दुनिया के सबसे बड़े चावल निर्यातक देश भारत को अंतरराष्ट्रीय बाजार में पड़ोसी देश चीन से कड़ी चुनौती मिल रही है। चीन अफ्रीका के बाजारों में भारी मात्रा में चावल उतार चुका है। इसका असर यह हुआ है कि भारत के गैर बासमती चावल का निर्यात वर्ष 2019 के शुरुआती आठ महीनों में वर्ष 2018 की समान अवधि की अपेक्षा 35 फीसदी तक गिर चुका है।
कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपीडा) के अनुसार वित्त वर्ष 2019-20 के शुरुआती आठ महीनों की रिपोर्ट देखें तो इसका असर दिखने लगा है। भारत के गैर-बासमती चावल के निर्यात में 35 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2019 के अप्रैल से नवंबर के दौरान भारत ने 9,028.34 करोड़ रुपए के गैर-बासमती चावल का निर्यात किया। जबकि 2018 में भी इसी अवधि के दौरान 14,059.51 करोड़ रुपए के गैर बासमती चावल का निर्यात हुआ था।
ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक विनोद कौल गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, ” अफ्रीका भारतीय चावलों के लिए बड़ा बाजार है। ऐसे में वहां चीन हमारे निर्यातकों को बड़ा नुकसान पहुंचा सकता है। वहां की सरकारें चीन से चावल इसलिए भी ले रहीं क्योंकि हमारी कीमत ज्यादा है। स्टॉक बढ़ने से चिंतित चीन सस्ते दरों में चावल निकाल रहा है। हमारी सरकार को भी चाहिए कि वे स्टॉक में रखे पुराने चावल को अफ्रीका के बाजारों में भेजें ताकि इस नुकसान को रोका जा सके।”
वर्ष 2018-19 के आंकड़ों पर नजर डालें तो भारत के गैर बासमती चावल का सबसे बड़ा खरीददार देश नेपाल था। उसने भारत के कुल उत्पादन का 9.28 फीसदी गैर बासमती चावल आयात किया था। इसके बाद बेनिन (8.72 %), सेनेगल (7.24 %) और गिनी (5.80 %) जैसे अफ्रीकन देश कुल उत्पादन का 21.76 फीसदी अपने यहां आयात करते हैं।
चावल निर्यात के मामले में भारत सबसे बड़ा देश है। इसके बाद दूसरे नंबर पर थाईलैंड, वियतनाम और पाकिस्तान आते हैं। इससे पहले चीन की गिनती चावल के आयतक देशों में होती थी। अफ्रीकी देश भारत के गैर बासमती चावलों के लिए सबसे बड़े बाजार रहे हैं लेकिन चीन के बाद अब भारत के सामने संकट दिख रहा है।
देश में सरकार हर साल न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर बड़े पैमाने पर धान खरीद करती है, जिसका चावल बनाकर भंडारण किया जाता है और इस भंडार के एक बड़े हिस्से का उपयोग राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून के तहत 80 करोड़ से अधिक लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के जरिए सस्ती दरों पर खाद्यान्न मुहैया कराने में होता है। एफसीआई के गोदामों में दिसंबर 2019 के दौरान 212.79 लाख टन चावल और 259.11 लाख टन धान का भंडार उपलब्ध था।
नई दिल्ली की कंपनी एटूजेड ट्रेडिंग वेंचर्स के जनरल मैनेजर अजय चौधरी का मानना है कि इसका प्रभाव भविष्य में ज्यादा दिखेंगे। वे गांव कनेक्शन को फोन पर बताते हैं, ” चीन के चावलों से अभी तो बहुत दिक्कत नहीं है, लेकिन अगर ये जारी रहा तो आने वाले समय में भारत के चावल निर्यातकों को काफी दिक्कते होनी वाली हैं।”
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वे आगे कहते हैं, ” सरकार को जरूर इस पर कुछ फैसले करने चाहिए। चीन में मजदूरी लागत कम है, उनके रेट भी हमसे बेहतर हैं। ऐसे में कंपटीशन में तो हम उनसे पीछे छूट जाएंगे और देश के किसानों को भी इससे नुकसान हो सकता है। अब जब चावल बाहर जायेगा ही नहीं तो सरकार को एमएसपी पर खरीद लक्ष्य भी तो घटाना पड़ सकता है।”
राजस्थान जोधपुर के चावल निर्यातक मनोज दुबे बताते हैं, “चीन और भारत की दरों में बहुत अंतर है। हमारे यहां एमएसपी की वजह से कीमत ज्यादा है। चीन 300 (21,295 रुपए ) से 320 डॉलर (22,707 रुपए) प्रति टन की दर गैर बासमती चावल का निर्यात कर रहा है जबकि हमारी दरें इससे ज्यादा है।” एक टन में 10 कुंतल होता है।
