हर 10 में से 9 व्यक्तियों ने कहा लॉकडाउन में हुई आर्थिक तंगी, 23 फीसदी को खर्च चलाने के लिए लेना पड़ा कर्ज़: गांव कनेक्शन सर्वे

कोविड-19 लॉकडाउन के चलते भारत ने कारोबार बंदी के साथ माइग्रेशन का जो दर्द झेला, उसने देश की आर्थिक व्यवस्था को हिलाकर रख दिया। गांव कनेक्शन रुरल इनसाइट ने 23 राज्यों के 179 जिलों में 25,371 व्यक्तियों का इंटरव्यू कर ये जानने की कोशिश की, कि लॉकडाउन का उनके जीवन पर क्या असर पड़ा और लोग इस आपदा में कैसे जीवन जी रहे हैं। सीरीज के इस हिस्से में हम आपको बता रहे हैं, लॉकडाउन और आर्थिक संकट...
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लॉकडाउन के 2 महीने 4 दिन बाद 29 मई को उत्तर प्रदेश के लखीमपुर जिले में मैगलगंज कस्बे में रेलवे ट्रैक पर 2 टुकड़ों में एक शव मिला। पास में एक पर्चा मिला, जिस पर लिखा था, “मैं यह सुसाइड गरीबी और बेरोजगारी की वजह से कर रहा हूं। चावल-गेहूं सरकारी कोटे से मिलता है पर चीनी, चाय पत्ती, दूध, दाल, सब्जी मसाला परचून वाला अब उधार नहीं देता, लॉकडाउन बराबर बढ़ता जा रहा है। नौकरी कहीं नहीं मिल रही।”

माल गाड़ी के आगे कूदकर जान देने वाले शख्स का नाम भानु प्रकाश गुप्ता था। खाना बनाने का काम करने वाले भानु होटल बंद होने से बेरोजगारी और पैसे की कमी से परेशान थे। ऐसे कई और वाक्ये नजर में आएं हैं, (खबर चलने के बाद गुप्ता जी के परिवार को आर्थिक मदद मिली ये अलग बात है) जिनमें से ज्यादातर सुर्खियां नहीं बन पाए।

कोरोना से जूझते देश में इस कोविड-19 लॉकडाउन की वजह से करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए, आर्थिक गतिविधियां ठप हो गईं, जिसका सीधा असर लोगों की जेब और बैंक बैलेंस पर पड़ा, हजारों लोगों को अपने घर की दाल-रोटी चलाने के लिए कर्ज़ लेना पड़ा। गाँव कनेक्शन के इस सबसे बड़े ग्रामीण सर्वे में सामने आया कि लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण भारत में लोगों को कहीं ज्यादा आर्थिक समस्याएं हुईं।

गांव कनेक्शन के सर्वे के मुताबिक हर 10 में से 9 व्यक्तियों (89 फीसदी) ने कहा कि उन्हें लॉकडाउन में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा। सर्वे में लोगों से पूछा गया कि लॉकडाउन के दौरान आपको किस तरह की आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा? इसके जवाब में 31 फीसदी लोगों ने कहा कि उन्हें हद से ज्यादा आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा तो 37 फीसदी ने कहा कि बहुत ज्यादा कठिनाई हुई, वहीं 21 फीसदी ने कहा कि लॉकडाउन के दौरान कुछ-कुछ आर्थिक (पैसे की) दिक्कतों का सामना करना पड़ा। इस तरह देखें तो सर्वे में शामिल हर 10 में से 9वें व्यक्ति यानी 89 फीसदी लोगों ने माना कि लॉकडाउन से उन्हें किसी न किसी रूप में आर्थिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।

बोलते आंकड़े- लॉकडाउन में कितनी हुई दिक्कत?

