सेकुलर व्यवस्था है तो धार्मिक संपत्तियों को जनकल्याण में लगाने पर एतराज़ क्यों है?

वक़्फ़ बोर्ड को समाप्त करने का प्रस्ताव तो है नहीं, यदि होता तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुनिया के तमाम इस्लामी देशों में ऐसी व्यवस्था नहीं है तब सेकुलर भारत में ही क्यों हो?

आजकल संसद में और संसद के बाहर भी, वक्फ सम्पत्तियों पर लगातार चर्चाएं चल रही है और पार्लियामेन्ट्री कमेटी का रिकमण्डेशन आने वाला है, उसके पश्चात ही लोकसभा में बिल पेश किया जाएगा। दुनिया के तमाम देशों का अध्ययन करने के बाद ही भारत का सेकुलर संविधान बनाया गया था, जिसके अनुसार हमारे न्यायालय निर्णय देने के मामले में स्वतन्त्र और सर्वोच्च स्थान रखते हैं। इस पर विवाद होना नहीं चाहिए था, लेकिन देश की तथा कथित सेकुलर सरकारों ने इस पर ध्यान नहीं दिया कि वक़्फ़ की सम्पत्ति से प्रभावित होने वाले केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि केरल के ईसाई और पंजाब के सिख तथा स्वयं गरीब मुसलमान भी हैं। जब अदालत का दरवाजा वक़्फ़ की सम्पत्ति के निपटारे के लिए खुल जाएगा, तो सैकड़ो मुकदमे खुद गरीब मुसलमानों के आएंगे, केरल में ईसाइयों के आएंगे और हिन्दुओं के तो आएंगे ही, इसलिए एक बार निर्णय हो जाने के बाद फिर वह सेकुलर रूप ले लेगा, ऐसी आशा की जा सकती है।

सोचने का विषय है कि दुनिया के तमाम देशों में इस्लाम फैला हुआ है तो क्या हर देश में वक़्फ़ की सम्पत्ति या वक़्फ़ बोर्ड बनाना अनिवार्य है? मैं समझता हूँ कि तमाम देशों में वक़्फ़ की कोई व्यवस्था नहीं है, तो क्या भारत में अलग से व्यवस्था की गई है? धर्म और सेकुलर संविधान के अन्दर क्या वक़्फ़ की सम्पत्ति को न्यायालय की पहुँच के बाहर रखा गया है? यदि नहीं तो फिर यह नई व्यवस्था, कि न्यायालय उस पर निर्णय नहीं कर सकता, थोड़ा विचित्र लगती है। आजकल संसद का शीतकालीन सत्र चल रहा है और पूरा सत्र हो-हल्ला के नाम शहीद हो गया, कुछ भी काम नहीं हुआ, करोड़ों-करोड़ों की संपत्ति और समय का नुकसान हुआ, लेकिन देश के कुछ लोगों को इसकी परवाह नहीं है, उन्हें तो परवाह है, सरकार को काम न करने देने की। सरकार के लिए संकट की बात यह है, कि उसके पास बड़ी मेजोरिटी नहीं है, अन्यथा इन्दिरा जी की तरह ही सत्र को चलाकर आपातकाल तक लगा सकती थी और राजीव गाँधी की तरह चला कर उच्चतम न्यायालय के शाहबानो फैसला तक को उलट-पुलट कर सकती थी। न्यायसंगत होता, यदि सेकुलर संविधान के हिसाब से देश की संपत्तियों पर निर्णय किया जाता, कानून बनाए जाते और सबको समान रूप से संपत्ति पर अधिकार होता, लेकिन शायद सरकार भी बहुमत के अभाव में संकोच कर रही है, क्योंकि संविधान संशोधन के लिए जितना बहुमत चाहिए उतना उनके पास नहीं है। आश्चर्य तो तब होता है जब सोचते हैं कि नेहरू जी जैसे’सेकुलर व्यक्ति ने धर्म विशेष के लिए अलग व्यवस्था कैसे कर दिया और 70  साल तक वह व्यवस्था कैसे बर्दाश्त की गई होगी, जब कहा जाता है कानून सबके लिए बराबर है तो यदि संविधान इस गैर बराबरी को मान्यता नहीं देता तब तो इसको चलाए रखना और भी गलत होगा।