भारत में सामान्य धान का 1815 रुपए जबकि ग्रेड ए के धान का 1835 न्यूनतम समर्थन मूल्य केंद्र सरकार किसानों को देती है। मतलब हमारे यहां एक टन धान की कीमत 18150 से 18350 रुपए हो रही है। यह वह कीमत जो सरकार किसानों को दे रही है। इसमें निर्यात से पहले तक के और खर्चों को जोड़ दिया जाये तो कीमत चीन से बहुत ज्यादा बढ़ जाती है।
अफ्रीकन बाजारों में चीन के एक कुंतल चावल की कीमत 2129 रुपए पड़ रही है जबकि एपीडा के आंकड़ों के अनुसार भारत के चावल की कीमत 3,479 रुपए प्रति कुंतल आ रही है।
राइस एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के अनुसार निर्यातकों को 8000 करोड़ रुपए का नुकसान हो चुका है जबकि अफ्रीकन बाजारों में में जाने वाले भारतीय चावल की मांग 50 फीसदी कम हो गई है। एसोसिएशन मांग की है कि वित्त मंत्रालय को मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए।
एसोसिएशन के कार्यकारी निदेशक राजीव कुमार कहते हैं, ” अभी तो तुरंत का नुकसान तो यह हो रहा है कि हमारा कारोबार बुरी तरह से प्रभावित हो रहा है, लेकिन सबसे बड़ा नुकसान यह हो रहा है कि भारत के निर्यातकों ने बड़ी मेहनत से अफ्रीकन देशों में अपनी पहचान बनाई थी। कई दशकों की मेहनत के बाद हमने अफ्रीकन देशों को भारतीय चावलों का बड़ा बाजार बनाया था। भारत को बहुत नुकसान हो रहा है।
वित्त मंत्रालय ने 26 नवंबर 2018 से 25 नवंबर 2019 के बीच चार महीनों के लिए गैर बासमती चावलों के निर्यात पर मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट फ्रॉम इंडिया स्कीम के तहत निर्यातकों को निर्यात पर 5 फीसदी प्रोत्साहन राशि दिया था जिसे बाद में बंद कर दिया गया।
राजीव कुमार कहते हैं, “अगर सरकार निर्यातकों को बचाना चाह रही है तो उसे मर्चेंडाइज एक्सपोर्ट फ्रॉम इंडिया स्कीम को दोबारा शुरू करना चाहिए भले ही यह कुछ महीनों के लिए ही हो। एक बार वित्त मंत्रालय ने इसे दोबारा शुरू करने की बात कही लेकिन चुनाव और आचार संहिता के कारण पूरा मामला अटक गया।”
वर्ष 2018-19 के पहले छह महीनों अप्रैल से सितंबर के दौरान गैर-बासमती चावल के निर्यात में 13.13 फीसदी की गिरावट आई थी और तब कुल निर्यात 37.23 लाख टन का ही हुआ है। ऐसे में निर्यातकों को नुकसान बचाने के लिए केंद्र सरकार ने प्रोत्साहन राशि देने का फैसला लिया था।
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” इंडिया से निर्यात करना भी बहुत महंगा है। ऐसे में इस पांच फीसदी प्रोत्साहन राशि से हमें काफी मदद मिलती थी। जिस एक कंटेनर को बाहर भेजने में हमारा 1320 डॉलर (93,655 रुपए) खर्च होता उसी एक कंटेनर के लिए हमारे प्रतिद्वंदी थाईलैंड का खर्च मात्र 700 डॉलर (49,661) का खर्च आता है। ऐसे में प्रतिस्पर्धा में हम वहीं पीछे हो जाते हैं। ” राजीव आगे बताते हैं।
देश में 2017-18 में चावल उत्पादन 11 करोड़ 27 लाख 60 हजार टन हुआ था। जबकि फसल वर्ष 2018-19 के दौरान चावल उत्पादन 11 करोड़ 56 लाख 30 हजार टन के रिकॉर्ड उच्च स्तर पर होने का अनुमान है।
कमोडिटी व्यापार से जुड़ी वेबसाइट मोलतोल डॉट इन के संस्थापक कमल शर्मा बताते हैं, ” भारत के लिए यह खतरे की घंटी है। हुआ यह है कि चीन ने अपने स्टॉक में रखे लगभग 30 लाख टन चावल को बाजार में रख दिया है। चीन के लोग लसलसा चावल पसंद करते हैं और उसी तरह की किस्म की खेती भी करते हैं।”
“पहले दूसरे देश ऐसे चावल की खरीद नहीं करते थे। लेकिन चीन ने कई सालों से गोदामों में पड़े चावलों को बाजार में भेजा है जिसका लसलसापन खत्म हो चुका है। हमारे यहां धान का एमएसपी ज्यादा होने के कारण चावल महंगा है। ऐसे में अब भारत के सामने मुश्किल खड़ी होने वाली है।” कमल शर्मा आगे बताते हैं।