78 % ने कहा लॉकडाउन में कामकाज बंद रहा

71 % लोगों की लॉकडाउन में कम हो गई आमदनी

23 % ने कहा घर चलाने के लिए लेना पड़ा कर्ज़ उधार

77 % गरीब और 69 फीसदी निम्न वर्ग ने कहा हुई आर्थिक तंगी

71 % राशन कार्ड धारकों ने कहा सरकारी राशन मिला

भारत जैसे विकासशील देश में इतने लंबे लॉकडाउन ने हर वर्ग की आर्थिक स्थिति पर असर डाला। सर्वे में शामिल गरीब वर्ग के 77 फीसदी, निम्न वर्ग के 69 फीसदी, मध्य वर्ग के 56 फीसदी तो उच्च वर्ग के 49 फीसदी लोगों ने भी कहा उन्हें लॉकडाउन में आर्थिक तंगी का सामना करना पड़ा।

पंजाब के मोगा जिले की परमजीत कौर का ठीकठाक काम चलता था। उनकी कई दुकानें थीं लेकिन वह अब परेशान हैं। परमजीत कौर कहती हैं, “पहले घर के सब लोग काम करते थे तो अच्छी कमाई हो जाती थी, लेकिन लॉकडाउन में सब घर बैठे हैं, बचत के पैसे खर्च हो रहे। हमारी समझ में नहीं आ रहा आगे क्या होगा?”

गांव कनेक्शन के राष्ट्रव्यापी सर्वे के दौरान सवाल पूछा गया कि लॉकडाउन में आपका काम कितना प्रभावित हुआ, जिसके जवाब में 44 फीसदी लोगों ने कहा कि काम पूरी तरह ठप रहा। 34 फीसदी ने कहा काफी हद तक बंद हो गया था। जबकि 15 फीसदी लोगों ने कहा कि कुछ हद तक काम प्रभावित हुआ था। यानि 78 फीसदी (44 और 34) का कामकाज लगभग बंद रहा, जबकि ये सभी आंकड़े जोड़ें तो 93 फीसदी लोगों के काम पर लॉकडाउन का असर पड़ा।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के मो. नईम पहले बनारसी साड़ियां बुनने का काम करते थे और 400-500 रुपए रोज की कमाई करते थे, मगर लॉकडाउन में सब बंद हो गया। नईम के पास जब पैसे नहीं बचे तो लॉकडाउन के बीच उन्हें अपनी पत्नी की सोने की बालियाँ बेचनी पड़ीं।

नईम ‘गाँव कनेक्शन’ से बताते हैं, “चार महीने से मेरे पास कोई काम नहीं है। घर में चार लोग हैं अब सिर्फ आटा-चावल तो खिला नहीं सकते। जो पैसा बचाकर रखे थे दो महीने चला, फिर बाली बेचनी पड़ी। काम की तलाश में बाजार जाता हूं लेकिन दिन-दिन भर कुछ मिलता नहीं।”

लॉकडाउन के चलते जिन लोगों का काम प्रभावित हुआ उनमें प्रशिक्षित 60 (फीसदी) और अप्रशिक्षित (64 फीसदी) लोगों का काम सबसे ज्यादा प्रभावित हुआ। इसके साथ ही 38 फीसदी किसान और 48 फीसदी खेतिहर मजदूरों, पॉल्ट्री और डेयरी से जुड़े 30 फीसदी, 40 फीसदी दुकानदारों और 55 फीसदी सर्विस पर्सन (कामकार- कर्मचारी) ने कहा उनके काम (कमाई का जरिया) पर असर पड़ा।

जिन लोगों का सर्वे किया गया उनमें 26 फीसदी किसान, 20 फीसदी खेतिहर मजदूर, 10 फीसदी दुकानदार (या ट्रेडर) और 25 फीसदी लोगों में डॉक्टर, शिक्षक समेत दूसरे नौकरी पेशा लोग थे।

पश्चिम बंगाल के कूच बिहार के कुम्हारों के इलाका में हिंदू देवी देवताओं की मूर्ति बनाने वाले हजारों कारीगर रहते थे, जो लॉकडाउन के बाद बेरोजगार हैं। कलाकार और एक मूर्ति कारखाने के सह मालिक सुजीत पाल बताते हैं, “जनता कर्फ्यू के एक हफ्ते के भीतर और लॉकडाउन के दौरान हमने तीन लाख रुपए के ऑर्डर खो दिए। कूच बिहार के तीन क्लबों से केवल तीन ऑर्डर मिले हैं, जिनसे ज्यादा से ज्यादा 15000 रुपए की आय होगी।”

पिछले साल उन्होंने कूच बिहार में ही करीब 2 लाख की मूर्तियां बेची थी, और पूरे पूजा के महीने में 50 लाख का कारोबार करते थे। इस बार उनका पूरा कारखाना मूर्तियों से बनी बनाई मूर्तियों से भरा है। कलाकारों के संगठनों के मुताबिक अकेले कोलकाता में ही 2.5 लाख कारीगर बेरोजगार हुए उन्हें लाखों रुपए का घाटा हुआ है।

