खस की खेती: साल में 60-65 हजार रुपए की लागत से प्रति एकड़ हो सकती है डेेढ़ लाख तक की कमाई

किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए हो रही कोशिशों के तहत आज हम किसान को बताएंगे खस की खेती के बारे में। ये ऐसी फसल है तो काफी कम लागत और मेहनत में किसानों को मोटा मुनाफा देती है।
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लखनऊ। खस यानि पतौरे जैसी दिखने वाली वो झाड़ीनुमा फसल, जिसकी जड़ों से निकलने वाला तेल काफी महंगा बिकता है। अंग्रेजी में इसे वेटिवर कहते हैं। खस एक ऐसी फसल है जिसका प्रत्येक भाग (जड़-पुआल,) फूल आर्थिक रूप से उपयोगी होता है। खस के तेल का उपयोग महंगे इत्र, सगंधीय पदार्थ, सौंदर्य प्रसाधनों तथा दवाइयों में होता है। तेल के अतिरिक्त खस की जड़े हस्तशिल्प समेत कई तरह से काम आती हैं।

खस की खेती को किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए केंद्र सरकार के द्वारा शुरु किए गए एरोमा मिशन के तहत पूरे देश में कराया जा रहा है। इसकी खेती उन इलाकों में भी हो सकती है जहां पानी कि किल्लत है और उन स्थानों में भी जहां वर्षा के दिनों में कुछ समय के लिए पानी इकठ्ठा हो जाता है। यानी खस की खेती हर तरह की जमीन, मिट्टी और जलवायु में हो सकती है। एरोमा मिशन की जिम्मेदारी लखनऊ स्थित सीएसआईआर की लैब सीमैप को सौंपी गई है।

एरोमा मिशन के तहत किसानों को खस के कल्टीवेशन (खेती) से लेकर मार्केटिंग कर पूरी जानकारी और सुविधाएं मुहैया कराई जाती है। सरकार की कोशिश है कि सगंध पौधों के द्वारा किसानों की आमदनी को बढ़ाया जाए। प्रो. अनिल कुमार त्रिपाठी, निदेशक, सीमैप

सीमैप के निदेशक प्रो. अनिल कुमार त्रिपाठी बताते हैं, “किसान की आमदनी बढ़ाने की योजना के तहत किसानों को प्लांटिंग मैटेरियल (स्लिप) से लेकर तकनीकी सहायता, प्रोसेसिंग (तेल निकालने) और उसकी मार्केटिंग तक की व्यवस्था की जा रही है। हम लोग किसानों को डिस्ट्रीलेशन यूनिट की सुविधा दे रहे हैं ताकि गुणवत्ता वाला तेल तेल निकाला जा सके और उसे बेचने के लिए इंडस्ट्री से भी बात हो रही है, ताकि किसान के उत्पाद बेचने में दिक्कत न हो।’

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खस की खेती के बारे में जानकारी देते सीमैप के निदेशक प्रो. अनिल कुमार त्रिपाठी। खस की खेती के बारे में जानकारी देते सीमैप के निदेशक प्रो. अनिल कुमार त्रिपाठी। 

भारत और बाकी देशों में खस के तेल की मांग को देखते हुए इसकी खेती का दायरा भी तेजी से बढ़ा है। गुजरात में भुज और कच्छ से लेकर, तमिलनाडु, कर्नाटक,बिहार और उत्तर प्रदेश तक में इसकी खेती बड़े पैमाने पर हो रही है। खस की खेती को बढ़ावा देने, नई किस्मों के विकसित करने के साथ ही, सीमैप ने पेराई की गुणवत्ता युक्त तकनीकी भी विकसित की है, जिससे अच्छा और ज्यादा तेल प्राप्त किया जा सकता है। कच्छ और तमिलनाडु से लेकर बिहार तक में ये काफी सफल रही है।

तमिलनाडु के तटीय इलाके कडलूर में रहने वाले खस के किसान धन्नराज ने बताया, “पिछले 15 वर्षों से उनके इलाके में खस की खेती हो रही थी, लेकिन परंपरागत किस्मों से तेल काफी कम निकलता था, जिसके चलते किसान खेत को छोड़कर शहरों में नौकरी-मजदूरी करने जाने लगे थे, बाद में सीमैप की उन्नत किस्म की खेती से उनका मुनाफा 3-4 गुना बढ़ गया।’ कडलूर में 20 गांवों में 500 एकड़ में खस की खेती हो रही है। उत्तर प्रदेश में सीतापुर जिले के हर्ष चंद्र वर्मा खस की खेती कर न सिर्फ हर साल लाखों रुपए कमाते हैं बल्कि उनकी खेती को देखने के लिए दूर-दूर से किसान आते हैं।

