान जाती है और अरबों का नुकसान होता है। यह उन लोगों के साथ विश्वासघात है, जिन्हें तटबंधों के नाम पर जान-माल के सुरक्षा का आश्वासन दिया जाता है।”

वहीं डी. के. मिश्रा तटबंधों की उपयोगिता पर ही सवाल खड़ा करते हैं। वह इसे भ्रष्टाचार का प्रमुख स्त्रोत बताते हुए कहते हैं, “आजादी के बाद से लगातार तटबंध बने हैं लेकिन बाढ़ पर नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। पिछले तीस साल से हम इस पर सवाल उठा रहे हैं लेकिन कोई सुनवाई करने वाला नहीं है। इंजीनियर, अधिकारी और नेता इन तटबंधों से करोड़ों कमाई करते हैं। नीचे से लेकर ऊपर तक लोगों का निहित स्वार्थ तटबंधों से जुड़ा हैं। इसलिए तटबंधों और उसकी उपयोगिता का ईमानदारी से कोई भी मूल्याकंन नहीं करना चाह रहा।”

नदियों पर काम करने वाले आपदा प्रबंधन संस्थान, भोपाल के भू वैज्ञानिक दिलीप सिंह भी भ्रष्टाचार की बात स्वीकार करते हुए कहते हैं कि तटबंधों को एकदम से नकारा नहीं जा सकता है। गांव कनेक्शन से फोन पर बात-चीत में दिलीप सिंह कहते हैं, “अगर तटबंधों का मरम्मत और देख-रेख उचित ढंग से किया जाए तो ये निश्चित तौर पर लोगों को राहत दे सकते हैं। हालांकि सिर्फ तटबंध ही बाढ़ को नियंत्रित नहीं कर सकते। अलग-अलग क्षेत्रों की भौगोलिक संरचना, आधारभूत संरचना और जल निकासी व्यवस्था को ध्यान में रखकर ही बाढ़ राहत की योजना बनाई जानी चाहिए।”

एकलव्य प्रसाद और डी. के. मिश्रा जैसे लोगों का मानना है कि बाढ़ जैसी आपदा से निपटने के लिए सरकारों को तटबंधों से निर्भरता कम करनी होगी और नए सिरे से सोचना होगा। सरकार को इस नई योजना में स्थानीय लोगों को भी शामिल करना होगा जो दशकों से बाढ़ को झेल रहे हैं। स्थानीय लोगों के बाढ़ से जूझने का दशकों का अनुभव निश्चित रूप से सरकार के काम आ सकता है, जो मुस्कुरा कर कहते हैं, “हमें तो अब बाढ़ झेलने की आदत है।” 

(यह रिपोर्ट मूल रूप से 24 जुलाई, 2019 को प्रकाशित किया गया था, जिसे अपडेट किया गया है)

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