लॉकडाउन के दौरान न सिर्फ लोगों के काम बंद हुए, बल्कि उनकी परिवार की आमदनी में भी गिरावट दर्ज की गई है। गांव कनेक्शन के सर्वे में 71 फीसदी लोगों ने कहा (हर 10 में से 7) कि लॉकडाउऩ के दौरान उनके परिवार की आमदनी कम हुई है। 

इन तीन आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि लॉकडाउन के दौरान ग्रामीण भारत के लोग आर्थिक संकट से बुरी तरह जूझते मिले। भले ही गांवों में कोरोना संक्रमित मामलों की संख्या शहरों के मुकाबले कम थी मगर सब कुछ बंद होने से ग्रामीण भारत के लोगों की मुश्किलें कहीं ज्यादा थीं।

ज्यादातर शहरी और आम लोगों की यह आम धारणा थी कि गांवों में कोरोना संक्रमित लोगों की संख्या कम थी, ऐसे में ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन का असर कम पड़ा है, मगर गांव कनेक्शन का यह सर्वे उस सोच और भ्रम को तोड़ता है।

भारत में लॉकडाउन का असर जानने लिए शिकागो विश्वविद्यालय द्वारा मुंबई स्थित सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकानॉमी (सीएमआईई) के विशेषज्ञों ने भारत के कई राज्यों में कराए अपने विशेष सर्वे में कहा कि लॉकडाउन शुरु होने के बाद भारत के 84 फीसदी परिवारों की आय में कमी देखी गई।

रिपोर्टमें ये भी कहा गया कि तालेबंदी के चलते शहरी भारत की तुलना में ग्रामीण भारत के लोगों को अधिक संकट में देखा गया। शहरी परिवारों में 75 फीसदी में कमी आई तो ग्रामीण भारत के 88 फीसदी परिवारों की आय में गिरावट देखी गई। इसके पीछे एक वजह ये भी बताई गई की शहरों में लॉकडाउन के दौरान कई वर्गों के लिए वर्क फ्रॉम होम संभव था, जबकि ग्रामीण परिदृष्य में ये संभव नहीं।

गाँव कनेक्शन के सर्वे में सामने आया कि गरीब और निम्न वर्ग के उन लोगों को पैसों की दिक्कत का ज्यादा सामना करना पड़ा। इनमें किसान, मजदूर, शहर से खाली हाथ लौटे प्रवासी, दुकानदार, नौकरी छूटने वाले युवा और मजूदरी नहीं मिलने वाले जैसे लोग शामिल रहे।

गाँव कनेक्शन सर्वे में शामिल 75 फीसदी गरीब, जबकि 74 निम्न वर्ग ने कहा कि लॉकडाउन में उनकी आमदनी कम हुई। गंभीर बात यह है कि सर्वे में जिस गरीब और निम्न वर्ग को सबसे ज्यादा प्रभावित होने की बात है, उनमें से बड़ी संख्या पहले से ही आर्थिक दिक्कतों से जूझ रही थी।

लॉकडाउन से पहले जहां 65 फीसदी रोजमर्रा का घर चलाने में दिक्कत होती थीं वहीं लॉकडाउन के दौरान ये आंकड़ा 81 फीसदी पर पहुंच गया, जबकि निम्न वर्ग के 57 फीसदी जिन लोगों को घर चलाने में मुश्किलें होती थीं, वहीं लॉकडाउन के बाद 73 फीसदी ने कठिनाइयों की बात कही।

“परिवार में कोई कमाने वाला नहीं है, इसलिए पेट के खातिर यहां चले आए। पेट जहां ले जाएगा, वहां जाना पड़ेगा। पेंशन और अन्य योजनाओं का लाभ भी नहीं मिला। लॉकडाउन में कोई पूछने तक नहीं आया। खेती होती तो इतनी दूर क्यों आते?” भट्टा मजदूर गायत्री देवी ने यूपी के कन्नौज से बिहार के लिए श्रमिक स्पेशल ट्रेन में बैठते हुए कहा। वो हर बार सीजन के बाद घर वापस जाती थी तो जेब में पैसे होते थे लेकिन इस बार जेब खाली थी, उनके कन्नौज से जाने वालों में 80 और लोग थे, जिन्हें चिंता थी लॉकडाउन में कमाई नहीं हुई, और आगे बरसात का सीजन है।

