वाराणसी: लॉकडाउन में बिखर गया लकड़ी खिलौने का कारोबार, कारीगर भूखे पेट फांका करने को मजबूर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में लकड़ी के खिलौनों के कारीगरों की आर्थिक स्थिति कोरोना वायरस को रोकने के लिए लगे लॉकडाउन की वजह से काफी बिगड़ गई है। कारीगर अब उधारी लेकर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। चीनी खिलौनों के कारण पहले से ही डूब रहे इस उद्योग को कोरोना महामारी से बड़ा झटका लगा है। वाराणसी से आनंद कुमार की जमीनी रिपोर्ट-
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र बनारस काष्ठ-कला (लकड़ी से बनी मूर्तियों) के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। वाराणसी के कश्मीरीगंज, खोजवां इलाके में बड़े पैमाने पर लकड़ी के खिलौने बनाने का कारोबार होता है। लगभग 3,000 लोग इस कारोबार से जुड़े हैं।

लगभग 30 करोड़ रुपए के लकड़ी खिलौने का ये कारोबार फिलहाल कोरोना महामारी के कारण आर्थिक संकट से जूझ रहा है। हस्तशिल्प से जुड़ी यह कला पहले ही मंदी की दौर से गुजर रही थी, अब कोरोना संकट ने इस कला को खत्म होने की अवस्था में पहुंचा दिया है। कारखानों पर लटके ताले शिल्पकारों के पेट पर ताले लगाने के लिए उतारु हैं।

श्याम गुप्ता (45) वाराणसी के काश्मीरीगंज के ही रहने वाले हैं। श्याम गुप्ता 10 साल की उम्र से ही लकड़ी का खिलौना बना रहे हैं। कोरोना लॉकडाउन से आई आर्थिक संकट को लेकर श्याम बताते हैं, “बहुत ही मुश्किल से इन दिनों दाल-रोटी चल पा रही है। धंधा एकदम चौपट हो गया है। कोई महाजन (खिलौना खरीदार) खिलौना खरीदने नहीं आ रहा, जबकि अब त्यौहारों का मौसम (दशहरा, दीपावली, छठ) आने वाला है।”

लॉकडाउन से उपजी आर्थिक संकट के कारण अभी श्याम ‘अधिया’ पर काम करने को मजबूर हैं। वे बताते हैं कि इन दिनों 100 से 200 रुपए की मजदूरी करते हैं। अगर अपना खुद काम करते तो एक दिन में 300 रुपए की मजदूरी हो ही जाती। अधिया करते हैं, अगर 400 का माल बनाएंगे तो 200 मिलेगा।

कोरोना वायरस के कारण उपजी असामान्य परिस्थिति को लेकर 56 वर्षीय खिलौना कारीगर परमानंद सिंह अपना दुख बताते हुए कहते हैं, “हम लोगों से अच्छी स्थिति तो रिक्शा वालों की है। जब से लॉकडाउन लगा है, तब से लग रहा है कि जिंदगी हम लोगों की खत्म हो जाएगी। इन दिनों एक रुपए तक की कमाई नहीं हो पा रही है। व्यापारी नहीं आ रहे है। खाली हाथ हम लोग अपना और परिवार का पेट पाल रहे हैं।”

परमानंद की कमाई इन दिनों 200 से 250 रुपए तक हो रही है। उनके लिए परिवार का खर्चा चलाना मुश्किल हो गया है।

लॉकडाउन से पहले की स्थिति को याद करते हुए परमानंद बताते हैं, “दिनभर जितना हम काम करते थे, शाम को व्यापारी आकर खरीद ले जाते थे। खिलौना हाथों-हाथ बिक जाता था। इस समय तो कोई व्यापारी आ ही नहीं रहे। माल बन रहा है, सिर्फ वो स्टोर में रखा ही रहा है।”

परमानंद सिंह खुद और अपने सहयोगियों को खुशकिस्मत मानते हुए कहते हैं, “मालिक के दया से एक खिलौने का आर्डर आ गया। तब जाकर इन दिनों काम चालू हो गया है।”

अन्य खिलौना कारीगर की तरह किशन सिंह भी ने लॉकडाउन में आर्थिक मार का सामना किया। किशन बताते हैं, “हमारे बच्चों की पढ़ाई और भविष्य अंधेरे में है। जब कमाई इसी तरह रहेगी तो हम बच्चों को कैसे पढ़ा पाएंगे? जिस तरह आज हम ये काम कर रहे हैं, आने वाले दिनों में बच्चे भी करेंगे, वो भी हमेशा हम लोगों की तरह ही परेशान रहेंगे।”