देश की जनता ने नेहरू जी का साथ देते हुए हिन्दू धर्म में बड़े परिवर्तन को स्वीकार किया था और 1952 में प्रभु दत्त ब्रह्मचारी जो नेहरू जी के खिलाफ चुनाव लड़े थे, उन्हें जनता ने स्वीकार नहीं किया, अन्ततः 1954 में हिन्दू कोड बिल स्वीकार करते हुए आधुनिक विचार को मान्यता दे दी। यदि सभी धर्म के लिए अलग-अलग कोड बिल बनाए गए होते, या सभी देशवासियों के लिए एक ही कोड बिल बनाया जाता तो आज वक़्फ़ की लड़ाई होती ही नहीं। कठिनाई तब बढ़ जाती है जब देश के कुछ स्वार्थी नेता मुस्लिम समाज को भयभीत करते हैं कि तुम्हारी मस्जिदें छिन जाएंगी, मकबरे चले जाएंगे, कब्रिस्तान भी छीन लिए जाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ हो तो नहीं रहा है, ऐसा हो जाएगा यह भविष्यवाणी करने की क्षमता ना उनमें है, ना किसी दूसरे में, भविष्य की कल्पना के बजाय वर्तमान में जीने की आदत डालनी चाहिए। देखना यह चाहिए कि जो वर्तमान बिल आने वाला है, उसमें क्या प्रावधान है? जो आपत्तिजनक है उन पर ही आपत्ति उठाई जानी चाहिए। लेकिन जो रवैया कुछ लोग अपना रहे हैं उससे अनावश्यक पूर्वाग्रह पैदा होंगे और सामाजिक विद्वेष बढ़ेगा। वैसे वक़्फ़ बोर्ड को समाप्त करने का प्रस्ताव तो है नहीं यदि होता तो भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि दुनिया के तमाम इस्लामी देशों में ऐसी व्यवस्था नहीं है तब सेकुलर भारत में ही क्यों हो? फिर भी इस विषय पर तो चर्चा हो नहीं रही है, इसलिए हौवा खड़ा करने की आवश्यकता नहीं थी। संविधान की दुहाई देने वाले संविधान के अन्दर मौजूद प्रावधानों के अन्तर्गत जहाँ पर वक़्फ़ का नाम तक नहीं है, उस पर चर्चा कर सकते थे, मगर कैसे करेंगे? जब वह संविधान में है ही नहीं।

होना तो यह चाहिए कि बाबा साहब अंबेडकर का मूल संविधान पहले ठीक प्रकार से पढ़ा और समझा जाए उसके बाद जो 100 से अधिक संशोधन किए गए उन पर पुनर्विचार हो और नए सिरे से मूल संविधान को लागू करने का प्रयास किया जाए। यदि मान भी लिया जाए कि वक़्फ़ की सम्पत्ति ईश्वरीय सम्पत्ति है तो ईश्वर की सम्पत्ति चाहे जिस धर्म की हो चाहे जिस जाति की हो सबके कल्याण के लिए इस्तेमाल होनी चाहिए, ना की एक वर्ग विशेष के लिए। इस तरह जो बाधाएं इस संशोधन के मार्ग में इकट्ठा करके खड़ी की जा रही हैं, वह अनावश्यक और स्वार्थ बस की जा रही हैं।