ये एक ऐसी फसल है, जिसे न छुट्टा जानवर नुकसान पहुंचा पाते हैं और न मौसम,ज्यादा बारिश या सूखा पढ़ने पर भी इसकी फसल पर असर नहीं पड़ता है।-हर्षचंद किसान, सीतापुर, यूपी

हर्षचंद के मुताबिक इस फसल का सबसे ज्यादा लाभ ये है कि इसे न जानवरों से खतरा होता है न मौसम का। खस के इन्हीं गुणों को देखते हुए यूपी बुंदेलखंड में भी इसकी खेती को बढ़े पैमाने पर कराया जा रहा है। बुंदेलखंड में पानी की किल्लत तो हैं कि साथ ही अन्ना प्रथा (छुट्टा जानवर) भी किसानों के लिए संकट बने हैं।

खस विशेषज्ञ और सीमैप में वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. राजेश वर्मा बताते हैं, “सीमैप ने खस की कई उन्नत किस्मे विकसित की हैं। जिसमें 6 महीने में तैयार होने वाली किस्म भी शामिल है। 18 महीने में तैयार होने वाली फसल से एक एकड़ में 10 किलो तेल निकलता है तो 1 साल वाली में 8 से 10 किलो वहीं, 6 महीने किस्म भी 5-6 किलो तेल देती है। अगर किसान इसके साथ सहफसली करते हैं तो मुनाफा और बढ़ जाता है।’ खस के तेल से महंगे इत्र, सौंदर्य प्रशाधन, और दवाएं बनती हैं तो जड़ों का प्रयोग कूलर की खास और हस्तशिल्प में होता है।

खस की जड़ों की रोपाई फरवरी से अक्टूबर महीने तक, किसी भी समय की जा सकती है। लेकिन सबसे उपयुक्त समय फरवरी और जुलाई माह होता है। खुदाई करीब 6,12,14 व 18 महीने बाद (प्रजाति के अनुसार) इनकी जड़ों को खोदकर कर उनकी पेराई की जाती है। एक एकड़ ख़स की खेती से करीब 6 से 10 किलो तेल मिल जाता है यानि हेक्टेयर में 15-25 किलो तक तेल मिल सकता है।

एक मोटे अनुमान के मुताबिक दुनिया में प्रति वर्ष करीब 250-300 टन तेल की मांग है,जबकि भारत में महज 100-125 टन का उत्पादन हो रहा है, जिसका सीधा मतलब है कि आगे बहुत संभावनाएं हैं। सीमैप द्वारा विकसित खस यानि वेटिवर की उन्नत किस्मों जैसे के ऐस -1, के ऐस -2, धारिणी, केशरी, गुलाबी, सिम-वृद्धि, सीमैप खस -15, सीमैप खस-22, सीमैप खुसनालिका तथा सीमैप समृद्धि हैं। 

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खस की खेती में प्रति एकड़ लागत करीब 60-65 हजार रुपए की आती है, ये लागत भी पेराई और कटाई आदि की होती है। जबकि प्रति एकड़ 10 किलो तक तेल एक साल में मिल जाता है। अगर 20 हजार रुपए का औसत रेट भी माने तो एक एकड़ से किसान को 2 लाख की कमाई होगी। यानि हर साल एक से सवाल लाख रुपए की शुद्ध बचत हो सकती है।-डॉ. संजय कुमार, वैज्ञानिक, सीमैप

खस की खेती में अनुमानित लागत और लाभ (प्रति एकड़)। इनपुट-सीमैपखस की खेती में अनुमानित लागत और लाभ (प्रति एकड़)। इनपुट-सीमैप

सीमैप के वैज्ञानिक डॉ.संजय कुमार यादव बताते हैं, “खस की खेती में प्रति एकड़ लागत करीब 60-65 हजार रुपए की आती है, ये लागत भी पेराई और कटाई आदि की होती है। जबकि प्रति एकड़ 10 किलो तक तेल एक साल में मिल जाता है। अगर 20 हजार रुपए का औसत रेट भी माने तो एक एकड़ से किसान को 2 लाख की कमाई होगी। यानि हर साल एक से सवाल लाख रुपए की शुद्ध बचत हो सकती है।’ 