किशन पिछले 25 सालों से लकड़ी का खिलौना बना रहे हैं। कोरोना वायरस से उपजी परिस्थिति को लेकर किशन बताते हैं, “अब खिलौना कारोबार खत्म होने की कगार पर आ गया है। लॉकडाउन से पहले स्थिति ठीक थी। दिन भर में लगभग 400 रुपए की कमाई हो जाती थी, लॉकडाउन के बाद बहुत मुश्किल से 200 रुपए तक की कमाई हो पा रही है। इन दिनों लकड़ी भी बढ़िया नहीं आ रही है। लकड़ी गीली होने के कारण काम करने में दिक्कत आती है।”

बनारस के खोजवां और कश्मीरीगंज में लकड़ी से खिलौने, सिंदूरदान, चूड़ीकेस, फुलदान के साथ ही घरों में सजाने के समान भी बनाए जाते हैं। जबकि बनारस के लहरतारा में फ्लावर पॉट बनाए जाते हैं, जिसकी मांग देश में ही नहीं, बल्की विदेशों में भी है। इस कला ने दुनिया में बनारस की अनूठी पहचान बनाई है, लेकिन, कोरोना संक्रमण के कारण बनारस की यह कला अस्तित्व के संकट से जूझ रही है।

‘सरकार से नहीं मिले एक-एक हजार रुपए’

24 मार्च 2020 को यूपी सरकार की तरफ से श्रमिक भरण-पोषण योजना की शुरुआत की गई। जिसका उद्देश्य 3 महीने तक कोरोना लॉकडाउन के कारण प्रभावित दिहाड़ी मजदूरों और कामगारों के खाते में 1-1 हजार रुपए की राशि भेजना था, ताकि मजदूर और कामगार अपने परिवार की भरण पोषण कर सकें। इसके लिए नगर विकास विभाग और प्रत्येक जिले के जिलाधिकारियों को निर्देशित किया गया। सरकार की तरफ से डीबीटी प्रणाली के माध्यम से अप्रैल और मई महीने में 19 लाख से ज्यादा मजदूरों के बैंक खातों में 1-1 हजार रुपये की राशि खातों में ट्रांसफर किया गया थे। जबकि 13 जून को सरकार के तरफ से तीसरी किश्त में 10.48 लाख मजदूरों के खाते में 1-1 हजार रुपये की राशि बैंक में भेजी गई।

सरकार की इस योजना को लेकर श्याम गुप्ता बताते हैं, “हमारे खाते में एक पैसा भी नहीं आया है, लेकिन, औरतों के खातों (जनधन खाता) में हर महीना 500 रुपया जरूर आया है।”

राज्य सरकार की तरफ से आर्थिक मदद दिए जाने के सवाल पर परमानंद जवाब में कहते है कि उन्हें सरकार की तरफ से मदद नहीं मिली है। वह कहते हैं, “यहां पर जितने लोग खिलौना बनाने का काम करने वाले हैं, सभी लोगों का 51 रुपए में फॉर्म भरकर जमा कर दिया गया है, लेकिन अभी तक किसी के बैंक खाते में कोई पैसा नहीं आया है।”

श्याम गुप्ता और परमानंद की शिकायत है कि सरकार की तरफ से उन्हें कोई आर्थिक मदद नहीं मिली। यह शिकायत सिर्फ श्याम और परमानंद की ही नहीं, बल्की खोजवां और कश्मीरीगंज में अन्य कारीगरों की भी यही शिकायत है।

परिवार का पेट भरने के लिए कड़ी मेहनत

परमानंद पिछले 40 सालों से बनारस के खोजवां में लकड़ी का खिलौना बना रहे हैं। वह बताते हैं, “लॉकडाउन की इस विपरीत परिस्थिति में हम करीगर कोई दूसरा काम भी नहीं ढूंढ़ सकते हैं क्योंकि, हमने जीवन में यही काम करना सीखा है। इसके अलावा कोई दूसरा काम ही नहीं सीखे हैं। ट्राली या रिक्शा हम चला नहीं सकते हैं। मजबूरी है हम लोगों का।”