यह सच है कि शायद सरकार बिल को आगे बढ़ा नहीं सकेगी, क्योंकि बहुमत का अभाव है, लेकिन यह बिल सेकुलर सिद्धान्तों पर आधारित है और संविधान सम्मत है अतः इसका विरोध संविधान का विरोध है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि वक़्फ़ की सम्पत्ति मुस्लिम गरीबों के लिए होती है लेकिन दुनिया भर के तमाम मुश्लिम देशों में ऐसा प्रावधान नहीं है इसलिए यह न तो इस्लाम की व्यवस्था है और न हमारे संविधान की। इसी प्रकार दीन-ए-इलाही जो अकबर द्वारा आरम्भ किया गया था, उसमे भीं वक्फ की कोई चर्चा नहीं है। इस बात से इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि ईश्वर की संपत्ति जन कल्याण के लिए होती है और जन कल्याण में ही लगनी चाहिए परन्तु बलवान, धनवान, ताकतवर लोग यदि इस ईश्वरीय संपत्ति पर कब्जा करके बैठ जाएंगे, तो न्याय संगत नहीं कहा जाएगा। हमारे देश में ऐसा ही हुआ है इसलिए संशोधन वाँछनीय है इस प्रस्ताव का विरोध जाने क्यों हो रहा है?

ऐसा नहीं कि केवल मुस्लिम समाज के पास ईश्वरीय सम्पतियाँ विद्यमान है बल्कि हिन्दू समाज के पास भी ईश्वरीय सम्पदा विद्यमान है, जो मन्दिरों में है, आखिर इसका उपयोग कैसे हो रहा है, उससे किसका कल्याण हो रहा है? यह समझना आवश्यक है, इसलिए उस सम्पदा को भी जन कल्याण में लगाया जाना चाहिए। सेकुलर व्यवस्था यदि आप मानते हैं, तो हर धर्म की ईश्वरीय सम्पदा जन-कल्याण में लगाई जानी चाहिए ‘’क्यों कि नर सेवा ही नारायण सेवा है’’। दक्षिण भारत के मंदिरों में और दूसरे कुछ मन्दिरों में व्यवस्था को सरकार ने कुछ हद तक अपने हाथों में लिया है और उस मन्दिरों का उपयोग श्रद्धालुओं के कल्याण के लिए या उनकी सुविधाओं को बढ़ाने के लिए होता है, इसे ईश्वरीय सम्पदा का सदुपयोग कहा जा सकता है, लेकिन वहाँ भी मांस की चर्बी की घटनाओं ने बुरी तरह व्यवस्था को बदनाम किया है। सेकुलर के नाम पर उस व्यवस्था में कुछ लोग ऐसे घुस आए हैं, जिन्होंने सारी व्यवस्था को ही अपवित्र कर दिया है।

जो लोग धार्मिक कामों के लिए दान देते हैं, वह घर से उतने गरीब नहीं होते, इसलिए शिक्षा के काम में उस सम्पदा का उपयोग भरपूर होना चाहिए, ताकि भारत जगतगुरु बन सके। अब सवाल यह है, कि शिक्षा कैसी, किसकी और क्या होनी चाहिए? इस पर भी विवाद हो सकता है, यदि शिक्षा भी जन  कल्याणकारी होगी, तो उसे सदुपयोग कहा जाएगा, अन्यथा नहीं। आशा की जानी चाहिए, कि अब वक़्फ़ बोर्ड अधिनियम संशोधन के नाम पर एक तरह से भानुमती का पिटारा खुल गया है, इसलिए भारत की सरकार को सभी धर्मों की व्यवस्था को समान रूप से सारी सम्पदा को सुनुयोजित, सुव्यवस्थित और समाज कल्याण के लिए लगाने का प्रबन्ध कर लेना चाहिए। एक बार वक़्फ़ संशोधन पास हो जाने के बाद, यह तो पूरी तरह अमान्य होना चाहिए, कि एक वर्ग की सम्पदा पर न्यायालय का हस्तक्षेप और आदेश मान्य होगा और दूसरे वर्ग की सम्पदा पर अमान्य होगा। दुर्भाग्य है कि हमारी सरकार के पास आवश्यक बहुमत नहीं है, आशा है देश की जनता इस मजबूरी को समझेगी और संसद का हो हल्ला ,मछली बाजार की तरह का शोर-शराबा पूरी तरह ना मंजूर करेगी, प्रजातन्त्र में यही उम्मीद होती है और इसी आशा पर जनकल्याण भी निर्भर है।

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