“हमें सरकार से सिर्फ चावल मिल रहा है, क्या हम सिर्फ चावल ही उबाल कर खा लें?,” हिलोनी देवी कहती है, वो झारखंड में देवघर जिले की रहने वाली हैं, इन दिनों अपना घर उधार के पैसों से चला रही हैं। गाँव कनेक्शन सर्वे में हिलोनी देवी की तरह ही शामिल हर चौथे व्यक्ति ने कहा कि उन्हें घर चलाने के लिए किसी न किसी से कर्ज लेना पड़ा।

सर्वे के मुताबिक 23 फीसदी लोगों को कर्ज़ या उधार लेना पड़ा। 18 फीसदी ग्रामीण व्यक्तियों ने लॉकडाउन में अपने पड़ोसी से अनाज जैसे खाद्य पदार्थ लिए। 05 फीसदी को जमीन बेचनी पड़ी या बंधक रखनी पड़ी, जबकि 7 फीसदी को ज्वैलरी बेचनी या गिरवी रखनी पड़ी।

यूपी के अजय पाल कहते हैं, “पिछले साल हमने 7000 रुपए लिए थे, जिसे हम काम करके चुका रहे थे, अब फिर 10 रुपया सैकड़ा ब्याज पर 5 हजार रुपए लेने पड़े।” अजय पाल की तरह ओडिशा में कटक जिले में करंजा गांव के प्रेमानंद खुंटा भी कर्ज़ के सहारे परिवार चला रहे हैं। उन्होंने ये तो नहीं बताया कितना कर्ज़ लिया लेकिन ये जरुर कहा, ” हम क्या करते, यहां वहां लोन लेकर अपना परिवार पाल रहे हैं।”

अगर राज्यों की बात तो पंजाब, असम, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडिशा, मध्य प्रदेश में कर्ज़ लेने वालों की संख्या ज्यादा थी तो पश्चिम बंगाल में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा मिली जिन्हें घर चलाने के लिए जेवर (ज्वैलरी) बेचनी या गिरवीं रखनी पड़ी।

पंजाब में 49 फीसदी हाउसहोल्ड को कर्ज़ या उधार लेना पड़ा। हरियाणा में सबसे ज्यादा 65 फीसदी के साथ कर्ज़ या उधार की नौबत आई,जिसके बाद असम में 31 फीसदी को कर्ड़ या उधार लेना पड़ा।

गांव कनेक्शन के सर्वे में जिन लोगों ने कर्ज़-उधार लेने, कीमती बेचने या गिरवी रखने की बात कही, उनसे ये भी पूछा गया कि कि उन्हें ये पैसे किस लिए चाहिए थे, जिसके जवाब में जिन 23 फीसदी लोगों ने कर्ज़ लिया है, उन्होंने बताया कि ये पैसा उन्हें घर के खर्च को चलाने के लिए लेना पड़ा। 10 फीसदी को दवाओं, अस्पताल खर्च और 8 फीसदी कृषि कार्य जबकि 11 फीसदी में लोगों ने कर्ज़-उधारी आदि कि वजह दूसरे कार्य बताए।

सर्वे के संकेत ये बताते हैं कोरोना संक्रमण लॉकडाउन के चलते हुए ग्रामीण अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है, लोगों की घरेलू आमदनी में कटौती हुई। बड़ी आबादी को दो वक्त की रोटी के लिए संघर्ष करना पड़ा, जो लगातार जारी है।

कोरोना प्रॉजिटव मरीजों की बढ़ती संख्या के ग्रामीणों में अपने भविष्य की रोजी-रोटी को अनिश्चितता है। गांवों में रोजगार का सबसे बड़ा जरिया कही जाने वाली मनरेगा में भी लॉकडाउन के दौरान सिर्फ 20 फीसदी को काम मिला, सर्वे के अनुसार 80 फीसदी के मुताबिक गांव में मनरेगा में भी काम नहीं मिला।