कोरोना के कारण धंधे में आई मंदी से परमांनद के लिए अपना परिवार चला पाना मुश्किल होता जा रहा है। परमांनद के चेहरे पर आनंद का भाव नहीं हैं। रुखे अंदाज में वह बताते हैं, “200 से 250 रुपए तक की मजदूरी से कैसे परिवार का खर्चा चलाया जाए, आप ही बताइए? लोगों से कर्ज मांग कर किसी तरह परिवार का पेट भर रहे है। कमाई तो नहीं हो रही है, लेकिन कर्ज जरुर बढ़ता जा रहा है।”

किशन सिंह परिहार वाराणसी के पड़ाव के निवासी हैं। वह प्रतिदिन साइकिल पर पसीना बहाकर खोजवां में लकड़ी का खिलौना बनाने जाते हैं। इसके लिए उन्हें कुल 26 किलोमीटर साइकिल चलाना पड़ता है। घर से कारखाने और कारखाने से घर तक की दूरी 13 किलोमीटर पड़ती है।

इन दिनों किशन जितना पसीना बहाते है, उसके हिसाब से उनकी कमाई नहीं हो पा रही है। किशन को सिर्फ परिवार का पेट भरने की चिंता नहीं, बल्की अपने बच्चों की पढ़ाई की भी चिंता है। वह दो बच्चों के पिता भी हैं। लॉकडाउन में बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो गई है। ऑनलाइन शिक्षा के दौर में किशन सिंह के बच्चे ‘डिजिटल डिवाइड’ का शिकार हो रहे हैं।

किशन सिंह चाह कर भी बच्चों की पढ़ाई के लिए डिजिटल उपकरण नहीं खरीद सकते हैं। उनके सामने बच्चों के लिए डिजिटल उपकरण खरीदने की चुनौती एक तऱफ है तो दूसरी तरफ परिवार का पेट भरने का संकट।

चीनी खिलौनों का असर

खिलौना बजार में चीन के खिलौना उत्पाद को लेकर श्याम गुप्ता कहते हैं, “चीन के सस्ते उत्पाद का असर हम कारीगरों के रोजी-रोटी पर पड़ता है। जब से चीनी झालर आया तब से बलफ फटकी की मांग बाजार में बंद हो गई है। इस कारण मजदूरों पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनका रोजगार ही चला गया।”

किशन लकड़ी कोरोबार के बारे में बताते हैं, “दिन प्रतिदिन यह कारोबार नीचे की तरफ जा रहा है। लगभग 400 बनारस के खिलौना उत्पाद चीन के खिलौना उत्पादों के कारण बंद हो चुके हैं।” इसका कारण पूछने पर किशन बताते हैं, “चीन का उत्पाद प्लास्टिक से बना होता है। सस्ता बना होता है, चीन के सभी उत्पाद मशीन से बनाए जाते हैं। साथ ही चीन के उत्पाद ज्यादातर चमकने वाले होते है। लोग आकर्षित होकर खरीदते हैं और हम लोगों का खिलौना हाथ से बना होता है, चीन की अपेक्षा में महंगा होता है क्योंकि लागत अधिक आती है। हम लोगों का चीन की तुलना में उत्पादन कम होता है, क्योंकि हम लोग हाथ से बनाते हैं। लकड़ी के खिलौने में क्वालिटी होती है, लेकिन महंगा होने के कारण कोई नहीं पूछता है।”

किशन अपने द्वारा बनाए गए कुछ लकड़ी के उत्पाद का नाम बताते हैं- हेलन गुड़िया, संथाल, बटलर, जोकर, पेटारी, फुलदान, भगवान शिव का शिवलिंग, मंदिर।

लॉकडाउन में त्रिलोकी नाथ की आर्थिक स्थिति भी अन्य खिलौना कारीगर की तरह ही है। त्रिलोकी नाथ को भी खिलौनों का काम पुरखों से विरासत के रुप में ही मिला है। त्रिलोकी नाथ भी बनारस में गिरते खिलौना बाजार का कारण चीन के खिलौने को मानते हैं।

किशन का चीन के खिलौने की बढ़ती मांग को लेकर जो कहना है, वह इसलिए सही है कि भारत में खिलौने बाजार में करीब 80 प्रतिशत की हिस्सेदारी चीन की है। टॉय एसोसिएशन ऑफ इंडिया के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष चीन से 4 हजार करोड़ रुपए के खिलौने आयात किए जाते हैं। चीन के खिलौने का व्यापार भारत में कुल 12 हजार करोड़ रुपए का है, जबकि भारतीय खिलौने का व्यापार कुल 1 हजार करोड़ रुपए का भी नहीं है। मात्र 25 फीसदी खिलौने स्वदेशी हैं। 75 फीसदी खिलौने का कच्चा माल भी चीन से आयात किया जाता है।