खस की जड़ों को काटकर उन्हें पिपरमिंट की तरह पेरा जाता है। कटी हुई जड़ों को धुलकर आसवन यूनिट में भरा जाता है और नीचे से आग लगाई जाती है। आसवन विधि से निकले शुद्द तेल की अच्छी कीमत मिलती है इसलिए पेराई पर विशेष ध्यान देना चाहिए।

सीमैप में आसवान ने जानकार इंजीनियर सुदीप टंडन बताते हैं, खस की जड़े अगर ताजी हैं तो तुरंत पेराई करना चाहिए अगर एक दो दिन पुरानी हैं तो उन्हें पानी में भिगोकर आसवन चाहिए। इसके साथ ही पेराई संयंत्र (टंकी) में किसी तरह का मोबिल आयल, डिटर्जेंट आदि नहीं होना चाहिए, इससे तेल की गुणवत्ता प्रभावित होती है।”

जैसे-जैसे दुनिया में शुद्ध और प्राकृतिक उत्पादों की मांग बढ़ी है, खस के तेल की कीमतों में न सिर्फ वृद्धि हुई है बल्कि खेती का दायरा भी बढ़ा है। खस पौऐसी कुल का बहुवर्षीय पौधा है। इसका नाम वेटीवर तमिल शब्द वेटिवरु से निकला है, साधारण नामखस (वेटीवर) एंव वनस्पतिक नाम क्राईसोपोगान जिजैनियोइडिस है। सीमैप के अनुंसधान से पता चला है इससे मिट्टी में मौजूद हानिकारक तत्व और रासायनिक तत्वों की मात्रा को नियंत्रित करने में मददगार है, यानि खस एक तरह से मिट्टी को भी शुद्ध करती है।

ख़स मुख्यतः स्लिप द्वारा ही लगायी जाती है

प्रत्येक स्लिप भूमि की सतह से 3 -4 इंच गहरी लगायी जाती है।

मृदा सरंक्षण के लिए : 30 * 30 सेमी (लाइन * पौध )

नदी तटीय क्षेत्रों के लिए एवं असिंचित क्षेत्रों के लिए : 45 * 30 सेमी (लाइन * पौध )

नम एवं उपजाऊ भूमि के लिए : 60 * 30 सेमी (लाइन * पौध )

लागत और मुनाफा- सिंचित व उपजाऊ मृदा 

अनुमानित लागत- 1,00,000 लाख रुपए (प्रति हेक्टेयर)

कुल उत्पादन से आय- 3,50,000-4,00,000 रुपए

शुद्ध मुनाफा- 2,50,000 से 3,00,000 रुपए (प्रति हेक्टयर)

भुसिंचित /नदी तटीय क्षेत्र /समयग्रस्त मृदा

कुल उत्पादन से आय- 2,50,000-3,00,000 रुपए

शुद्ध मुनाफा- 1,50,000 से 2,00,000 रुपए (प्रति हेक्टयर) 

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खस की फसलखस की फसल

खस की खेती में ध्यान देने योग्य बातें

  • -ख़स की विश्वसनीय एवं उचित प्रजातियाँ जिसमे तेल की मात्रा अधिक हो उन्हें ही लगाना चाहिए
  • -कम उपजाऊ भूमि एवं खाली जमीनों में यदि खेती करनी है तो पौध संख्या बढ़ानी चाहिए
  • -पौध सामग्री (स्लिप ) को 6 – 8 माह वाले पौधे से करनी चाहिए ।
  • -आसवन से पहले जड़ों और उसमें चिपकी मिट्टी को अच्छी प्रकार को धोकर छाया में सुखाना चाहिए।
  • -तेल को पानी से अलग सावधानी पूर्वक करना चाहिए, क्योंकि तेल व पानी का आपेक्षिक घनत्व लगभग समान होता है।
  • -तेल को स्टील या एल्युमीनियम वाले बर्तनों में पूर्ण रूप से भरकर,नमी रहित जगह पर भण्ड़ारण करना चाहिए।
  • -इसकी खेती समस्या ग्रस्त भूमि, कम वर्षा वाले क्षेत्र, ऊसर, निचली एवं कटान प्रभावित क्षेत्रों, 6.5से 9.5 पी एच वाली मृदा में भी की जा सकती है।  

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