बिहार में नावादा जिले में अकबरपुर के विपुल कुमार के मुताबिक वो कर्ज़ में डूब गए हैं। विपुल कहते हैं, “आपके सामने खड़ा ये आदमी इस साल कर्ज़ में पूरी तरह डूब गया है। मैं एक छोटा किसान हूं, जमीन-जायदाद नहीं है। किसी तरह इस बार कर्ज़ लेकर धान लगाए हैं लेकिन अगर जल्द हालात नहीं सुधरे तो सब बर्बाद हो जाएगा।”

सर्वेक्षण की पद्धति

भारत के सबसे बड़े ग्रामीण मीडिया संस्थान गांव कनेक्शन ने लॉकडाउन का ग्रामीण जीवन पर प्रभाव के लिए कराए गए इस राष्ट्रीय सर्वे को दिल्ली स्थित देश की प्रमुख शोध संस्था सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के परामर्श से पूरे भारत में कराया गया।

देश के 20 राज्यों, 3 केंद्रीय शाषित राज्यों के 179 जिलों में 30 मई से लेकर 16 जुलाई 2020 के बीच 25371 लोगों के बीच ये सर्वे किया गया। जिन राज्यों में सर्वे किया गया उनमें राजस्थान, पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, पश्चिम बंगाल, सिक्किम, असम, अरुणांचल प्रदेश, मनीपुर, त्रिपुरा, ओडिशा, केरला, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्य प्रदेश और चंडीगढ़ शामिल थे, इसके अलावा जम्मू-कश्मीर, लद्धाख, अंडमान एडं निकोबार द्पी समूह में भी सर्वे किया गया।

इन सभी राज्यों में घर के मुख्य कमाने वाले का इंटरव्यू किया गया साथ उन लोगों का अलग से सर्वे किया गया जो लॉकाडउन के बाद शहरों से अपने गांवों को लौटे थे। जिनकी संख्या 963 थी। सर्वे का अनुमान 25000 था, जिसमें राज्यों के अनुपात में वहां इंटरव्यू निर्धारित किए गए थे। इसमें से 79.1 फीसदी पुरुष थे और और 20.1 फीसदी महिलाएं। सर्वे में शामिल 53.7 फीसदी लोग 26 से 45 साल के बीच के थे। इनमें से 33.1 फीसदी लोग या तो निरक्षर थे या फिर प्राइमरी से नीचे पढ़े हुए सिर्फ 15 फीसदी लोग स्नातक थे। सर्वे में शामिल 43.00 लोग गरीब, 24.9 फीसदी लोवर क्लास और 25. फीसदी लोग मध्यम आय वर्ग के थे। ये पूरा सर्वे गांव कनेक्शन के सर्वेयर द्वारा गांव में जाकर फेस टू फेस एप के जरिए मोबाइल पर डाटा लिया गया। इस दौरान कोविड गाइडलाइंस (मास्क, उचित दूरी, हैंड सैनेटाइजर) आदि का पूरा ध्यान रखा गया।

सीएसडीएस, नई दिल्ली के प्रोफेसर संजय कुमार ने कहा, “सर्वे की विविधता, व्यापकता और इसके सैंपल साइज के आधार पर मैं निश्चित रूप से कह सकता हूं कि यह अपनी तरह का पहला व्यापक सर्वे है, जो ग्रामीण भारत पर लॉकडाउन से पड़े प्रभाव पर फोकस करता है। लॉकडाउन के दौरान सोशल डिस्टेंसिंग, मास्क और अन्य सरकारी नियमों का पालन करते हुए यह सर्वे गांव कनेक्शन के द्वारा आयोजित किया गया, जिसमें उत्तरदाताओं का फेस टू फेस इंटरव्यू करते हुए डाटा इकट्ठा किए गए।”

“पूरे सर्वे में जहां, उत्तरदाता शत प्रतिशत यानी की 25000 हैं, वहां प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और 95 प्रतिशत जगहों पर संभावित त्रुटि की संभावना सिर्फ +/- 1 प्रतिशत है। हालांकि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से उनके जनसंख्या के अनुसार एक निश्चित और समान आनुपातिक मात्रा में सैंपल नहीं लिए गए हैं, इसलिए कई लॉजिस्टिक और कोविड संबंधी कुछ मुद्दों में गैर प्रॉबेबिलिटी सैम्पलिंग विधि का प्रयोग हुआ है और वहां पर हम संभावित त्रुटि की गणना करने की स्थिति में नहीं हैं,” संजय कुमार आगे कहते हैं। 

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