किशन का मानना है कि इस कला की अहमियत खत्म होती जा रही है। इस पर वे चिंता जाहिर करते हुए कहते हैं, “कुछ दिनों में यह कला विलुप्त हो जाएगी क्योंकि हम जो हालात देख रहे हैं हम अपने बच्चों को यह कला नहीं सिखाएंगे। यह कला तो हमारे साथ ही चला जाएगा। ऐसे में इस कला का विकास नहीं हो पाएगा।”

वाराणसी के खिलौना कारोबार के लिए चीनी खिलौने के साथ एक और चुनौती यह भी है कि ये खिलौने जंगली लकड़ी कोरैया से बनाए जाते हैं। इस लकड़ी के खिलौने भारत के बाजार में ही नहीं, बल्की पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं। लेकिन, कोरैया लकड़ी काफी महंगी होती है, इस वजह से इस व्यवसाय से जुड़े लोगों के सामने आर्थिक चुनौतियां बढ़ गई हैं। इसके अलावा लकड़ी खिलौनों को आगे ले जाने के लिए मार्केटिंग और ब्रांडिंग का अभाव भी है।

लकड़ी खिलौने से जुड़े लोगों की मांग है कि सरकार को पॉवरलूम की तर्ज पर खिलौना मशीनों को भी बिजली में सब्सिडी देना चाहिए ताकि ये लोग मशीन की मदद से अधिक से अधिक और कम लागत में उत्पादन कर सकें। 

प्रधानमंत्री की अपील- लोकल खिलौने के लिए वोकल बनें

बीते 30 अगस्त को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में देशी खिलौनों को बनाने और लोगों से प्रयोग करने की अपील की थी। उस दौरान उन्होंने वाराणसी के खिलौना बाजार की समृध्दि पर जोर दिया था। प्रधानमंत्री ने बताया कि वैश्विक स्तर पर खिलौना बाजार का कारोबार 7 लाख करोड़ का है, जिसमें भारत का हिस्सा बहुत कम है। पीएम ने लोगों से लोकल खिलौने के लिए वोकल बनने की अपील की।

प्रधानमंत्री के इस बयान के बाद भारतीय बाजार में लोकल खिलौने की मांग बढ़ेगी या नहीं, इसका जवाब तो भविष्य के गर्भ में है। भारत के खिलौना बाजार में चीन के उत्पाद की 90 फीसदी हिस्सदारी है। ऐसे में भारतीय लोगों को वोकल फॉर लोकल बनने की दिशा में कई चुनौतियां है।

प्रधानमंत्री के इस बयान को लेकर वाराणसी के खिलौना कारीगर क्या सोचते हैं। इस पर खिलौना करीगरों के अलग-अलग मत सामने आयें। उदाहरण के रूप में किशन कहते हैं, “हमें खुशी है कि प्रधानमंत्री ने इस पर गौर किया है। प्रधानमंत्री का बनारस के खिलौने को लेकर नए उद्यमियों से खिलौने बाजार में निवेश करने की अपील करना और इस तरह की खुद से पहल करने से आखिरी सांस ले रहा बनारस का खिलौना बाजार में नई जान आने की संभावना है।”

“आज तक किसी ने इस पर गौर नहीं किया कि बनारस में काष्ठ कला उद्योग कहां चला जा रहा है। हमारे बाप-दादा इसे लेकर कहते थे कि इसका कोई जीवन नहीं है। आज यह कला खत्म हो रही है, यह कला आखिरी सांस ले रही है,” वह आगे कहते हैं।

वहीं, बबलू गुप्ता प्रधानमंत्री के खिलौने वाले बयान पर कहते हैं, “मुझे नहीं लगता है कि बनारस में खिलौना बाजार विकास करेगा। जितने का खिलौना अभी बिक रहा है, उतने का ही बिकेगा। अगर हम लोग 5 रुपये भी महंगा करना चाहते है तो बहुत पंचायत हो जाता है। महाजन माल खरीदना बंद कर देते है।”

प्रधानमंत्री के खिलौने वाले बयान पर त्रिलोकी नाथ कहते हैं, “अगर ऐसा हो जाता है तो हम और हमारे बच्चों के लिए सुविधा होगी। उन्हें रोजगार मिलेगा।”

(आनंद कुमार गांव कनेक्शन के साथ इंटर्नशिप कर रहे हैं।)

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